जी हाँ निंदा रस… बहुत परिश्रम से किसी किसी के पास ही होता है, पर सौभाग्य स्त्री को इसका मिलता है | पुरुष क्या जाने इसका स्वाद ? स्त्रियाँ जब इस रस की वार्ता में व्यस्त हो जाती हैं उनका हृदय आनंद से सराबोर हो जाता है | अपना ध्यान सारा का सारा बोझिल कर्तव्यों से हटाकर बस निंदा रस के आनंद में मगन हो श्वेत पंख सी हल्की हो आकाश में विचरण करने लगती हैं | अंतर की सारी बेकार की बातें निकाल फेंकती हैं | चाहे वह सास, नन्द या पड़ोसी जो भी हो जिसको स्त्रियाँ पसन्द नहीं करती बस अपनी सखी से उसकी निंदा करना शुरू देती हैं | सच मानिए, तब उनका चेहरा कमल की तरह खिल उठता है 😊
अरे जनाब आप पुरुषों में ये गुण कहाँ जो हम स्त्रियों में है |
अब बोलो हमें इसी कारण हार्ट अटैक की संभावना भी कम होती है | जब हमारे पास निंदा रस है तो हम क्यों सेवन करें बीटरूट जूस, एलोवेरा जूस 😊
हम तो बस एक दो टे टहलते हुए या जैसा भी माहौल हो जी भर के निंदा रस में मशगूल हो उसका सेवन करने और कराने में लग जाते हैं और बिल्कुल तरोताजा हो घर पर आराम से काम करते हैं | खर्राटे मार कर सोते हैं | अरे ये तो ईश्वर के द्वारा दिया हुआ गुण है हमें, तो क्यों न इसका उपयोग कर स्वस्थ रहें हम 😊
और ये सब तो नीतिपरक स्लोगन पुरुष ही अपने ऊपर लागू करें | ठीक कहा न हमने 😊
वैतूल निवासी गुँजन खण्डेलवाल जी WOW India की ऐसी सदस्य हैं जो वैतूल में रहते हुए भी संस्था से जुडी हुई हैं और संस्था के Online कार्यक्रमों में नियमित रूप से
भाग लेती रहती है… English Scholar और अंग्रेज़ी की ही प्रोफ़ेसर होने के साथ ही हिन्दी भाषा में गहरी रूचि रखती हैं और हिन्दी भाषा की बहुत अच्छी और प्रभावशाली कवयित्री होने के साथ ही एक सुलझी हुई लेखिका भी हैं… बहुत से सम सामयिक विषयों पर अपनी सुलझी हुई राय रखती हैं… कुछ ऐसे व्यक्तित्वों के विषय में इन्होंने लिखना आरम्भ किया है जो जन मानस पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं… इससे पहले की ये कहीं इतिहास के पन्नों में गुम हो जाएँ… ताकि हम और आप इनसे कुछ प्रेरणा प्राप्त कर सकें… इनसे कुछ सीख सकें… प्रस्तुत है इनकी ये रचना… यद्यपि इस महान व्यक्तित्व के विषय में आज बहुत लोग परिचित हैं, किन्तु आज हम इसके विषय में गुँजन जी की दृष्टि से देखने का प्रयास करेंगे… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
क्यों भई तुम्हारी कलम को भी कोरोना हो गया था क्या ? कब तक ‘क्वारनटाइन’ रहेगी ?”
बात उपहास में पूछी गई, पर लगा शायद पिछले दहशत भरे वक्त का ‘कोरोना इफेक्ट’ तन मन और सभी एक्टिविटीज को कहीं न कहीं प्रभावित तो कर ही गया है | इस बार दीपावली कुछ कुछ उत्साह भरी रही की अपनों से मिलना जुलना हुआ, पर कितने घरों की शोक की पहली दीपावली मन को व्यथित कर गई | खैर…
जीवन तो आगे बढ़ता ही है | ऐसे में सन 2021 के पद्म पुरस्कारों की सूची के कुछ नाम और परिचय बहुत प्रेरक लगे | साथ ही इन पुरस्कारों की ‘क्रेडिबिलिटी’ को बढ़ा गए | महिलाएँ जहाँ कहीं की भी हों, जो भी हासिल करती हैं वो उनके लिए सदा से धारा के विपरीत तैरने जैसा होता है | ये बहुत कंट्रोवर्शियल हो सकता है पर…
जाने भी दीजिए ना ! पर इस समय जिस सम्मान और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जंगल की पगडंडियों से चल कर राष्ट्रपति भवन के ‘रेड कार्पेट’ तक नंगे पांव जिन्होंने ये सफ़र तय किया है वे हैं श्रीमती तुलसी गौड़ा जी | कर्नाटक में हलक्की जनजाति से संबंध रखने वाली तुलसी गौड़ा जी होनाली गांव के बेहद ही गरीब परिवार की हैं | यहां तक की वो कभी विद्यालय भी नहीं जा सकीं | प्रकृति के प्रति अधिक लगाव होने के कारण उनका अधिक समय जंगल में ही बीता और उनका पौधों और जड़ी बूटियों का ज्ञान विस्तृत होता गया | आज 77 वर्ष की आयु में वो ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट’ के रूप में विख्यात हैं | पिछले 60 वर्षों में उन्होंने तीस हजार से अधिक वृक्ष लगाए हैं | उनके प्रयासों को पहले भी इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवॉर्ड, राज्योत्सव अवॉर्ड और कविता मेमोरियल जैसे अवार्डो द्वारा सराहना मिल चुकी है | वे वन विभाग में कार्यरत हैं जहां वे लगातार पौधों के बीज एकत्र करती रहती हैं, गर्मी तक उनका रखरखाव करते हुए उपयुक्त समय पर जंगल में बो देती हैं |
अपने पारंपरिक सूती आदिवासी वस्त्र में राष्ट्रपति कोविद जी से पुरस्कार ग्रहण करने वाली तुलसी गौड़ा जी अपनी सादगी और पर्यावरण मित्र के रूप में नई पीढ़ी से उत्साह पूर्वक अपना ज्ञान और अनुभव बांटती है | आशा है उनके द्वारा रोपित ये बीज आगे भी अंकुरित व पल्लवित होते रहेंगे | जय हिंद |
Going Back to the History with Sunanda Shrivastava
Built in 1777, the Writer’s Building was meant to accommodate junior servants, or ‘writers’ as they were called, of the East India Company. When it was leased to the company in 1780 for this purpose, it was described as looking like a ‘shabby hospital, or poor-house ‘. After several structural changes over the next couple of decades, Fort William College set up camp there, training writers in languages such as Hindi and Persian, until around 1830. In the years that succeeded, the dwelling was used by private individuals and officials of the British Raj as living quarters and for shopping.
Extensive remodelling and renovations have occurred most of the times the building was switched between hands. Today, there are 13 blocks; six of which were added after India won independence from British rule. The 150-metre-long structure has a distinct Greco-Roman style, with several statues of Greek gods as well as a sculpture of Roman goddess Minerva commanding attention from the pediment.
Among the many notable events that occurred during the building’s lifetime, the most memorable one perhaps was the assassination of Lt Col NS Simpson, the infamous Inspector General of Prisons. Three Bengali revolutionaries – Benoy Basu, Badal Gupta and Dinesh Gupta – disguised themselves as Westerners to get inside the Writers’ Building and shot the colonel, who was notorious for his brutal oppression of Indian prisoners. It is from the names of these freedom fighters that BBD Bagh – the central business district of Kolkata (and the location of Writers’ Building) – gets its name.
बात तीस साल पहले की है | 1988 में बस्ती जिले के उत्तरी भाग को अलग कर उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थ नगर जिले की स्थापना हुई थी | इसका कारण यह था कि पुरातत्व
विभाग ने वास्तविक कपिलवस्तु की पुरातात्विक पहचान कर ली थी और कपिलवस्तु गौतम बुद्ध उर्फ सिद्धार्थ की नगरी थी | इसलिए जिले का सिद्धार्थ नगर नाम इतिहास के प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित है |
आज सिद्धार्थ नगर जिले में जो पिपरहवा है, वही सिद्धार्थ की नगरी कपिलवस्तु है | पिपरहवा की पहली जानकारी एक ब्रिटिश इंजीनियर तथा पिपरहवा क्षेत्र के जमींदार डब्ल्यू. सी. पेपे को मिली थी और वो जमीन पेपे के पास थी |
वो जनवरी का महीना था और 1898 का साल था, जब पिपरहवा में विशाल स्तूप की खोज हुई थी | स्तूप से एक पत्थर का कलश मिला | कलश पर ब्राह्मी में अभिलेख था, जिस पर लिखा था – सलिलनिधने बुधस्भगवते अर्थात अस्थि – पात्र भगवत बुध का है | 19 जनवरी, 1898 को डब्ल्यू. सी. पेपे ने नोट बनाकर इस अभिलेख को समझने के लिए वी. ए. स्मिथ को भेजा था | पहली तस्वीर पिपरहवा के विशाल स्तूप की है और दूसरी तस्वीर में वो अभिलेखित कलश है |
दिन, महीने, साल बीते | बात 1970 के दशक की है | पुरातत्व विभाग ने पिपरहवा की क्रमबद्ध खुदाई कराई | फिर तो विशाल स्तूप के अगल – बगल चारों ओर पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में अनेक संघाराम मिले | पूर्वी संघाराम, पश्चिमी संघाराम, उत्तरी संघाराम, दक्षिणी संघाराम इसे तस्वीरों में आप देख सकते हैं | पूरा पिपरहवा संघारामों से पटा हुआ था | यह कपिलवस्तु का धार्मिक – शैक्षणिक क्षेत्र था |
यह कपिलवस्तु है और वास्तविक कपिलवस्तु है | इसका पुरातात्विक प्रमाण भी मिल गया | खुदाई में मिली मिट्टी की मुहरों पर लिखा है कि कपिलवस्तु का विहार यही है | आप उन मिट्टी की मुहरों को तस्वीर में देख सकते हैं | कहीं कपिलवस्तु और कहीं महा कपिलवस्तु लिखा है |
आप देख रहे हैं कि पिपरहवा का क्षेत्र विहारों, स्तूपों से भरा है तो फिर कपिलवस्तु के लोग कहाँ रहते थे? बस पिपरहवा से कोई 1 कि. मी. की दूरी पर गनवरिया है | यह कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र था | यहीं गणराज्य के लोग रहते थे | आखिरी तस्वीर उसी गनवरिया की आवासीय संरचना की है |
पिपरहवा जो कपिलवस्तु का धार्मिक क्षेत्र था, बोधिवृक्ष पीपल नाम को सार्थक करता है और गनवरिया जो कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र था, गण नाम को सार्थक करता है | यह पूरबी बोली के नाम हैं, जिसमें ” ल ” का उच्चारण ” र ” और ” ण ” का उच्चारण ” न ” होता है | इसीलिए पीपल / पीपर से पिपरहवा/ पिपरिया संबंधित है और ( शाक्य ) गण / गन से गनवरिया संबंधित है |
On this day in the year 1862, last Mughal King Bahadur Shah ‘Zafar’ died in exile in Rangoon. Ghalib, who had been his ustad, received the news much later, only through the newspapers. He wrote a simple epitaph in a letter dated 16 December 1862, to his friend Mir Mahdi ‘Majruh’:
“7 November 14 jamadi ul awwal, saal e haal, jumme ke din, Abu Zafar Sirajuddin Bahadur Shah qaid e firang o qaid e jism se riha hue”.
‘On Friday, the 7th of November, Abu Zafar Sirajuddin Bahadur Shah was freed of the bonds of the British and the bonds of the flesh’
In a bid to ensure that Bahadur Shah Zafar’s resting place would not become a site of pilgrimage for both Hindus and Muslims, that would
potentially incite another freedom struggle in the memory of the Emperor, the British hastily buried the deceased Emperor in a secret location.
However, by chance, in the year 1991, the burial site of the last Emperor was discovered, leading to the construction of a tomb to honour the last Emperor of Hindustan.
Today, the resting site of Bahadur Shah Zafar is maintained as a Sufi dargah, with locals visiting the tomb on a daily basis as Bahadur Shah Zafar was recognised as a Sufi Pir during his reign as Emperor of Hindustan.
Post text Credit: Mughal Imperial Archives – by Sunanda Shrivastava
This is to inform you that we at WOW India, only held our annual award function in the name of Mr. A P J Abdul Kalam and we do not charge any single penny as the entry fees from the awardees.
“स्त्री तब तक “चरित्रहीन” नहीं हो सकती, जब तक पुरुष “चरित्रहीन” न हो | आज हम जो कुछ भी हैं वो हमारी आज तक की सोच का परिणाम है | इसलिए अपनी सोच ऐसी बनानी चाहिए ताकि क्रोध न आए | क्योंकि हमें अपने क्रोध के लिए दण्ड नहीं मिलता, अपितु क्रोध के कारण दण्ड मिलता है | क्रोध एक ऐसा जलता हुआ कोयला है जो दूसरों पर फेंकेंगे तो पहले हमारा हाथ ही जलाएगा | यही कारण है कि हम कितने भी युद्धों में विजय प्राप्त कर लें, जब तक हम स्वयं को वश में नहीं कर सकते तब तक हम विजयी नहीं कहला सकते | इसलिए सर्वप्रथम तो अपने शब्दों पर ध्यान देना चाहिए | भले ही कम बोलें, लेकिन ऐसी वाणी बोलें जिससे प्रेम और शान्ति का सुगन्धित समीर प्रवाहित हो | हम कितनी भी आध्यात्म की बातें पढ़ लें या उन पर चर्चा कर लें, कितने भी मन्त्रों का जाप कर लें, लेकिन जब तक हम उनमें निहित गूढ़ भावनाओं को अपने जीवन का अंग नहीं बनाएँगे तब तक सब व्यर्थ है | इस सबके साथ ही हमें अपने अतीत के स्मरण और भविष्य की चिन्ताओं को भुलाकर अपना वर्तमान सुखद बनाने का प्रयास करना चाहिए | क्योंकि संसार दुखों का घर है, दुख का कारण वासनाएँ हैं, वासनाओं को मारने से दुख दूर होते हैं, वासनाओं को मारने के लिए मानव को अष्टमार्ग अपनाना चाहिये, अष्टमार्ग अर्थात – शुद्ध ज्ञान, शुद्ध संकल्प, शुद्ध वार्तालाप, शुद्ध कर्म, शुद्ध आचरण, शुद्ध प्रयत्न, शुद्ध स्मृति और शुद्ध समाधि”…
इस प्रकार की जीवनोपयोगी और व्यावहारिक शिक्षाएँ देने वाले भगवान बुद्ध का आज वैशाख पूर्णिमा को जन्मदिवस (जो सिद्धार्थ गौतम के रूप में था) भी है, बुद्धत्व प्राप्ति (जिस दिन दीर्घ तपश्चर्या के बाद सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बने) का दिन भी है और महानिर्वाण (मोक्ष) दिवस भी है | यों कल प्रातः सूर्योदय के बाद 6:38 पर पूर्णिमा तिथि का आगमन हो चुका है, इसलिए उपवास की पूर्णिमा कल थी, किन्तु उदया तिथि होने के कारण बुद्ध पूर्णिमा का पर्व आज मनाया जा रहा है | सर्वप्रथम बुद्ध पूर्णिमा की सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ | बुद्ध न केवल बौद्ध सम्प्रदाय के ही प्रवर्तक हैं अपितु भगवान विष्णु के नवम अवतार के रूप में भी भगवान बुद्ध की पूजा अर्चना की जाती है |
अब हम बुद्ध के उपरोक्त कथन पर बात करते हैं | व्यक्ति के आत्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास के लिए बुद्ध ने शुद्ध ज्ञान, शुद्ध संकल्प, शुद्ध वार्तालाप, शुद्ध कर्म, शुद्ध आचरण, शुद्ध प्रयत्न, शुद्ध स्मृति और शुद्ध समाधि के अष्टमार्ग के साथ साथ पाँच बातें और कही हैं कि मनसा वाचा कर्मणा अहिंसा का पालन करना चाहिए, जब तक कोई अपनी वस्तु प्रेम और सम्मान के साथ हमें न दे तब तक उससे पूछे बिना वह वस्तु नहीं लेनी चाहिए, किसी भी प्रकार के दुराचार अथवा व्यभिचार से बचना चाहिए, असत्य सम्भाषण नहीं करना चाहिए और मादक पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए |
इन उपदेशों के पीछे भावना यही थी कि व्यक्ति को एक ऐसा मार्ग दिखा सकें जिस पर चलकर वह सांसारिक कर्तव्य करते हुए आत्मोत्थान के मार्ग पर अग्रसर होकर मोक्ष अर्थात पूर्ण ज्ञान की स्थिति को प्राप्त हो जाए | व्यक्ति को स्वयं ही उसके देश-काल-परिस्थिति का पूर्ण सत्यता और ईमानदारी से आकलन करके यह निश्चित करना होगा कि क्या उसके लिए उचित है और क्या अनुचित | किन्तु इतना अवश्य है कि बुद्ध के उपदेशों की आत्मा को यदि मानवमात्र ने आत्मसात कर लिया तो हर प्रकार के छल, कपट, युद्ध आदि से संसार को मुक्ति प्राप्त हो सकेगी और शान्त तथा आनन्दित हुआ मानव अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा – अध्यात्म मार्ग अर्थात स्वयं अपने भीतर झाँकने का मार्ग – स्वयं अपनी आत्मा से साक्षात्कार करने का मार्ग | और समस्त भारतीय दर्शनों की मूलभूत भावना यही है |
उदाहरण के लिए बुद्ध ने कायिक, वाचिक, मानसिक किसी भी प्रकार की हिंसा को अनुचित माना है | लेकिन जो लोग सेना में हैं – देश की सुरक्षा के लिए जो कृतसंकल्प हैं – आततायियों को नष्ट करने का उत्तरदायित्व जिनके कन्धों पर है – उनके लिए उस प्रकार की हिंसा ही उचित और कर्तव्य कर्म है, यदि वे पूर्ण रूप से अहिंसा का मार्ग अपना लेंगे तो न केवल वे कायर कहलाएँगे, बल्कि देश की सुरक्षा भी नहीं कर पाएँगे |
बुद्ध ने दुराचार और व्यभिचार से बचने की बात कही | आज जिस प्रकार से महिलाओं – यहाँ तक कि छोटी बच्चियों – के साथ दुराचार और व्यभिचार की दिल दहला देने वाली घटनाएँ सामने आ रही हैं – यदि अपने घरों में ही हम परिवार का केन्द्र बिन्दु – समाज की आधी आबादी – नारी शक्ति का सम्मान करना सीख जाएँ तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है | यहाँ बुद्ध की एक कथा का उदाहरण प्रस्तुत है कि एक बार भ्रमण करते हुए बुद्ध एक गाँव में पहुँचे तो वहाँ एक स्त्री उनसे मिलने के लिए आई और बोली “आप देखने में तो राजकुमार लगते हैं लेकिन वस्त्र आपने सन्यासियों के पहने हैं | इसका कारण ?”
बुद्ध ने उत्तर दिया “हमारा यह युवा और आकर्षक शरीर क्यों बीमार और वृद्ध होकर अन्त में काल के गाल में समा जाता है इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए मैंने सन्यास लिया है…” स्त्री उनकी बातों से प्रभावित हुई और उन्हें अपने घर भोजन के लिए निमन्त्रित किया | ग्रामवासियों को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने बुद्ध से कहा कि वे उस स्त्री के घर भोजन के लिए न जाएँ क्योंकि वह चरित्रहीन है | बुद्ध ने जब प्रमाण माँगा तो गाँव के मुखिया ने कहा “मैं शपथ लेकर कहता हूँ यह स्त्री चरित्रहीन है…” बुद्ध ने मुखिया का एक हाथ पकड़ लिया और उसे ताली बजाने को कहा | मुखिया ने कहा “मैं एक हाथ से ताली कैसे बजा सकता हूँ ?” तब बुद्ध ने कहा “अगर तुम एक हाथ से ताली नहीं बजा सकते तो फिर यह स्त्री अकेली कैसे चरित्रहीन हो सकती है | किसी भी स्त्री को चरित्रहीन बनाने के लिए पुरुष उत्तरदायी है | यदि पुरुष चरित्रवान होगा तो भला स्त्री कैसे चरित्रहीन हो सकती है ?” यही बात यदि हम अपने घर के बच्चों को संस्कार के रूप में सिखाना आरम्भ कर दें तो महिलाओं के प्रति अत्याचार जैसी भयावह स्थिति से बहुत सीमा तक मुक्ति प्राप्त हो सकती है |
बुद्ध ने मदाक पदार्थों से बचने की बात कही – तो क्या केवल नशीली वस्तुओं का सेवन ही मादक पदार्थों का सेवन है ? दूसरों की चुगली करना, आत्मतुष्टि के लिए दूसरों के
कार्यों में विघ्न डालना इत्यादि ऐसी अनेकों बातें हैं कि जिनकी लत पड़ जाए तो कठिनाई से छूटती है – इस प्रकार के नशों का भी त्याग करने के लिए बुद्ध प्रेरणा देते हैं | हम सभी दोनों “कल” की चिन्ता करते रहते हैं और “आज” को लगभग भुला ही देते हैं | बीते “कल” का कुछ किया नहीं जा सकता, अतः हमें उसे भुलाकर “आज” पर गर्व करना सीखना होगा… विश्वास कीजिए, आने वाला “कल” स्वतः ही अनुकूल हो जाएगा…
तो, देश काल और परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपने लिए उचित-अनुचित का निर्धारण करना चाहिए | हाँ, इतना प्रयास अवश्य करना चाहिए कि हमारे कर्म ऐसे हों कि जिन्हें करने के बाद हमारे मन में किसी प्रकार के अपराध बोध अथवा पश्चात्ताप की भावना न आने पाए | क्योंकि यदि हमारे मन में किसी बात के लिए अपराध बोध आ गया या किसी प्रकार के पश्चात्ताप की भावना आ गई तो हमें स्वयं से ही घृणा होने लगेगी और तब हम किस प्रकार सुखी रह सकते हैं ? स्वयं को दुखी करना भी एक प्रकार की हिंसा ही तो है | जो व्यक्ति स्वयं ही दुखी होगा वह दूसरे लोगों को सुख किस प्रकार पहुँचा सकता है ? जबकि बुद्ध के इन उपदेशों का मूलभूत उद्देश्य ही है मानव मात्र की प्रसन्नता – मानव मात्र का सुख…
बुद्ध अर्थात् अपनी चैतन्य आत्मा की साक्षी में रहते हुए, धर्म अर्थात अपने यथोचित कर्तव्यों का पालन करते हुए, संघ अर्थात समुदाय – समाज – देश – विश्व – समस्त ब्रह्माण्ड – इस समस्त चराचर जगत के प्रति उत्तरदायी रहकर सभी के हितों की चिन्ता करते हुए – सभी के प्रति समभाव रखते हुए – करुणा का भाव रखते हुए और बुद्ध के दिखाए मार्ग पर चलते हुए हम सभी सुखी रहें, शान्तचित्त रहें, सबके प्रति हमारा प्रेमभाव बना रहे, इसी भावना के साथ सभी को बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ…
कल यानी शुक्रवार 14 मई को वैशाख शुक्ल तृतीय अर्थात अक्षय तृतीया का अक्षय पर्व है, जिसे भगवान् विष्णु के छठे अवतार परशुराम के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है | तृतीया तिथि का आरम्भ प्रातः पाँच बजकर चालीस मिनट के लगभग होगा और पन्द्रह मई को प्रातः आठ बजे तक तृतीया तिथि रहेगी | तिथि के आरम्भ में गर करण और धृति योग है तथा सूर्य, शुक्र और शनि अपनी अपनी राशियों में गोचर कर रहे हैं | साथ ही चौदह मई को ही रात्रि में ग्यारह बजकर बीस मिनट के लगभग भगवान भास्कर भी वृषभ राशि में प्रस्थान कर जाएँगे | तो, सर्वप्रथम सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ…
यों तो हर माह की दोनों ही पक्षों की तृतीया जया तिथि होने के कारण शुभ मानी जाती है, किन्तु वैशाख शुक्ल तृतीया स्वयंसिद्ध तिथि मानी जाती है | पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं उनका अक्षत अर्थात कभी न समाप्त होने वाला शुभ फल प्राप्त होता है | भविष्य पुराण तथा अन्य पुराणों की मान्यता है कि भारतीय काल गणना के सिद्धान्त से अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग और त्रेतायुग का आरम्भ हुआ था जिसके कारण इस तिथि को युगादि तिथि – युग के आरम्भ की तिथि – माना जाता है |
साथ ही पद्मपुराण के अनुसार यह तिथि मध्याह्न के आरम्भ से लेकर प्रदोष काल तक अत्यन्त शुभ मानी जाती है | इसका कारण भी सम्भवतः यह रहा होगा कि पुराणों के अनुसार भगवान् परशुराम का जन्म प्रदोष काल में हुआ था | परशुराम के अतिरिक्त भगवान् विष्णु ने नर-नारायण और हयग्रीव के रूप में अवतार भी इसी दिन लिया था | ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतार भी इसी दिन माना जाता है | पवित्र नदी गंगा का धरती पर अवतरण भी इसी दिन माना जाता है | माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डवों को वनवास की अवधि में अक्षत पात्र भी इसी दिन दिया था – जिसमें अन्न कभी समाप्त नहीं होता था | माना जाता है कि महाभारत के युद्ध और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था तथा महर्षि वेदव्यास ने इसी दिन महान ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत की रचना आरम्भ की थी |
जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया का महत्त्व माना जाता है | प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को उनके वर्षीतप के सम्पन्न होने पर उनके पौत्र श्रेयाँस ने इसी दिन गन्ने के रस के रूप में प्रथम आहार दिया था | श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार किया था | सत्य और अहिंसा के प्रचार करते करते आदिनाथ हस्तिनापुर पहुँचे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था | वहाँ सोमयश के पुत्र श्रेयाँस ने इन्हें पहचान लिया और शुद्ध आहार के रूप में गन्ने का रस पिलाकर इनके व्रत का पारायण कराया | गन्ने को इक्षु कहते हैं इसलिए इस तिथि को इक्षु तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया कहा जाने लगा | आज भी बहुत से जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना करते हैं जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होकर दूसरे वर्ष वैशाख शुक्ल तृतीया को सम्पन्न होती है और इस अवधि में प्रत्येक माह की चतुर्दशी को उपवास रखा जाता है | इस प्रकार यह साधना लगभग तेरह मास में सम्पन्न होती है |
इस प्रकार विभिन्न पौराणिक तथा लोक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि को इतने सारे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए इसीलिए सम्भवतः इस तिथि को सर्वार्थसिद्ध तिथि माना जाता है | किसी भी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीया को सबसे अधिक शुभ तिथि माना जाता है : “अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तम्, तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया | उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यै:, तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ||”
सांस्कृतिक दृष्टि से इस दिन विवाह आदि माँगलिक कार्यों का आरम्भ किया जाता है | कृषक लोग एक स्थल पर एकत्र होकर कृषि के शगुन देखते हैं साथ ही अच्छी वर्षा के लिए पूजा पाठ आदि का आयोजन करते हैं | ऐसी भी मान्यता है इस दिन यदि कृषि कार्य का आरम्भ किया जाए जो किसानों को समृद्धि प्राप्त होती है | इस प्रकार प्रायः पूरे देश में इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है | साथ ही, माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किया जाए अथवा जो भी वस्तु खरीदी जाए उसका कभी ह्रास नहीं होता | किन्तु, वास्तविकता तो यह है कि यह समस्त संसार ही क्षणभंगुर है | ऐसी स्थिति में हम यह कैसे मान सकते हैं कि किसी भौतिक और मर्त्य पदार्थ का कभी क्षय नहीं होगा ? जो लोग धन, सत्ता, रूप-सौन्दर्य, मान सम्मान आदि के मद में चूर कहते सुने जाते थे “अरे हम जैसों पर किसी बीमारी से क्या फ़र्क पड़ना है… इतना पैसा आख़िर कमाया किसलिए है…? हमारी सात पीढ़ियाँ भी आराम से बैठकर खाएँ तो ख़त्म होने वाला नहीं… तो बीमारी अगर हो भी गई तो क्या है, अच्छे से अच्छे अस्पताल में इलाज़ करवाएँगे… पैसा किस दिन काम आएगा…?” आज वही लाखों रूपये जेबों में लिए घूम रहे हैं लेकिन किसी को अस्पतालों में जगह नहीं मिल रही, किसी को ऑक्सीजन नहीं मिल रही तो किसी को प्राणरक्षक दावों का अभाव हो रहा है और इस सबके चलते अपने प्रियजनों को बचा पाने में असफल हो रहे हैं | कोरोना ने तो सभी को यह बात सोचने पर विवश कर दिया है कि पञ्चतत्वों से निर्मित इस शरीर का तथा कितनी भी धन सम्पत्ति एकत्र करने का क्या प्रयोजन…?
इसीलिए यह सोचना वास्तव में निरर्थक है कि अक्षय तृतीया पर हम जितना स्वर्ण खरीदेंगे वह हमारे लिए शुभ रहेगा, अथवा हम जो भी कार्य आरम्भ करेंगे उसमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्क़ी होगी | जिस समय हमारे मनीषियों ने इस प्रकार कथन किये थे उस समय का समाज तथा उस समय की आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न थीं | उस समय भी अर्थ तथा भौतिक सुख सुविधाओं को महत्त्व दिया जाता था, किन्तु चारित्रिक नैतिक आदर्शों के मूल्य पर नहीं | यही कारण था कि परस्पर सद्भाव तथा लोक कल्याण की भावना हर व्यक्ति की होती थी | इसलिए हमारे मनीषियों के कथन का तात्पर्य सम्भवतः यही रहा होगा कि हमारे कर्म सकारात्मक तथा लोक कल्याण की भावना से निहित हों, जिनके करने से समस्त प्राणिमात्र में आनन्द और प्रेम की सरिता प्रवाहित होने लगे तो उस उपक्रम का कभी क्षय नहीं होता अपितु उसके शुभ फलों में दिन प्रतिदिन वृद्धि ही होती है – और यही तो है जीवन का वास्तविक स्वर्ण | किन्तु परवर्ती जन समुदाय ने – विशेषकर व्यापारी वर्ग ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इसे भौतिक वस्तुओं – विशेष रूप से स्वर्ण – के साथ जोड़ लिया | अभी हम देखते हैं कि अक्षय तृतीया से कुछ दिन पूर्व से ही हमारे विद्वान् ज्योतिषी अक्षय तृतीया पर स्वर्ण खरीदने का मुहूर्त बताने में लग जाते हैं | कोरोना के इस संकटकाल में भी – जब लगभग हर परिवार में यह महामारी अपना स्थान बना चुकी है – हमारे विद्वज्जन अपनी इस भूमिका का निर्वाह पूर्ण तत्परता से कर रहे हैं | लोग अपने आनन्द के लिए प्रत्येक पर्व पर कुछ न कुछ नई वस्तु खरीदते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं, किन्तु वास्तविकता तो यही है कि इस पर्व का स्वर्ण की ख़रीदारी से कोई सम्बन्ध नहीं है |
एक अन्य महत्त्व इस पर्व का है | यह पर्व ऐसे समय आता है जो वसन्त ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के कारण दोनों ऋतुओं का सन्धिकाल होता है | इस मौसम में गर्मी और उमस वातावरण में व्याप्त होती है | सम्भवतः इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस दिन सत्तू, खरबूजा, तरबूज, खीरा तथा जल से भरे मिट्टी के पात्र आदि दान देने की परम्परा है अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है | साथ ही यज्ञ की आहुतियों से वातावरण स्वच्छ हो जाता है और इस मौसम में जन्म लेने वाले रोग फैलाने वाले बहुत से कीटाणु तथा मच्छर आदि नष्ट हो जाते हैं – सम्भवतः इसीलिए इस दिन यज्ञ करने की भी परम्परा है |
अस्तु, ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्, ऊँ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात्… श्री लक्ष्मी-नारायण की उपासना के पर्व अक्षय तृतीया तथा परशुराम जयन्ती की सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात, इस समय किसी भी प्रकार का दिखावा अथवा नाम की इच्छा किये बिना जितनी हो सके दूसरों की सहायता करें… क्योंकि जिनकी सहायता हम करते हैं हमें उनके भी स्वाभिमान की रक्षा करनी है… इसीलिए तो गुप्त दान को सबसे श्रेष्ठ माना गया है… साथ ही जो लोग ऑक्सीजन, दवाओं तथा कोरोना से सम्बन्धित किसी भी वस्तु की जमाखोरी और कालाबाज़ारी में लगे हैं वे इतना अवश्य समझ लें कि यदि यह सत्य है कि इस अवसर पर किये गए शुभकर्मों के फलों में वृद्धि होती है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस अवसर पर किये गए दुष्कर्मों के फलों में भी वृद्धि होगी… और साथ ही, कोरोना से बचने के उपायों जैसे मास्क पहनना, निश्चित दूरी बनाकर रखना तथा साफ़ सफाई का ध्यान रखना आदि का पूर्ण निष्ठा से पालन करें ताकि इनसे प्राप्त होने वाले शुभ फलों में वृद्धि हो और समस्त जन कोरोना को परास्त करने में समर्थ हो सकें… सभी के जीवन में सुख-समृद्धि-सौभाग्य-ज्ञान-उत्तम स्वास्थ्य की वृद्धि होती रहे तथा हर कार्य में सफलता प्राप्त होती रहे… यही कामना है…
आज चैत्र नवरात्रों का समापन हुआ है | इस वर्ष भी गत वर्ष की ही भाँति कन्या पूजन नहीं कर सके – कोरोना के चलते सब कुछ बन्द ही रहा | आज सभी जानते हैं कि ऐसी
स्थिति है कि बहुत से परिवारों में तो पूरा का पूरा परिवार ही कोरोना का कष्ट झेल रहा है | किन्तु इतना होने पर भी उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं रही – और यही है भारतीय जन मानस की सकारात्मकता | कोई बात नहीं, माँ भगवती की कृपा से अगले वर्ष सदा की ही भाँति नवरात्रों का आयोजन होगा |
पूरे नवरात्रों में भक्ति भाव से दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी की तीनों चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ का उनकी समस्त सेना के सहित वध की कथाओं का पाठ किया जाता है | इन तीनों चरित्रों को पढ़कर इहलोक में पल पल दिखाई देने वाले अनेकानेक द्वन्द्वों का स्मरण हो आता है | किन्तु देवी के ये तीनों ही चरित्र इस लोक की कल्पनाशीलता से बहुत ऊपर हैं | दुर्गा सप्तशती किसी लौकिक युद्ध का वर्णन नहीं, वरन् एक अत्यन्त दिव्य रहस्य को समेटे उपासना ग्रन्थ है |
गीता ग्रन्थों में जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है, उसी प्रकार दुर्गा सप्तशती ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है | यही कारण है कि लाखों मनुष्य नित्य श्रद्धा-भक्ति पूर्वक इसका पाठ और अनुष्ठान आदि करते हैं | इतना ही नहीं, संसार के अन्य देशों में भी शक्ति उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित है | यह शक्ति है क्या ? शक्तिमान का वह वैशिष्ट्य जो उसे सामान्य से पृथक् करके प्रकट करता है शक्ति कहलाता है | शक्तिमान और शक्ति वस्तुतः एक ही तत्व है | तथापि शक्तिमान की अपेक्षा शक्ति की ही प्रमुखता रहती है | उसी प्रकार जैसे कि एक गायक की गायन शक्ति का ही आदर, उपयोग और महत्व अधिक होता है | क्योंकि संसार गायक के सौन्दर्य आदि पर नहीं वरन् उसकी मधुर स्वर सृष्टि के विलास में मुग्ध होता है | इसी प्रकार जगन्नियन्ता को उसकी जगत्कर्त्री शक्ति से ही जाना जाता है | इसी कारण शक्ति उपासना का उपयोग और महत्व शास्त्रों में स्वीकार किया गया है |
उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है | क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है | द्वित्व समाप्त हो जाने पर तो जीव स्वयं ब्रह्म हो जाता – अहम् ब्रह्मास्मि की भावना आ जाने पर व्यक्ति समस्त प्रकार की उपासना आदि से ऊपर उठ जाता है | द्वैत भाव का आधार सगुण तत्व है | सगुण उपासना के पाँच भेद बताए गए हैं – चित् भाव, सत् भाव, तेज भाव, बुद्धि भाव और शक्ति भाव | इनमें चित् भाव की उपासना विष्णु उपासना है | सत् भावाश्रित उपासना शिव उपासना है | भगवत्तेज की आश्रयकारी उपासना सूर्य उपासना होती है | भगवद्भाव से युक्त बुद्धि की आश्रयकारी उपासना धीश उपासना होती है | तथा भगवत्शक्ति को आश्रय मानकर की गई उपासना शक्ति उपासना कहलाती है | यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है | इसमें ब्रह्म पद से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले पाँच तत्व हैं – चित्, सत्, तेज, बुद्धि और शक्ति | इनमें चित् सत्ता जगत् को दृश्यमान बनाती है | सत् सत्ता इस दृश्यमान जगत् के अस्तित्व का अनुभव कराती है | तेज सत्ता के द्वारा जगत् का ब्रह्म की ओर आकर्षण होता है | बुद्धि सत्ता ज्ञान प्रदान करके इस भेद को बताती है कि ब्रह्म सत् है और जगत् असत् अथवा मिथ्या है | और शक्ति सत्ता जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती हुई जीव को बद्ध भी कराती है और मुक्त भी | उपासक इन्हीं पाँचों का अवलम्बन लेकर ब्रह्मसान्निध्य प्राप्त करता हुआ अन्त में ब्रह्मरूप को प्राप्त हो जाता है |
शक्ति उपासना वस्तुतः यह ज्ञान कराती है कि यह समस्त दृश्य प्रपंच ब्रहम शक्ति का ही विलास है | यही ब्रह्म शक्ति सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती है | एक ओर जहाँ यही ब्रह्मशक्ति अविद्या बनकर जीव को बन्धन में बाँधती है, वहीं दूसरी ओर यही विद्या बनकर जीव को ब्रह्म साक्षात्कार करा कर उस बन्धन से मुक्त भी कराती है | जिस प्रकार गायक और उसकी गायन शक्ति एक ही तत्व है, उसी प्रकार ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति में “अहं ममेति” जैसा भेद नहीं है | वेद और शास्त्रों में इस ब्रह्म शक्ति के चार प्रकार बताए गए हैं | जो निम्नवत् हैं :
तुरीया शक्ति – यह प्रकार ब्रह्म में सदा लीन रहने वाली शक्ति का है | यही ब्रह्मशक्ति स्व-स्वरूप प्रकाशिनी होती है | वास्तव में सगुण और निर्गुण का जो भेद है वह केवल ब्रह्म शक्ति की महिमा के ही लिये है | जब तक महाशक्ति स्वरूप के अंक में छिपी रहती है तब तक सत् चित् और आनन्द का अद्वैत रूप से एक रूप में अनुभव होता है | वह तुरीया शक्ति जब स्व-स्वरूप में प्रकट होकर सत् और चित् को अलग अलग दिखाती हुई आनन्द विलास को उत्पन्न करती है तब वह पराशक्ति कहाती है | वही पराशक्ति जब स्वरूपज्ञान उत्पन्न कराकर जीव के अस्तित्व के साथ स्वयं भी स्व-स्वरूप में लय हो निःश्रेयस का उदय करती है तब उसी को पराविद्या कहते हैं |
कारण शक्ति – अपने नाम के अनुरूप ही यह शक्ति ब्रह्मा-विष्णु-महेश की जननी है | यही निर्गुण ब्रह्म को सगुण दिखाने का कारण है | यही कभी अविद्या बनकर मोह में बाँधती है, और यही विद्या बनकर जीव की मुक्ति का कारण भी बनती है |
सूक्ष्म शक्ति – ब्राह्मी शक्ति – जो कि जगत् की सृष्टि कराती है, वैष्णवी शक्ति – जो कि जगत् की स्थिति का कारण है, और शैवी शक्ति – जो कि कारण है जगत् के लय का | ये तीनों ही शक्तियाँ सूक्ष्म शक्तियाँ कही जाती हैं | स्थावर सृष्टि, जंगम सृष्टि, ब्रह्माण्ड या पिण्ड कोई भी सृष्टि हो – सबको सृष्टि स्थिति और लय के क्रम से यही तीनों ब्रह्म शक्तियाँ अस्तित्व में रखती हैं | प्रत्येक ब्रह्माण्ड के नायक ब्रह्मा विष्णु और महेश इन्हीं तीनों शक्तियों की सहायता से अपना अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करते हैं |
स्थूल शक्ति – चौथी ब्रह्म शक्ति है स्थूल शक्ति | स्थूल जगत् का धारण, उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन आदि समस्त कार्य इसी स्थूल शक्ति के द्वारा ही सम्भव हैं |
ब्रह्म शक्ति के उपरोक्त चारों भेदों के आधार पर शक्ति उपासना का विस्तार और महत्व स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है | समस्त जगत् व्यापार का कारण ब्रह्म शक्ति ही है | वही सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है | वही जीव के बन्ध का कारण है | वही ब्रह्म साक्षात्कार और जीव की मुक्ति का माध्यम है | ब्रह्मशक्ति के विलासरूप इस ब्रह्माण्ड-पिण्डात्मक सृष्टि में भू-भुवः-स्वः आदि सात ऊर्ध्व लोक हैं और अतल-वितल-पाताल आदि सात अधः लोक हैं | ऊर्ध्व लोकों में देवताओं का वास होता है और अधः लोकों में असुरों का | सुर और असुर दोनों ही देवपिण्डधारी हैं | भेद केवल इतना ही है कि देवताओं में आत्मोन्मुख वृत्ति की प्रधानता होती है और असुरों में इन्द्रियोन्मुख वृत्ति की | इस प्रकार वास्तव में सूक्ष्म देवलोक में प्रायः होता रहने वाला देवासुर संग्राम आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का ही संग्राम है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता के ही कारण देवता कभी भी असुरों का राज्य छीनने की इच्छा नहीं रखते, वरन् अपने ही अधिकार क्षेत्र में तृप्त रहते हैं | जबकि असुर निरन्तर देवराज्य छीनने के लिये तत्पर रहते हैं | क्योंकि उनकी इन्द्रियोन्मुख वृत्ति उन्हें विषयलोलुप बनाती है | जब जब देवासुर संग्राम में असुरों की विजय होने लगती है तब तब ब्रह्मशक्ति महामाय की कृपा से ही असुरों का प्रभव होकर पुनः शान्ति स्थापना होती है | मनुष्य पिण्ड में भी जो पाप पुण्य रूप कुमति और सुमति का युद्ध चलता है वास्तव में वह भी इसी देवासुर संग्राम का ही एक रूप है | मानवपिण्ड देवताओं और असुरों दोनों के ही लिये एक दुर्ग के सामान है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर देवता इस मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करना चाहते हैं, तो इन्द्रियोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर असुर मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करने को उत्सुक होते हैं | जब जब मनुष्य इन्द्रियोन्मुख होकर पाप के गर्त में फँसता जाता है तब तब उस महाशक्ति की कृपा से दैवबल से ही वह आत्मोन्मुखी बनकर उस दलदल से बाहर निकल सकता है |
यह मृत्युलोक सात ऊर्ध्व लोकों में से भूलोक का एक चतुर्थ अंश माना जाता है | इसमें समस्त जीव माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं | इसी कारण इसे मृत्यु लोक कहा जाता है | अन्य किसी भी लोक में माता के गर्भ से जन्म नहीं होता | मृत्यु लोक के ही जीव मृत्यु के पश्चात् अपने अपने कर्मों के आधार पर सूक्ष्म शरीर से अन्य लोकों में दैवी सहायता से पहुँच जाते हैं | मनुष्य लोक के अतिरिक्त जितने भी लोक हैं वे सब देवलोक ही हैं | उनमें दैवपिण्डधारी देवताओं का ही वास होता है | सहजपिण्डधारी (उद्भिज्जादि योनियाँ) तथा मानवपिण्डधारी जीव उन दैवपिण्डधारी जीवों को देख भी नहीं सकते | ये समस्त देवलोक हमारे पार्थिव शरीर से अतीत हैं और सूक्ष्म हैं | देवासुर संग्राम में जब असुरों की विजय होने लगती है तब ब्रह्मशक्ति की कृपा से ही देवराज्य में शान्ति स्थापित होती है |
ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है | जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है | इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है | इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं | जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं | देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं | पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय | वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है | ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है | त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं | अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है | यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है |
दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है | इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है | यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है | पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि | इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है | दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है | मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है | तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं | ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं | दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है | जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है |
राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए | क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया | और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया :
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ||
प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं | भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है | इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है | इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है | इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु | ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है | यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है | जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है | जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस | नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है | यही नाद मधु है | समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है | जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है | यही नादरस है कैटभ | क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है | मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है | यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप | यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं | क्योंकि तम में क्रिया नही होती | अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई | क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है |
दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है | महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा : “ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नात्तः, निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च |” और वह तेज था कैसा “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् |” तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं | यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप | यों पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है | जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह जीव के कल्याणार्थ ही होता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है | युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है | यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक श्रृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है | सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था | लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही | अतः महिषासुर को भी उसके तप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था | इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो | शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है | युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं | इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है | इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है | महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया | इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं | इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है | पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है | तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी | तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया |
तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ | वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से
प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है | इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है | सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है | कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं | शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं | राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है | इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं | राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है | यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है | देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है | अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ | उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है | तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है | निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना इसी भाव का प्रकाशक है | निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है | और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है | यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है | वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है | इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है | इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती हैं | इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है |
सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ | तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ | वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है :
जैसा कि पहले ही बताया गया है कि शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है | सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है | किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है | जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना | इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है | कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है | यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है | इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है | लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है | इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है | एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है | यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है |
विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती | युद्ध तो प्रकृति का नियम है | लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था | और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था | और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था | वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है | और बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और विद्या आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है | भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है | शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को भारतीय जनमानस का कोटिशः नमन…
जैसा कि सब ही जानते हैं, आज से माँ भगवती के नौ रूपों की उपासना का पर्व नवरात्र आरम्भ हो चुके हैं | आज दूसरा नवरात्र है – देवी के ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना आज की जाती है | नौ दिन चलने वाले इस पर्व में लगभग प्रत्येक घर में फलाहार ही ग्रहण किया जाएगा | हम पिछले तीन दिनों से अपने WOW India के सदस्यों द्वारा भेजी हुई भारतीय परम्परा के अनुसार बनाए जाने वाले फलाहारी पकवानों की रेसिपीज़ आपके साथ साँझा कर रहे हैं | इसी क्रम में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं दो रेसिपीज़… पहली रेसिपी है लड्डुओं की और दूसरी एक ख़ास तरह की रबड़ी की… और अन्त में चलते चलते कुछ अपनी पसन्द का भी लिखा है… डॉ पूर्णिमा शर्मा
पहली रेसिपी है सफ़ेद तिल, बादाम और पेठे से बने लड्डू… जो हमें सिखा रही हैं रेखा अस्थाना…
सामग्री…
बादाम…150 ग्रा०
तिल… 200 ग्रा० सफेद
पेठा मीठा तैयार… 200 ग्रा०
विधि…
बादाम को आधे छोटे चम्मच घी डालकर सेंक ले |
फिर कढा़ई को पोंछकर उसमें तिल भून लें | तिल तड़कने लगें तो उतार लें और ठण्डा होने दें |
पेठा कद्दूकस कर लें |
अब तिल, बादाम और पेठा सब मिलाकर लड्डू बाँध लें |
तो सबसे पहले माँ भगवती को भोग लगाकर अपने घर के लड्डू गोपाल को खिलाएँ… बच्चों को बार बार खिलाकर ही टेस्ट डेवेलप होता है अन्यथा इन सब चीज़ों को कोई पसन्द नहीं करता… खासकर आजकल के बच्चे… लेकिन पौष्टिकता से भरपूर ये लड्डू होते हैं और व्रत में इन्हें खाने से शरीर में ऊर्जा बनी रहती है… तो एक बार बनाकर ज़रूर देखें…
रेखा अस्थाना
और अब दूसरी रेसिपी… रबड़ी तो हम सभी बड़े चाव से खाते हैं… हम तो जिस नगर से आते हैं – नजीबाबाद से – क्या ग़ज़ब होती थी वहाँ की रबड़ी… अच्छी तरह से कढाए
हुए दूध की बनती थी वो रबड़ी और मुलायम लेकिन मोटे लच्छे भी होते थे हलके मीठे की उस रबड़ी में… अभी भी याद करते हैं तो मुँह में पानी भर आता है… लेकिन आज एक अलग ही तरह की रबड़ी हमें बनाना सिखा रही हैं अर्चना गर्ग… जी हाँ, के मौसम में आम की रबड़ी… आइये सीखते हैं…
आम की रबड़ी
सामग्री…
1kg फुल क्रीम दूध
½kg tight आम जिसका लच्छा बन सके
1/4 चम्मच इलायची पाउडर
1/2 कप कंडेंस्ड मिल्क या चीनी
50 ग्राम बादाम और काजू सजाने के लिए
बनाने की विधि…
दूध को एक पैन में गर्म करने के लिए रख दें | जब वह उबलने लगे और 1/4 रह जाए तो गैस बन्द कर दें | अगर आप कंडेंस्ड मिल्क मिला रही हैं तो चीनी ना मिलाएं | साथ ही आम को कद्दूकस करके लच्छा बना लें | जब दूध बिल्कुल ठंडा हो जाए तो उसमें इलायची पाउडर और लच्छा मिला दें | लीजिए आम की रबड़ी तैयार है | इतनी सरल है बनाने में और खाने में बहुत स्वादिष्ट लगती है | नवरात्र के लिए स्पेशल मिठाई है | आम का सीजन भी आ गया है… तो आप भी खाएं औरों को भी खिलाएं…
_____________अर्चना गर्ग
कच्चे आलू का चीला
तो ये तो थीं दो बड़ी ही स्वादिष्ट मिठाइयाँ व्रत में खाने के लिए | अब क्यों न कुछ नमकीन भी हो जाए ? भई हमें कच्चे आलू के चीले बहुत पसन्द हैं | आपमें से बहुत से घरों में ये बनाए भी जाते होंगे | हर किसी की अपनी अपनी विधि होती है बनाने की… तो हम जिस तरह से बनाते हैं उसकी विधि आपको बता रहे हैं…
इसके लिए एक कच्चा आलू लीजिये | इसे छीलकर कद्दूकस में कस कर लच्छा बना लीजिये | लच्छा न अधिक मोटा हो न बारीक | मीडियम साइज़ में हो | आलू के लच्छे का सारा पानी निचोड़ लीजिये और इस लच्छे में अपने स्वाद के अनुसार नमक, बारीक कटी हुई हरी मिर्च, बारीक कटा हुआ अदरख और थोड़ा सा बारीक कटा धनिया मिला लीजिये | अब एक नॉन स्टिक पेन गर्म कीजिए | गर्म होने पर इस पर ब्रश की सहायता से हल्की सी चिकनाई चुपड़ दीजिये और आलू के लच्छे का जो घोल आपने बनाकर रखा है उसे इस पर चीले की तरह से फैला दीजिये | एक तरफ से सिक जाए तो पलट कर दूसरी ओर से ब्राउन होने तक सेक लीजिये | पलटना आराम से है ताकि टूट न जाए | लीजिये आपका गरमागरम करारा करारा आलू का चटपटा चीला तैयार है | इसे आँवले की चटनी के साथ सर्व कीजिए और ख़ुद भी खाइए | आँवले की चटनी की रेसिपी कल रखा जी ने बताई थी…