By Dr. Purnima Sharma, Secretary General WOW India
अभी श्राद्ध पर्व चल रहे हैं, और 3 अक्टूबर से भगवती की उपासना के पर्व नवरात्र आरम्भ हो जाएँगे जब डाण्डिया और गरबा की धूम रहेगी | इसी को ध्यान में रखते हुए 21 सितम्बर को WOW India द्वारा IPEX भवन, पटपड़गंज में डाण्डिया का एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया | कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे कथक के लखनऊ घराने के गुरु श्री सतीश शुक्ला जी, जो पद्मभूषण पण्डित बिरजू महाराज जी के भाँजे हैं और उनकी परम्परा यानी कालिका–बिन्दादीन घराने की नृत्य परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य सपरिवार कर रहे हैं | श्री सतीश शुक्ला के हम हृदय से आभारी हैं कि उन्होंने अपने व्यस्त समय में से समय निकाल कर न केवल सपरिवार कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई बल्कि अपनी दो शिष्याओं की नृत्य प्रस्तुति भी कराई |कार्यक्रम के आरम्भ में मुख्य अतिथि का सम्मान किया गया तथा मुख्य अतिथि और WOW India की Chairperson डा शारदा जैन ने दर्शकों को सम्बोधित किया | उसके बाद विधिवत कार्यक्रम का आरम्भ हुआ |
कार्यक्रम का आरम्भ भी श्री शुक्ला जी की दो शिष्याओं सुश्री इशिका नेगी और काजल अग्रवाल द्वारा प्रस्तुत माँ वाणी के वन्दन के साथ हुआ | नृत्यांगनाओं के साथ तबले पर स्वयं उनके गुरु श्री शुक्ला जी ने संगत की – जो किसी भी कलाकार के लिए गर्व का विषय होता है कि गुरु स्वयं संगत करे | साथ ही वॉयलिन पर साथ दिया जनाब अफ़ज़ाल ज़ुहूर अहमद ने – जो ख़ुद वॉयलिन के दिल्ली घराने के उस्ताद ज़ुहूर अहमद ख़ान साहब के सुपुत्र हैं | श्री करण कुमार ने पढ़न्त किया और शुक्ला जी की धर्मपत्नी श्रीमती रीना शुक्ला तथा उनकी सुपुत्री सुश्री रागेश्वरी शुक्ला ने गायन में साथ दिया | श्रीमती रीना शुक्ला जी स्वयं बनारस घराने के ठुमरी सम्राट पण्डित महादेव प्रसाद जी की सुपुत्री हैं | सरस्वती वन्दना ने वास्तव में दर्शकों को एक प्रकार से सम्मोहित सा कर दिया था |
इसके बाद प्रस्तुति थी सदा की भाँति WOW India की Governing Body के सदस्यों उल्लास और उत्साहपूर्ण गरबा/डाण्डिया की, जिसमें भाग लिया डा शारदा जैन, श्रीमती बानू बंसल, श्रीमती लीना जैन, डा रूबी बंसल, डा दीपिका कोहली, डा रश्मि अग्रवाल, डा प्रिया आर्या, डा इंदु त्यागी, श्रीमती सरिता रस्तोगी और सुश्री अर्चना ने | अत्यन्त भव्य नृत्य को Choreograph किया था सुश्री अर्चना ने |
इसके बाद समय था WOW India की कुछ Branches की Performances का… IPEX ब्रांच की ओर से श्रीमती रचना सरीन और साथियों ने, इन्द्रप्रस्थ ब्रांच की ओर से श्रीमती पूजा भारद्वाज और उनकी सखियों ने तथा डॉक्टर्स की ब्रांच की ओर से डा आभा शर्मा और डा मंजु बारिक तथा उनकी सखियों ने बहुत सुन्दर डाण्डिया/गरबा नृत्य प्रस्तुत किए |
कार्यक्रम के अन्त में इस वर्ष की सबसे अधिक प्रभावशाली नृत्य प्रस्तुति थी – महिषासुरमर्दिनी – जिसका Concept और Choreography थी संस्था की Cultural Secretary और कार्यक्रम की Host श्रीमती लीना की, महिषासुर की भूमिका में स्वयं लीना जैन और महिषासुरमर्दिनी माँ भगवती की भूमिका में संस्था की Joint Secretary डा दीपिका कोहली ने अपने रूप और अभिनय से भूमिका को जीवन्त बना दिया |
श्री सतीश शुक्ला जी की शिष्याओं सुश्री इशिता नेगी और सुश्री काजल अग्रवाल तथा श्री करण कुमार को संस्था की ओर से स्मृति चिह्न तथा Participation Certificats देकर सम्मानित किया गया |
इस अवसर पर DGF की ओर से WOW India की Senior Vice President और एक कर्मठ सदस्य श्रीमती बानू बंसल जी को उनके Hard and Dedicated कार्य के लिए Life Time Achievement Award से सम्मानित किया गया… जिसके लिए संस्था को बानू जी पर गर्व है और उन्हें बधाई के साथ ही DGF को संस्था की ओर से हार्दिक धन्यवाद भी |
कार्यक्रम से पूर्ण स्वादिष्ट Lunch भी रखा गया था तथा कुछ Stalls भी लगाए गए थे | कार्यक्रम में संस्था के सदस्य बड़ी तादाद में उपस्थित थे और दो दिनों तक हमारे पास बहुत सारे सदस्यों के फ़ोन आते रहे कार्यक्रम की प्रशंसा के लिए… बानगी के लिए कुछ फ़ोटोग्राफ़्स यहाँ अपलोड कर रहे हैं…
हम बहुत शीघ्र कार्यक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग भी यू ट्यूब पर अपलोड करेंगे…
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को उदित होने वाले सूर्य की प्रत्येक किरण हर दिन आपके तथा आपके परिवारजनों के जीवन में सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य, उत्साह एवं सफलता की रजत धूप प्रसारित करे, और प्रत्येक निशा का चन्द्र प्रेम एवं शान्ति की धवल ज्योत्स्ना ज्योतित करे… WOW India की ओर से एक नवीन और सकारात्मक भारतीय नव सम्वत्सर, साम्वत्सरिक नवरात्र, गुड़ी पड़वा और उगडी की सभी को अनेकानेक हार्दिक शुभकामनाएँ… माँ भगवती अपने नौ रूपों में सभी की रक्षा करते हुए सभी का कल्याण करें… और सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें…
—–कात्यायनी
आ गया है मेरे प्यारे देश का नववर्ष
पूरी वसुधा में है अनोखा
यह भारतवर्ष हमारा
नववर्ष का आरम्भ ही यहाँ
खुशहाली से होता।
चहुं ओर छाई होती है प्रकृति की
अद्भुत छवि निराली।
मंद -सुगन्धित बयार बहे और
जन-जन में नवजीवन भरती।
क्यों न करें हम अपने नववर्ष का स्वागत जब
माँ दुर्गा देने आशीष सभी को स्वयं
इस धरती पर आती।
सुमनों से दिशा -दिशा रंगीन है सबके मन को मोहे
धरती से आकाश तलक बस प्यार ही प्यार उपजे
वृक्ष लद जाते मंजरियों से कोयल तान सुनाती
फसलों के सुनहरे पन को देख
कृषक बहुत हर्षाता।
तभी मनाते नववर्ष हम जब
हर ओर सुन्दरता छाए।
तरह-तरह के खग -विहग अपनी केली करते।
आओ इस नववर्ष पर कर लें कुछ प्रतिज्ञा
हर व्यक्ति रहे सदा ही खुश
मन में उसके प्रकृति प्रेम भर दें।
अपने आने वाली संतति को हम
एक प्रदूषण रहित पर्यावरण दें।
उर में सभी के बहुत है हर्ष
क्योंकि प्रारंभ हो रहा है अपना ‘नववर्ष’
—–रेखा अस्थाना, ग़ाज़ियाबाद
कष्ट रहित हो जीवन सबका
आया वसन्त नव वर्ष लिए,
मुद मंगल का नव गीत लिए |
सुख की पीली सरसों विहँसे,
खग कुल मस्ती में चहक उठे ||
नव पत्रित वृक्षों की डाली
फल पुष्पों से है लदी हुई |
और हरा घाघरा, पीत चुनरिया
से वसुधा है सजी हुई ||
नवल आस विश्वास नवल ले
कामदेव भी मुसकाता है |
सुख समृद्धि के मलयानिल से
हर घर आँगन महकाता है ||
चैत्र शुक्ल की नवल प्रतिपदा,
नवल भोर लेकर आई है |
नव सम्वत्सर, दिवस नवल है,
नवल रात्रि भी मुस्काई है ||
नवल वर्ष की स्वर्णिम किरणें
सबही का हैं मन हर्षाएँ |
नवल भोर का सूर्य नवोदित
सबको नूतन पथ दिखलाए ||
आज धरा पुलकित होती है,
और गगन भी मुस्काता है |
चिन्ताएँ हैं बड़ी, मगर कल
खुशियों का आने वाला है ||
निष्कंटक हों मार्ग सभी के,
और निरोगी सबके तन मन |
कर्म सिद्ध सबके ही हों, और
कष्टरहित हो सबका जीवन ||
—–कात्यायनी
चैत्र नववर्ष प्रतिपदा की अनेकानेक शुभकामनाएं और बधाई
पल पल पुलकित प्रतिपदा में,
चैत्र नववर्ष शुभ शुभ फल दे।
नित नवीन नव संकल्पों का ,
पुनित भाव भर नव बल दे।।
—–प्रमिला शरद व्यास, उदयपुर राजस्थान
हिंदू नव वर्ष और नवरात्रि
आओ करें स्वागत नव वर्ष का
जो लिए आया है नया सवेरा
मौसम में आ गई बसंत की बहार
घरती गगन मे गूंजता खुशी का मल्हार
आज नव वर्ष पर है गुड़ी पड़वा का त्योहार
रंगोली सजाओ पूरन पोली बनाओ
मेवा की गुंजिया खिलाओ मेरे यार।
चैत्र मास है और है मां दुर्गा का आगमन
वो करती ख्वाईशें पूरी, दिल से करो जो आचमन।
महकते रहो बसंत की तरह
चमकते रहो फागुन की तरह
बीते अतीत को भूल जाओ पतझड़ की तरह।
सजाओ द्वारे बंधनवार धर्म ध्वजा फहराओ
सभी को मिले सुख संपति ,स्वास्थ्य,संस्कार,
सपने हो सबके पूरे,समृद्ध खुशहाल हो घरपरिवार।
मिट जाए मन का अंधेरा,नववर्ष जैसा हो रोज़ सवेरा
हिंदू नव वर्ष की रोशनी करे सभी के घर में बसेरा।
दुपहरिया हो अभिलाषा भरी,
शाम लेके आए उम्मीदों की टोकरी
रात हो घर में सुकून से भरी।
यही शुभकामना है मधु की सभी के लिए
जलते रहे भारत में नववर्ष की दिव्य रोशनी के दीए।
—–मधु रुस्तगी, ग़ाज़ियाबाद
उठ रही सुगंध गुलाबों की
उठ रही सुगंध गुलाबों की
यह हृदय खो रहा मंद मंद
पंखुड़ी, स्नेह की लिपट रही
हुई आर्द्र, समेटे हुए मकरंद।
अश्वारोही बन कर के मां
आ रही आज संतान के घर
ऊषा की प्रथम लाली ने रंगा
नवरात्र पावनी, प्रथम प्रहर।
चंदन, अक्षत और धूप, दीप
पुष्पों के हार, सजा के रखो
शुक्ला के संग, अमावस है
आसन दैविक हों, बिछा के रखो।
तुम वंदनवार सजा के रखो
मैं यज्ञ में आहुति देता हूं
गूंजे उच्चारण मंत्रों का
निकले ध्वनि “मैं ही प्रणेता हूं”
पूजित हो राम की शक्ति आज
काशी की गंगा तरंगित हो
नवरात्र में मां के रूपों की
आभा,ममतामय लक्षित हो!
—–प्राणेन्द्रनाथ मिश्रा, कोलकाता
गुड़ी पड़वा
गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा आया है,
नया विक्रमी संवत नूतन, चैत शुक्ल ले आया है।
महाराष्ट्र में हर दरवाजे पर, गुड्डी का साया है,
डंडे पर हैं फूल लगे, ऊपर गुड्डी फहराया है।
नए नए कपड़े पहने हैं, खुद को बहुत सजाया है,
पर्व मनाने घर सफाई कर, दीप जलाने आया है।
बच्चे, बूढ़े और जवान, सारे ने मिल फरमाया है,
गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा आया है।
भारत का हर प्रांत मनाए, अलग नाम ले आया है,
चेटी चाँद, अट्टुवेला, और झूलेलाल भी पाया है।
सुनो उगादी, चैत्र मास की नवरात्रि भी लाया है,
पूरे भारत में शुभ लाने, का दिन पावन आया है।
सृष्टि की रचना का दिन है, यही बताने आया है,
गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा आया है।
पूरनपोली, मीठे चावल, और श्रीखंड बनाया है,
नए वस्त्र धारण करके, पकवान थाल भर लाया है।
मन प्रसन्न रखने को दिल में, ईश्वर यहाँ बसाया है,
ब्रह्मा, विष्णु की पूजा, करने का शुभ दिन आया है।
घर में रंगोली बनती है, घर को आज सजाया है,
गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा, गुड़ी पडवा आया है।
—–डॉ हिमांशु शेखर, पुणे
आज चैत्र नवरात्रों का समापन हुआ है | इस वर्ष भी गत वर्ष की ही भाँति कन्या पूजन नहीं कर सके – कोरोना के चलते सब कुछ बन्द ही रहा | आज सभी जानते हैं कि ऐसी
स्थिति है कि बहुत से परिवारों में तो पूरा का पूरा परिवार ही कोरोना का कष्ट झेल रहा है | किन्तु इतना होने पर भी उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं रही – और यही है भारतीय जन मानस की सकारात्मकता | कोई बात नहीं, माँ भगवती की कृपा से अगले वर्ष सदा की ही भाँति नवरात्रों का आयोजन होगा |
पूरे नवरात्रों में भक्ति भाव से दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी की तीनों चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ का उनकी समस्त सेना के सहित वध की कथाओं का पाठ किया जाता है | इन तीनों चरित्रों को पढ़कर इहलोक में पल पल दिखाई देने वाले अनेकानेक द्वन्द्वों का स्मरण हो आता है | किन्तु देवी के ये तीनों ही चरित्र इस लोक की कल्पनाशीलता से बहुत ऊपर हैं | दुर्गा सप्तशती किसी लौकिक युद्ध का वर्णन नहीं, वरन् एक अत्यन्त दिव्य रहस्य को समेटे उपासना ग्रन्थ है |
गीता ग्रन्थों में जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है, उसी प्रकार दुर्गा सप्तशती ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है | यही कारण है कि लाखों मनुष्य नित्य श्रद्धा-भक्ति पूर्वक इसका पाठ और अनुष्ठान आदि करते हैं | इतना ही नहीं, संसार के अन्य देशों में भी शक्ति उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित है | यह शक्ति है क्या ? शक्तिमान का वह वैशिष्ट्य जो उसे सामान्य से पृथक् करके प्रकट करता है शक्ति कहलाता है | शक्तिमान और शक्ति वस्तुतः एक ही तत्व है | तथापि शक्तिमान की अपेक्षा शक्ति की ही प्रमुखता रहती है | उसी प्रकार जैसे कि एक गायक की गायन शक्ति का ही आदर, उपयोग और महत्व अधिक होता है | क्योंकि संसार गायक के सौन्दर्य आदि पर नहीं वरन् उसकी मधुर स्वर सृष्टि के विलास में मुग्ध होता है | इसी प्रकार जगन्नियन्ता को उसकी जगत्कर्त्री शक्ति से ही जाना जाता है | इसी कारण शक्ति उपासना का उपयोग और महत्व शास्त्रों में स्वीकार किया गया है |
उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है | क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है | द्वित्व समाप्त हो जाने पर तो जीव स्वयं ब्रह्म हो जाता – अहम् ब्रह्मास्मि की भावना आ जाने पर व्यक्ति समस्त प्रकार की उपासना आदि से ऊपर उठ जाता है | द्वैत भाव का आधार सगुण तत्व है | सगुण उपासना के पाँच भेद बताए गए हैं – चित् भाव, सत् भाव, तेज भाव, बुद्धि भाव और शक्ति भाव | इनमें चित् भाव की उपासना विष्णु उपासना है | सत् भावाश्रित उपासना शिव उपासना है | भगवत्तेज की आश्रयकारी उपासना सूर्य उपासना होती है | भगवद्भाव से युक्त बुद्धि की आश्रयकारी उपासना धीश उपासना होती है | तथा भगवत्शक्ति को आश्रय मानकर की गई उपासना शक्ति उपासना कहलाती है | यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है | इसमें ब्रह्म पद से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले पाँच तत्व हैं – चित्, सत्, तेज, बुद्धि और शक्ति | इनमें चित् सत्ता जगत् को दृश्यमान बनाती है | सत् सत्ता इस दृश्यमान जगत् के अस्तित्व का अनुभव कराती है | तेज सत्ता के द्वारा जगत् का ब्रह्म की ओर आकर्षण होता है | बुद्धि सत्ता ज्ञान प्रदान करके इस भेद को बताती है कि ब्रह्म सत् है और जगत् असत् अथवा मिथ्या है | और शक्ति सत्ता जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती हुई जीव को बद्ध भी कराती है और मुक्त भी | उपासक इन्हीं पाँचों का अवलम्बन लेकर ब्रह्मसान्निध्य प्राप्त करता हुआ अन्त में ब्रह्मरूप को प्राप्त हो जाता है |
शक्ति उपासना वस्तुतः यह ज्ञान कराती है कि यह समस्त दृश्य प्रपंच ब्रहम शक्ति का ही विलास है | यही ब्रह्म शक्ति सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती है | एक ओर जहाँ यही ब्रह्मशक्ति अविद्या बनकर जीव को बन्धन में बाँधती है, वहीं दूसरी ओर यही विद्या बनकर जीव को ब्रह्म साक्षात्कार करा कर उस बन्धन से मुक्त भी कराती है | जिस प्रकार गायक और उसकी गायन शक्ति एक ही तत्व है, उसी प्रकार ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति में “अहं ममेति” जैसा भेद नहीं है | वेद और शास्त्रों में इस ब्रह्म शक्ति के चार प्रकार बताए गए हैं | जो निम्नवत् हैं :
तुरीया शक्ति – यह प्रकार ब्रह्म में सदा लीन रहने वाली शक्ति का है | यही ब्रह्मशक्ति स्व-स्वरूप प्रकाशिनी होती है | वास्तव में सगुण और निर्गुण का जो भेद है वह केवल ब्रह्म शक्ति की महिमा के ही लिये है | जब तक महाशक्ति स्वरूप के अंक में छिपी रहती है तब तक सत् चित् और आनन्द का अद्वैत रूप से एक रूप में अनुभव होता है | वह तुरीया शक्ति जब स्व-स्वरूप में प्रकट होकर सत् और चित् को अलग अलग दिखाती हुई आनन्द विलास को उत्पन्न करती है तब वह पराशक्ति कहाती है | वही पराशक्ति जब स्वरूपज्ञान उत्पन्न कराकर जीव के अस्तित्व के साथ स्वयं भी स्व-स्वरूप में लय हो निःश्रेयस का उदय करती है तब उसी को पराविद्या कहते हैं |
कारण शक्ति – अपने नाम के अनुरूप ही यह शक्ति ब्रह्मा-विष्णु-महेश की जननी है | यही निर्गुण ब्रह्म को सगुण दिखाने का कारण है | यही कभी अविद्या बनकर मोह में बाँधती है, और यही विद्या बनकर जीव की मुक्ति का कारण भी बनती है |
सूक्ष्म शक्ति – ब्राह्मी शक्ति – जो कि जगत् की सृष्टि कराती है, वैष्णवी शक्ति – जो कि जगत् की स्थिति का कारण है, और शैवी शक्ति – जो कि कारण है जगत् के लय का | ये तीनों ही शक्तियाँ सूक्ष्म शक्तियाँ कही जाती हैं | स्थावर सृष्टि, जंगम सृष्टि, ब्रह्माण्ड या पिण्ड कोई भी सृष्टि हो – सबको सृष्टि स्थिति और लय के क्रम से यही तीनों ब्रह्म शक्तियाँ अस्तित्व में रखती हैं | प्रत्येक ब्रह्माण्ड के नायक ब्रह्मा विष्णु और महेश इन्हीं तीनों शक्तियों की सहायता से अपना अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करते हैं |
स्थूल शक्ति – चौथी ब्रह्म शक्ति है स्थूल शक्ति | स्थूल जगत् का धारण, उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन आदि समस्त कार्य इसी स्थूल शक्ति के द्वारा ही सम्भव हैं |
ब्रह्म शक्ति के उपरोक्त चारों भेदों के आधार पर शक्ति उपासना का विस्तार और महत्व स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है | समस्त जगत् व्यापार का कारण ब्रह्म शक्ति ही है | वही सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है | वही जीव के बन्ध का कारण है | वही ब्रह्म साक्षात्कार और जीव की मुक्ति का माध्यम है | ब्रह्मशक्ति के विलासरूप इस ब्रह्माण्ड-पिण्डात्मक सृष्टि में भू-भुवः-स्वः आदि सात ऊर्ध्व लोक हैं और अतल-वितल-पाताल आदि सात अधः लोक हैं | ऊर्ध्व लोकों में देवताओं का वास होता है और अधः लोकों में असुरों का | सुर और असुर दोनों ही देवपिण्डधारी हैं | भेद केवल इतना ही है कि देवताओं में आत्मोन्मुख वृत्ति की प्रधानता होती है और असुरों में इन्द्रियोन्मुख वृत्ति की | इस प्रकार वास्तव में सूक्ष्म देवलोक में प्रायः होता रहने वाला देवासुर संग्राम आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का ही संग्राम है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता के ही कारण देवता कभी भी असुरों का राज्य छीनने की इच्छा नहीं रखते, वरन् अपने ही अधिकार क्षेत्र में तृप्त रहते हैं | जबकि असुर निरन्तर देवराज्य छीनने के लिये तत्पर रहते हैं | क्योंकि उनकी इन्द्रियोन्मुख वृत्ति उन्हें विषयलोलुप बनाती है | जब जब देवासुर संग्राम में असुरों की विजय होने लगती है तब तब ब्रह्मशक्ति महामाय की कृपा से ही असुरों का प्रभव होकर पुनः शान्ति स्थापना होती है | मनुष्य पिण्ड में भी जो पाप पुण्य रूप कुमति और सुमति का युद्ध चलता है वास्तव में वह भी इसी देवासुर संग्राम का ही एक रूप है | मानवपिण्ड देवताओं और असुरों दोनों के ही लिये एक दुर्ग के सामान है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर देवता इस मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करना चाहते हैं, तो इन्द्रियोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर असुर मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करने को उत्सुक होते हैं | जब जब मनुष्य इन्द्रियोन्मुख होकर पाप के गर्त में फँसता जाता है तब तब उस महाशक्ति की कृपा से दैवबल से ही वह आत्मोन्मुखी बनकर उस दलदल से बाहर निकल सकता है |
यह मृत्युलोक सात ऊर्ध्व लोकों में से भूलोक का एक चतुर्थ अंश माना जाता है | इसमें समस्त जीव माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं | इसी कारण इसे मृत्यु लोक कहा जाता है | अन्य किसी भी लोक में माता के गर्भ से जन्म नहीं होता | मृत्यु लोक के ही जीव मृत्यु के पश्चात् अपने अपने कर्मों के आधार पर सूक्ष्म शरीर से अन्य लोकों में दैवी सहायता से पहुँच जाते हैं | मनुष्य लोक के अतिरिक्त जितने भी लोक हैं वे सब देवलोक ही हैं | उनमें दैवपिण्डधारी देवताओं का ही वास होता है | सहजपिण्डधारी (उद्भिज्जादि योनियाँ) तथा मानवपिण्डधारी जीव उन दैवपिण्डधारी जीवों को देख भी नहीं सकते | ये समस्त देवलोक हमारे पार्थिव शरीर से अतीत हैं और सूक्ष्म हैं | देवासुर संग्राम में जब असुरों की विजय होने लगती है तब ब्रह्मशक्ति की कृपा से ही देवराज्य में शान्ति स्थापित होती है |
ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है | जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है | इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है | इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं | जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं | देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं | पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय | वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है | ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है | त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं | अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है | यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है |
दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है | इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है | यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है | पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि | इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है | दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है | मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है | तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं | ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं | दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है | जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है |
राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए | क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया | और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया :
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ||
प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं | भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है | इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है | इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है | इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु | ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है | यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है | जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है | जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस | नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है | यही नाद मधु है | समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है | जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है | यही नादरस है कैटभ | क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है | मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है | यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप | यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं | क्योंकि तम में क्रिया नही होती | अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई | क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है |
दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है | महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा : “ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नात्तः, निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च |” और वह तेज था कैसा “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् |” तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं | यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप | यों पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है | जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह जीव के कल्याणार्थ ही होता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है | युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है | यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक श्रृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है | सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था | लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही | अतः महिषासुर को भी उसके तप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था | इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो | शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है | युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं | इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है | इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है | महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया | इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं | इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है | पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है | तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी | तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया |
तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ | वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से
प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है | इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है | सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है | कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं | शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं | राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है | इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं | राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है | यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है | देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है | अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ | उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है | तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है | निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना इसी भाव का प्रकाशक है | निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है | और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है | यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है | वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है | इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है | इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती हैं | इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है |
सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ | तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ | वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है :
जैसा कि पहले ही बताया गया है कि शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है | सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है | किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है | जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना | इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है | कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है | यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है | इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है | लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है | इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है | एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है | यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है |
विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती | युद्ध तो प्रकृति का नियम है | लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था | और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था | और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था | वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है | और बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और विद्या आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है | भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है | शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को भारतीय जनमानस का कोटिशः नमन…
आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी भगवती के महागौरी रूप की उपासना का दिन और कल नवमी को सिद्धिदात्री देवी की उपासना की जाएगी | कुछ परिवारों में अष्टमी को कन्या पूजन के साथ नवरात्र सम्पन्न हो जाते हैं और कुछ परिवारों में नवमी को समापन किया जाता है | ये भी सभी जानते हैं कि नवरात्रों में लगभग प्रत्येक घर में फलाहार ही ग्रहण किया जाता है | हम पिछले कुछ दिनों से अपने WOW India के सदस्यों द्वारा भेजी हुई भारतीय परम्परा के अनुसार बनाए जाने वाले फलाहारी पकवानों की रेसिपीज़ आपके साथ साँझा कर रहे हैं | तो जिन लोगों का आज भी व्रत है उनके लिए प्रस्तुत है एक बिल्कुल ही नई रेसिपी… पुष्पगुच्छ यानी फूलों के बुके तो प्रायः प्रत्येक कार्यक्रम में अतिथियों को भेंट किये जाते हैं… शादी ब्याह या ऐसे ही किसी विशेष उत्सव में जाते हैं तो वहाँ भी इसी प्रकार फूलों के बुके लेकर जाने का प्रचलन है… चॉकलेट्स के बुके भी देखने को मिल जाते हैं… फलों के बहुत ख़ूबसूरती से सजाए गए टोकरे भी सभी लोग प्रयोग में लाते हैं… लेकिन फूलों के बुके सूख जाने पर फेंकने पड़ते हैं… क्या ही अच्छा हो यदि हम ताज़े फलों के बुके बनाकर भेंट करें… फल तो खाने के काम में आ ही जाएँगे… स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होने फलों के बुके… और नवरात्रों में तो विशेष रूप से फलाहार के काम आएँगे… लेकिन कैसे…? तो आइये सीखते हैं अर्चन गर्ग जी से फलों के बुके बनाने की विधि… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
सामग्री…
आधा अनानास नीचे का हिस्सा ऊपर का हिस्सा पत्ते वाला काट के आधा अलग रख लें
आधा खरबूजा
आधा तरबूज
200 ग्राम काले अंगूर
200 ग्राम हरे अंगूर
200 gram strawberry
दो संतरे की फाक
बनाने की विधि…
सारे फलों के छिलके उतार दीजिए | अंगूर और स्ट्रोबेरी का छिलका नहीं उतरेगा उसको ऐसे ही छोड़ दीजिए | कटे हुए फलों को आप किसी भी आकार में काट सकती हैं – जैसा कि मैंने ऊपर आपको फोटो में दिखाया है | स्ट्रोबेरी अगर पहले आपने लाल लगाया है तो फिर उसके ऊपर सफेद लगाएं उसके ऊपर काला लगाएं इस तरह रंग बिरंगे फ्रूट्स के साथ इसको सजाएं | अब लकड़ी की डंडी में यह सब डाल के जो हमने अनानास का ऊपर का हिस्सा काटा था उसमें यह सब लकड़ी की डांडिया लगा दीजिये | इनको Skewers भी बोलते हैं | सारे फ्रूट्स डंडियों में लगाकर अनानास का जो ऊपर का हिस्सा है उसमें सब लगा दीजिए | जो कटे फल बच जाएँ तो उन्हें बचे हुए तरबूज को खाली करके उसका एक टोकरी सी बनाकर उसमें भर के टेबल पर रख दें | वह इसी तरह खा लिए जाएंगे | तो देखा आपने कितना सुंदर बुके तैयार हो गया हमारा आप खुद भी बनाइए और देखिए कैसा लगता है…
साम्वत्सरिक नवरात्र चल रहे हैं और समूचा हिन्दू समाज माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना में बड़े उत्साह, श्रद्धा और आस्था के साथ लीन है | इस अवसर पर कुछ मित्रों के आग्रह पर माँ दुर्गा की उपासना में जिन वस्तुओं का मुख्य रूप से प्रयोग होता है उनके विषय में लिखना आरम्भ किया है | पारम्परिक रूप से जो सामग्रियाँ माँ भगवती की उपासना में प्रमुखता से प्रयुक्त होती हैं उनका अपना प्रतीकात्मक महत्त्व होता है तथा प्रत्येक सामग्री में कोई विशिष्ट सन्देश अथवा उद्देश्य निहित होता है…
अभी तक हमने कलश तथा कलश स्थापना और वन्दनवार तथा यज्ञादि में प्रयुक्त किये जाने वाले आम्रपत्र और आम्र वृक्ष की लकड़ी, दीपक, पुष्पों तथा नारियल इत्यादि के विषय में लिख चुके हैं… अब आगे…
रक्षा सूत्र – पूजा को निर्विघ्न सम्पन्न करने के उद्देश्य से रक्षा सूत्र अपने नाम के अनुरूप ही रक्षा के निमित्त बाँधा जाता है | रक्षा सूत्र बांधते समय एक मन्त्र का उच्चारण किया जाता है:
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: |
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ||
अर्थात जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था वही आज में तुम्हारी कलाई पर बाँध रहा हूँ | ये रक्षासूत्र तुम्हारी रक्षा करेगा | हे रक्षासूत्र तुम सदा अचल रहते हुए रक्षा करो | रक्षा सूत्र अर्थात कलावा या मौली तीन कच्चे धागे से बनी होती है | कलाई पर तीन रेखाएं होती हैं, जिन्हें मणिबन्ध कहा जाता है | ये तीन रेखाएँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतीक मानी जाती हैं तथा इन्हीं तीनों रेखाओं में दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी का वास भी माना जाता है | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब अभिमन्त्रित करके रक्षा सूत्र बाँधा जाता है तो वह त्रिदेव और त्रिदेवियों को समर्पित हो जाता है और इस प्रकार तीनों देव और तीनों देवियाँ व्यक्ति की रक्षा करती हैं |
मुखवास अर्थात पान सुपारी – किसी भी पूजा अर्चना में पान का भी महत्त्व होता है | भगवती अथवा किसी भी देवी देवता को पान समर्पित करते समय मन्त्र बोला जाता है:
दिव्य पूगीफल अर्थात सुपारी नागवल्लीदल अर्थात पान के पत्ते और एलादिचूर्ण अर्थात इलायची तथा कर्पूर आदि के सुगन्धित चूर्ण के साथ आपको समर्पित करते हैं, इस ताम्बूल अर्थात पान के बीड़े को ग्रहण करें |
आपने देखा होगा कि पान सबसे अन्त में समर्पित किया जाता है | इसका एक प्रमुख कारण यह है कि पान एक प्राकृतिक मुखवास है – मुख को सुगन्धि प्रदान करता है | सारा भोजन सम्पन्न हो जाए, अतिथि को जो भी दान दक्षिणा दे दी जाए, उसके बाद अन्त में मुखवास के लिए पान देने की प्रथा अनादि काल से भारतीय संस्कृति का अंग रही है | इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पान को ताज़गी और समृद्धि का स्रोत माना जाता है | भोजन के बाद यदि पान खा लिया जाए तो भोजन सरलता से पच जाता है |
कथा उपलब्ध होती है कि कात्यायन ऋषि के कोई सन्तान नहीं थी | उन्होंने भगवती की उपासना की और देवी से उन्हें कन्या रूप में प्राप्त करने का वरदान माँग लिया | महिषासुर के बढ़ते अत्याचारों के कारण देवों का क्रोध भी बढ़ रहा था | उनके क्रोध से एक तेजपुंज प्रकट हुआ जो कन्या रूप में था | उसी ने ऋषि कात्यायन के घर में जन्म लिया और कात्यायनी कहलाईं | आश्विन शुक्ल नवमी और दशमी को उन्होंने महिषासुर से युद्ध किया और अन्त में उसका का वध किया | मान्यता है की महिषासुर वध से पूर्व उन्होंने पान ही खाया था जिसके कारण उनमें और अधिक ऊर्जा का संचार हो गया था | ऐसी भी मान्यता है कि पान के पत्ते में समस्त देवी देवताओं का वास होता है |
तिलक – पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकं मे प्रसीदतु |
कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम् |
ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ||
तिलक के लिए चन्दन, हल्दी और कुमकुम आदि का प्रयोग किया जाता है | एक तो इन वस्तुओं के औषधीय गुण और दूसरे इनकी सुगन्धि के कारण इन पदार्थों का उपयोग किया जाता है | चन्दन लगाने से शीतलता प्राप्त होती है साथ ही बुद्धिमत्ता में भी वृद्धि होती है | हल्दी भी अपने औषधीय गुणों के कारण प्रसिद्ध है | और पारम्परिक रूप से कुमकुम भी हल्दी से ही बनाया जाता है |
तिलक लगाने के कुछ नियम भी होते हैं | जैसे:
पितृगणों को तर्जनी अंगुलि से तिलक लगाया जाता है | अर्थात पिण्डदान करते समय तिलक लगाने के लिए तर्जनी अंगुलि का प्रयोग किया जाता है | तर्जनी अर्थात तर्जन करना – किसी बात के लिए रोकना – इसीलिए तर्जनी अंगुलि का प्रयोग किसी अतिथि को, स्वयं को अथवा पूजा आदि में तिलक लगाने के लिए नहीं किया जाता |
यदि स्वयं को तिलक लगाना हो तो मध्यमा अँगुली का प्रयोग किया जाता है | इसका एक कारण यह भी है की ये अंगुलि लम्बी होने के कारण सरलता से अपने मस्तक तक पहुँच जाती है |
पूजा कार्य में किसी को तिलक लगाना हो तो अनामिका का प्रयोग किया जाता है |
किसी अतिथि को तिलक लगाना हो तो अंगुष्ठ अर्थात अँगूठे का प्रयोग किया जाता है |
साथ ही, तिलक मस्तक पर जिस स्थान पर लगाया जाता है वह आज्ञाचक्र कहलाता है | तिलक धारण करने का अभिप्राय है कि हम अपने आज्ञाचक्र को भी जाग्रत कर रहे हैं |
वास्तव में देखा जाए तो जिस पूजा विधि और सामग्री की बात हम करते हैं वह हिन्दू समाज का सनातन काल से चला आ रहा चिर परिचित अतिथि सत्कार ही है | कोई “विशिष्ट” अतिथि हमारे घर आता है तो सबसे पहले तोरण बनाते हैं पञ्चपल्लवों से | अतिथि के आने पर द्वार पर ही हम उसके हस्त पाद प्रक्षालन कराते हैं | कुछ भीतर आने पर उसका आरता भी उतारते हैं | उसके पश्चात उसे बैठने के लिए आसन प्रदान करते हैं | अत्यन्त ही विशिष्ट व्यक्ति हुआ तो उसके स्वागत में वाद्ययन्त्र भी बजाए जाते हैं | बैठने के बाद पुनः उसके हस्त प्रक्षालन के लिए जल और हाथ पोंछने के लिए वस्त्र समर्पित करते हैं | कुछ पुष्प आदि देकर तथा इत्र आदि छिड़ककर उसका सम्मान करते हैं | मस्तक पर तिलक लगाते हैं | फिर कुछ पेय पदार्थ उसके समक्ष प्रस्तुत करते हैं | उसके बाद भोजन देते हैं | साथ में जल भी देते हैं | भोजन के पश्चात मिष्टान्न भेंट किया जाता है | उसके बाद पुनः हस्त प्रक्षालन के लिए जल दिया जाता है | अन्त में सुगन्धित पान और कुछ दक्षिणा तथा उपहार आदि देकर पुनः आगमन की प्रार्थना के साथ विदा किया जाता है |
जब हम किसी भी देवी देवता की स्थापना और आह्वाहन करते हैं तो वह वास्तव में अत्यन्त विशिष्ट होता है हमारे लिए | और माँ भगवती के अतिरिक्त विशिष्ट अतिथि भला
और कौन हो सकता है ? तो माँ भगवती की उपासना में भी यही सब होता है | माता के भक्त उन्हें अपने निवास पर आमन्त्रित करते हैं और जिस दिन उनका आगमन होता
है उस दिन घर द्वार को अच्छे से सजाते हैं | वन्दनवार द्वार पर लटकाते हैं | मैया का आह्वाहन करते हैं, उनके आगमन पर शंखध्वनि करते हैं | उनके हस्त पाद प्रक्षालित करके आरती करके उन्हें घर के भीतर लेकर आते हैं | पुष्प भेंट करते हैं | आसन प्रदान करते हैं | मस्तक पर तिलक लगाते हैं श्रृंगार की वस्तुएँ तथा नारिकेल फल भेंट करते हैं | रक्षा सूत्र समर्पित करते हैं | दीप प्रज्वलित करते हैं | भोजन और नैवेद्य समर्पित करते हैं | भोजनोपरान्त पुनः हस्त प्रक्षालन करके ताम्बूल तथा अन्य सुगन्धि द्रव्य भेंट करते हैं | अन्त में दक्षिणा समर्पित करके पुष्प तथा उपहार आदि भेंट करके भूल चूक के लिए क्षमा याचना करते हैं | और फिर पुनः आगमन की प्रार्थना अर्थात आरती करके उन्हें विदा करते हैं |
इस प्रकार यदि धार्मिक पक्ष की बात नहीं भी करें, तो चाहे माँ भगवती की पूजा अर्चना हो अथवा किसी भी अन्य देवी देवता की उपासना हो – ये समस्त प्रक्रियाएँ हमें अपनी जड़ों से – अपने रीति रिवाज़ों से – अपने संस्कारों से जोड़े रखती हैं तथा हमें पग पग पर यही सीख देती हैं कि व्यक्ति जीवन में कितना भी ऊँचा क्यों न उठ जाए… परिवार के बड़े व्यक्तियों के समक्ष – अतिथियों के समक्ष – उसे विनम्र तथा श्रद्धावान ही बने रहना चाहिए…
अन्त में पुनः यही कहना चाहेंगे कि माँ केवल भावनाओं से प्रसन्न हो जाती है… जहाँ भी जिस भी स्थिति में व्यक्ति है, बस हृदय से माँ का स्मरण कर ले तो माँ अवश्य उसकी मनोकामना पूर्ण करती है…
अस्तु, माँ भगवती अपने सभी नौ रूपों में जगत का कल्याण करें यही कामना है…
देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद, प्रसीद मातार्जगतोSखिलस्य |
प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य ||
जैसा कि सब ही जानते हैं चैत्र नवरात्र चल रहे हैं और हर घर में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जा रही है | आज चैत्र शुक्ल षष्ठी – यानी छठा नवरात्र है – देवी के कात्यायनी रूप की उपासना का दिन | इनकी उपासना से चारों पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – की सिद्धि होती है | यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक में सर्वप्रथम इनका उल्लेख उपलब्ध होता है | देवासुर संग्राम में देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये – महिषासुर जैसे दानवों का संहार करने के लिए – देवी कत ऋषि के पुत्र महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुईं और महर्षि ने उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया | इसीलिये “कात्यायनी” नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई | इस प्रकार देवी का यह रूप पुत्री रूप है | यह रूप निश्छल पवित्र प्रेम का प्रतीक है | किन्तु साथ ही यदि कहीं कुछ भी अनुचित होता दिखाई देगा तो ये कभी भी भयंकर क्रोध में भी आ सकती हैं | स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि वे परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से उत्पन्न हुई थीं और बाद में पार्वती द्वारा प्रदत्त सिंह पर आरूढ़ होकर महिषासुर का वध किया था | पाणिनि पर पतंजलि के भाष्य में इन्हें शक्ति का आदि रूप बताया गया है | देवी भागवत और मार्कण्डेय पुराणों में इनका माहात्म्य विस्तार से उपलब्ध होता है | कात्यायनी देवी के रूप में माँ भगवती सभी की रक्षा करें और सभी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करें…
नौ दिन चलने वाले नवरात्रों में लगभग प्रत्येक घर में फलाहार ही ग्रहण किया जाएगा | हम पिछले कुछ दिनों से अपने WOW India के सदस्यों द्वारा भेजी हुई भारतीय परम्परा के अनुसार बनाए जाने वाले फलाहारी पकवानों की रेसिपीज़ आपके साथ साँझा कर रहे हैं | इसी क्रम में आज रेखा अस्थाना जी की भेजी हुई दो रेसिपीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं – पहली रेसिपी है सामख के चावल का पुलाव, और दूसरी है शकरकन्दी का पाग… अब भई नमक का खाने के बाद कुछ मीठा भी तो चाहिए होता है न… तो आइये सीखते हैं कैसे बनाई जाती हैं ये दोनों चीज़ें… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
सावां या सामख के चावल का पुलाव
बचपन में दादी माँ कहा करती थी यह चावल प्रकृति की देन है, बिना बोये जोते इसको प्राप्त किया जा सकता है |
तो आज हम आपको फलाहारी पुलाव बनाना बता रहें हैं | एक बात का ध्यान रहे जब आप संध्या की आरती कर चुके व व्रत के पारायण का समय हो तभी इसे बनवाइएगा |
अन्यथा यह एक दूसरे से चिपक जाता हैं | वैसे भी व्रत के नियम के अनुसार पारायण के समय जितना खा पाए उतना ही लें, रख उठाकर न खाएँ |
सामग्री…
सावां के चावल एक कटोरी ।
आलू एक बड़ा
हरी मिर्च
एक चम्मच जीरा साबुत
एक चम्मच देसी घी
हरी धनिया
अदरख कद्दूकस किया हुआ एक चम्मच
सेंधा नमक स्वादानुसार
चावल को धो लें | आलू को छील कर बारीक काट लें | अब कुकर में एक चम्मच देसी घी डालकर जीरा तड़का लें | उसके बाद हरी मिर्च व अदरख डालें | फिर चावल व आलू डालें | सेंधा नमक डालकर चलाएँ | अन्दाज़ से पानी डालें | ढक्कन बन्द करके एक सीटी में उतार लें | फिर हरी धनिया डालें | अगर पसन्द हो तो देसी घी डालकर दही या चटनी के साथ आप खा सकती हैं | आप चाहें तो पपीते के रायते के साथ भी खा सकती हैं |
और अब कुछ मीठा हो जाए… तो बनाते हैं शकरकंदी पाग…
सामग्री…
शकरकंद 250ग्रा०
चीनी चार टी स्पून
अमचूर एक टी स्पून
सोंठ एक चम्मच
सेंधा नमक एक टी स्पून
सूखी साबुत लाल मिर्च दो
जीरा एक टी स्पून
थोड़ी किशमिश
बनाने की विधि…
शकरकंद को धोकर छील लें फिर गोल गोल काट लें – न बहुत पतले न मोटे |
एक पैन में एक चम्मच घी डालकर उसमें नमक, सोंठ, अमचूर, चीनी व किशमिश डालकर एक कप पानी डालें और शकरकन्दी डालकर चलाकर ढक दें | तब तक पकायें जब तक शकरकंद दबने न लगे | अधिक गलाए नहीं नहीं तो स्वाद बेकार हो जाता है |
साम्वत्सरिक नवरात्र चल रहे हैं और समूचा हिन्दू समाज माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना में बड़े उत्साह, श्रद्धा और आस्था के साथ लीन है | इस अवसर पर कुछ मित्रों के आग्रह पर माँ दुर्गा की उपासना में जिन वस्तुओं का मुख्य रूप से प्रयोग होता है उनके विषय में लिखना आरम्भ किया है | पारम्परिक रूप से जो सामग्रियाँ माँ भगवती की उपासना में प्रमुखता से प्रयुक्त होती हैं उनका अपना प्रतीकात्मक महत्त्व होता है तथा प्रत्येक सामग्री में कोई विशिष्ट सन्देश अथवा उद्देश्य निहित होता है…
अभी तक हमने कलश तथा कलश स्थापना और वन्दनवार तथा यज्ञादि में प्रयुक्त किये जाने वाले आम्रपत्र और आम्र वृक्ष की लकड़ी, दीपक तथा पुष्पों इत्यादि के विषय में लिख चुके हैं… अब आगे…
घट स्थापना में तथा पूजा कार्य में नारियल का विशेष महत्त्व होता है | नारियल के गुणों से तो हम सभी परिचित हैं | शीतल तथा स्निग्ध गुण धर्म इसका होता है | माना जाता है कि इसमें सभी देवों का वास होता है तथा देवी को यह अत्यन्त प्रिय होता है – इसीलिए नारियल को संस्कृत में श्रीफल कहा जाता है | किसी भी शुभकार्य के आरम्भ में नारियल तोड़ने की प्रथा है – नारियल के बाह्य आवरण को यदि अहंकार का प्रतीक तथा भीतरी भाग को पवित्रता और शान्ति का प्रतीक माना जाए तो इसका महत्त्व स्वतः ही समझ में आ जाता है | पूजा की समाप्ति पर नारियल तोड़ने का भी यही अभिप्राय है कि व्यक्ति ने अपने अहंकार को समाप्त कर दिया | नारियल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवों का वास माना जाता है |
कुछ लोगों की ऐसी भी मान्यता है कि एक समय धार्मिक कार्यों में मनुष्य और पशुओं की बलि सामान्य बात थी | कहते हैं उस समय आदि शंकराचार्य ने इस अमानवीय परम्परा को तोड़ा और मनुष्य अथवा पशु के स्थान पर नारियल अर्पित करने की प्रथा आरम्भ की | नारियल देखा जाए तो मनुष्य के मस्तिष्क से मेल खाता है | नारियल की जटा की तुलना मनुष्य के बालों से, कठोर कवच की तुलना मनुष्य की खोपड़ी से, भीतर के गूदे की तुलना मनुष्य के दिमाग़ से नारियल पानी की तुलना रक्त से की जा सकती है |
नारियल से पूर्व कलश में जो दूर्वा, कुश, सुपारी, पुष्प आदि डाले जाते हैं उनमें भी यही भावना निहित होती है कि हमारे भीतर दूर्वा जैसी जीवनी शक्ति बनी रहे, कुश जैसी
प्रखरता हमारे ज्ञान में विद्यमान रहे, सुपारी के समान गुणों से युक्त स्थिरता रहे तथा पुष्प के सामान सर्वग्राही गुणों का निवास हमारे मन में हो जाए |
इसके अतिरिक्त सुपारी को सभी देवों का प्रतीक भी माना जाता है और इसीलिए नवग्रह उपासना में नवग्रहों के प्रतीक स्वरूप सुपारी रखी जाती है | गणेश जी का रूप भी सुपारी को माना जाता है और गणेश जी की प्रतिमा न होने पर सुपारी में मौली बाँधकर उसे ही गणेश जी मानकर पूजा की जाती है | किसी भी अनुष्ठान में जहाँ पति पत्नी दोनों का होना अनिवार्य हो वहाँ यदि एक उपस्थित न हो तो उसके स्थान पर भी सुपारी को रखने की प्रथा है |
नवरात्रों के पावन नौ दिनों में दुर्गा माँ के नौ स्वरूपों की पूजा उपासना बड़े उत्साह के साथ की जाती है – चाहे चैत्र नवरात्र हों अथवा शारदीय नवरात्र | माँ भगवती को प्रसन्न करने के लिए और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष सामग्रियों से उनकी पूजा की जाती है | यद्यपि माँ क्योंकि एक माँ हैं तो साधारण रीति से की गई ईशोपासना भी उतनी ही सार्थक होती है जितनी कि बहुत अधिक सामग्री आदि के द्वारा की गई पूजा अर्चना | साथ ही जिसकी जैसी सुविधा हो, जितना समय उपलब्ध हो, जितनी सामर्थ्य हो उसी के अनुसार हर किसी को माँ भगवती अथवा किसी भी देवी देवता की पूजा अर्चना उपासना करनी चाहिए… वास्तविक बात तो भावना की है… भावना के साथ यदि अपने पलंग पर बैठकर भी ईश्वर की उपासना कर ली गई तो वही सार्थक हो जाएगी…
जैसा कि सब ही जानते हैं चैत्र नवरात्र चल रहे हैं और हर घर में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जा रही है | आज चैत्र शुक्ल पञ्चमी – यानी पञ्चम नवरात्र है – देवी के स्कन्दमाता रूप की उपासना सबने की है | छान्दोग्यश्रुति के अनुसार भगवती की शक्ति से उत्पन्न हुए सनत्कुमार का नाम स्कन्द है, और उन स्कन्द की माता होने के कारण ये स्कन्दमाता कहलाती हैं | इसीलिये यह रूप एक उदार और स्नेहशील माता का रूप है |
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः |
जब धरती पर राक्षसों का अत्याचार बढ़ता है माता अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का नाश करने निकल पड़ती हैं | युद्ध के लिए निकलना है लेकिन पुत्र के प्रति अगाध स्नेह भी है, माँ के कर्तव्य का भी निर्वाह करना है, इसलिए युद्धभूमि में भी सन्तान को साथ ले जाना आवश्यक हो जाता है एक माँ के लिए | साथ ही युद्ध में प्रवृत्त माँ की गोद में जब पुत्र होगा तो उसे बचपन से ही संस्कार मिलेंगे कि आततायियों का वध किस प्रकार किया जाता है – क्योंकि सन्तान को प्रथम संस्कार तो माँ से ही प्राप्त होते हैं – इन सभी तथ्यों को दर्शाता देवी का यह रूप है |
नवरात्रों में लगभग प्रत्येक घर में फलाहार ही ग्रहण किया जाएगा | हम पिछले कुछ दिनों से अपने WOW India के सदस्यों द्वारा भेजी हुई भारतीय परम्परा के अनुसार बनाए जाने वाले फलाहारी पकवानों की रेसिपीज़ आपके साथ साँझा कर रहे हैं | इसी क्रम में आज हम दो रेसिपी प्रस्तुत कर रहे हैं… मखाने तो हाँ सब ही बड़े चाव से खाते हैं… कभी भून कर नमक लगाकर, तो कभी ऐसे ही बिना भुने… कभी तलकर तो कभी खीर बनाकर… अनेक प्रकार से मखानों का सेवन हम करते हैं… पर क्या आपने कभी मखाने की पूरी बनाकर खाई हैं…? नहीं…? तो आइये आज सीखते हैं अर्चना गर्ग जी से… भई कुट्टू और रागी आदि की पूरियाँ तो बहुत खा लीं व्रत के दिनों में… आज मखाने की पूरी खाते हैं… स्वास्थ्य के लिए भी मखाने बहुत लाभकारी होते हैं… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
हम मखानों में से बिना फूले हुए मखाने चुन लेते हैं – जिन्हें ठुड्डी कहा जाता है | | इसको हम मिक्सी में महीन पीस लेते हैं | उसके बाद इसको चलनी से छान के ऊपर का मोटा वाला आटा यानी चोकर अलग कर देंगे और नीचे का बारीक वाले आटे से हम पूरियाँ बनाएँगे | तो ये दो कटोरी आटा
दो आलू उबले हुए मीडियम साइज के
थोड़ा देसी घी पूरी तलने के लिए
आधा चम्मच सेंधा नमक
बनाने की विधि…
एक बाउल में आटा ले लिया | दो उबले हुए आलू अच्छे से कद्दूकस करके मैश कर लिए और उसमें नमक डाल दिया। अब उसमें थोड़ा थोड़ा पानी डालकर उसका रोटी जैसा आटा सान लिया | मखाने का आटा फूलता बहुत है इसका ध्यान रखना है | इसको 15 मिनट ढक के रख दिया | 15 मिनट बाद देखा अगर वह खड़ा है तो थोड़ा सा पानी और डालकर उसको मुलायम दो | अब जैसे हम रोटी की लोई बनाते हैं ऐसे सब लोई तोड़ कर रख ले | चकले पे जरा सा मखाने का आटा डाला, उसके ऊपर लोई रखी और जरा सा आटा और डाला और धीरे-धीरे उसको हाथ से भी थपक सकते हैं और बेलन से भी बोल सकते हैं | छोटी-छोटी पराठे तैयार करके तवे पर डाल दिया | देसी घी लगा लगा कर अच्छा गोल्डन ब्राउन दोनों तरफ से सेंक लिया | यह खाने में बहुत ही स्वादिष्ट लगता है | आप इसे चाहे तो पूरी की तरह भी तल सकते हैं | लेकिन घी काफी लग जाता है उसमें | पराठे बहुत स्वाद लगते हैं | न्यूट्रीशन वैल्यू बहुत है – जैसा कि सभी को मालूम है कि मैं खाने में कितने गुण होते हैं |
दही की अरबी के लिए सामग्री…
मखाने की पूरी या पराँठे तो हमने तैयार कर लिए, लेकिन इन्हें खाएँगे किसके साथ ? क्यों न दही वाली अरबी बनाई जाएँ… इसके लिए…
आधा किलो उबली हुई अरबी
1 कटोरी दही हल्की खट्टी
नमक स्वादानुसार
एक बड़ा चम्मच देसी घी
दो हरी मिर्च
चौथाई कप कटा हुआ बारीक हरा धनिया
आधा चम्मच गरम मसाला
दो कप पानी
बनाने की विधि…
कढ़ाई में घी डाला | उसके बाद उसमें दही डाला और सारे मसाले डाल दिए | उसे लगातार चलाते रहें नहीं तो दही फट जाएगी | अब उसमें उबली हुई अरबी दो दो पीस काट कर डाल दिए और उसे चलाते रहे | फिर दो कप पानी डाल दिया | जब वह अच्छे से खनक जाए तो लटपट दही की अरबी हमारी तैयार हो गई |
यह मखाने की पूरी के साथ या पराठे के साथ बहुत ही स्वादिष्ट लगती है तो लीजिए हमारा व्रत का खाना तैयार है आप भी खाइए दूसरों को भी खिलाइए और बताइए कैसा लगा आपको यह खाना…
साम्वत्सरिक नवरात्र चल रहे हैं और समूचा हिन्दू समाज माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना में बड़े उत्साह, श्रद्धा और आस्था के साथ लीन है | इस अवसर पर कुछ
मित्रों के आग्रह पर माँ दुर्गा की उपासना में जिन वस्तुओं का मुख्य रूप से प्रयोग होता है उनके विषय में लिखना आरम्भ किया है | अभी तक हमने कलश तथा कलश स्थापना और वन्दनवार तथा यज्ञादि में प्रयुक्त किये जाने वाले आम्रपत्र और आम्र वृक्ष की लकड़ी, जौ और दीपक के विषय में लिखने का प्रयास किया था | अब आगे…
किसी भी पूजा में पुष्पों का प्रयोग भी किया जाता है | दुर्गा सप्तशती में श्री दुर्गा मानस पूजा में मन्त्र आता है…
अर्थात… हम कह्लार, उत्पल, नागकेसर, मालती, मल्लिका, कुमुद, केतकी तथा लाल कनेर आदि पुष्पों से तथा सुगन्धित पुष्पमालाओं से और नाना प्रकार के रसों की धारा से लाल कमल के भीतर निवास करने वाली श्री चण्डिका देवी की पूजा करते हैं |
इनमें कह्लार तथा उत्पल – कह्लार और उत्पल – दोनों ही अलग अलग प्रकार के कमल पुष्पों के नाम हैं तथा भारत के राष्ट्रीय पुष्प हैं | इनका बहुगुणीय औषधि के रूप में भी उपयोग होता है | कमल को पंकज अर्थात कीचड़ में उत्पन्न होने वाला पुष्प भी कहा जाता है और सम्भव है इसीलिए इसे आध्यात्मिकता, ज्ञान और पवित्रता का प्रतीक के रूप में भी जाना जाता है – अर्थात जो इस असार संसार रूपी कीचड़ से अध्यात्म की ओर ले जाए |
नागकेसर – जिसे नागचम्पा भी कहते हैं तथा यह भी पीले रंग का होता है तथा कषैले स्वाद का होता है | यह एक सदाबहार छायादार वृक्ष है | इस पुष्प से भी औषधि तथा मसाले बनाए जाते हैं |
मधु मालती – इससे मधु प्राप्त होता है और इसे मोगरे अथवा का पुष्प भी कहते हैं – मल्लिका भी इसी का एक प्रकार है, कुमुद – यह कमल के पुष्प जैसा ही पुष्प होता है तथा इसके गुण धर्म भी कमल के ही समान होते हैं | इसी प्रकार केतकी अर्थात केवड़े का पुष्प – हर कोई इसके गुण धर्म से भी परिचित है | इस प्रकार ज्ञात होता है कि भगवती को सभी सुगन्धित तथा शीतलता और बल प्रदान करने वाले पुष्प प्रिय हैं | क्योंकि पुष्पों के अनेकों रंगों से तथा उनकी सुगन्धि से असीम शक्ति और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है |
इसके अतिरिक्त ऐसी भी मान्यता है कि भगवती के शैलपुत्री रूप को श्वेत कनेर का पुष्प अधिक प्रिय है | ब्रह्मचारिणी को वटवृक्ष के पत्र और पुष्प, चंद्रघंटा को शंखपुष्पी – जिसे शारीरिक पराक्रम तथा मानसिक ज्ञान में वृद्धिकारक और सुख समृद्धि का कारक भी माना जाता है, कूष्माण्डा देवी को पीत पुष्प और कूष्माण्ड अर्थात जिसे हम कद्दू या सीताफल आदि नामों से भी जानते हैं, स्कन्दमाता को नीले रंग के पुष्प, कात्यायनी देबी को बेर के पुष्प, कालरात्रि को गुँजा अर्थात रत्ती की माला, महागौरी मौली यानी कलावा मात्र अर्पित करने से प्रसन्न हो जाती हैं तथा सिद्धिदात्री के रूप में भगवती को गुड़हल के पुष्प अधिक प्रिय हैं |
इसके अतिरिक्त बहुत से सुगन्धि द्रव्यों का भी पूजा में उपयोग किया जाता है… मांसीगुग्गुलचन्दनागुरुरजः कर्पूरशैलेयजै-
र्माध्वीकैः सह कुङ्कुमैः सुरचितैः सर्पिर्भिरामिश्रितैः |
सौरभ्यस्थितिमन्दिरे मणिमये पात्रे भवेत् प्रीतये
धूपोऽयं सुरकामिनीविरचितः श्रीचण्डिके त्वन्मुदे ||11||
अर्थात, हे चण्डिका देवि ! देव वधुओं के द्वारा तैयार किया हुआ यह दिव्य धूप आपकी प्रसन्नता में वृद्धि करे | यह धूप रत्नमय पात्र में – जो सुगन्धि का निवास स्थान है – रखा
हुआ है, तथा इसमें जटामांसी – डिप्रेशन और तनाव दूर करता है तथा इम्यून सिस्टम को ठीक रखता है, गुग्गुल – गुग्गुल भी सूजन तथा जोड़ों में दर्द के सहित अनेक रोगों में लाभकारी माना जाता है, चंदन, अगुरु – जो देखने में गोंद जैसा होता है तथा यह भी अनेक रोगों में लाभकारी माना जाता है – का चूर्ण, कपूर, शिलाजीत, मधु, कुमकुम और घी मिलाकर उत्तम रीति से इसे बनाया गया है | अर्थात धूप में जितने भी पदार्थ मिलाए जाते हैं वे सभी सुगन्धित होने के साथ ही अनेकों आयुर्वेदीय गुणों के भण्डार भी होते हैं |
ध्यान देने योग्य बात है कि ये सबही पौराणिक आख्यान हैं और इनमें से बहुत सी वस्तुएँ तो आज के युग में सरलता से उपलब्ध भी नहीं हैं, और यदि हैं भी तो महँगी होने के कारण बहुत से लोगों की पहुँच से बाहर हैं | तो यदि ये समस्त सामग्रियाँ नहीं होंगी तो भगवती भक्तों की पूजा स्वीकार नहीं करेंगी ?
इसीलिए हम बार बार यही कहते हैं कि पूजन सामग्री के फेर में न पड़कर केवल भावना की सामग्री से देवी की उपासना की जाए… माँ उसी से प्रसन्न हो जाएँगी… इसीलिये बोला जाता है “पुष्पाणि समर्पयामि ऋतुकालोद्भवानि च…” अर्थात जिस ऋतु में पूजा की जा रही है तथा जिस स्थान पर पूजा की जा रही है उस समय और उस स्थान पर जो पुष्प उत्पन्न होते हैं वे हम आपको समर्पित करते हैं…
माँ भगवती के सभी रूप अल्पात्यल्प सामग्री से की पूजा को भी ग्रहण करते हुए प्राणिमात्र की रक्षा करें तथा सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें यही कामना है…
जैसा कि सब ही जानते हैं चैत्र नवरात्र चल रहे हैं और हर घर में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जा रही है | आज चैत्र शुक्ल तृतीया – यानी तीसरा नवरात्र है – देवी के चन्द्रघंटा रूप की उपासना का दिन | देवी कूष्माण्डा – सृष्टि की आदिस्वरूपा आदिशक्ति | इनका निवास सूर्यमण्डल के भीतरी भाग में माना जाता है | अतः इनके शरीर की कान्ति भी सूर्य के ही सामान दैदीप्यमान और भास्वर है | इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं | ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है | कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा – त्रिविधतापयुतः संसारः, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः स कूष्माण्डा – अर्थात् त्रिविध तापयुक्त संसार जिनके उदर में स्थित है वे देवी कूष्माण्डा कहलाती हैं…
नौ दिन चलने वाले नवरात्रों में लगभग प्रत्येक घर में फलाहार ही ग्रहण किया जाएगा | हम पिछले कुछ दिनों से अपने WOW India के सदस्यों द्वारा भेजी हुई भारतीय परम्परा के अनुसार बनाए जाने वाले फलाहारी पकवानों की रेसिपीज़ आपके साथ साँझा कर रहे हैं | इसी क्रम में आज प्रस्तुत कर रहे हैं कुट्टू के आटे की पूरी अमरूद की सब्ज़ी के साथ… जो हमें भेजी है रेखा अस्थाना जी ने… और उसके बाद मीठे के लिए अरबी के गोंद की रेसिपी… अरबी का गोंद…? जी, सही पढ़ा आपने… अरबी का गोंद… जो हमें सिखाएँगी अर्चना गर्ग जी… तो पहले बनाते हैं कुट्टू की पूरी के साथ अमरूद की सब्ज़ी… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
कुट्टू के आटे की पूरी (पूड़ी )के साथ अमरूद की सब्जी
सभी कुट्टू की पूरी बनाना जानते हैं | पर आपको मैं फिर से बनाना बता रही हूँ…
सामग्री…
कुट्टू का आटा 250 ग्रा०, आटे को हमेशा छलनी से छान लिया करें
आलू या अरबी (चार ) उबले हुए
सेंधा नमक स्वादानुसार
तलने के लिए रिफाइंड
बनाने की विधि…
उबले हुए आलू या अरबी को छीलकर मसल लें | अब कुट्टू के आटे में नमक और ये मैश किये हुए आलू या अरबी मिलाकर आटे को सख्त सा सान लें | ध्यान रहे जब व्रत खोलना हो उसके कुछ समय पूर्व ही आटा साने | पहले से सानने से आटा बेकार हो जाता है | ढीला पड़ जाता है फिर पूड़ी बिलती नहीं है | कड़े आटे की पूड़ी ख़स्ता होती है | अब इस आटे की लोई बनाकर रख लें और एक एक करके पूड़ियाँ तलकर निकाल लें | आप इन्हें दही के साथ भी परोस सकते हैं और अमरूद की सब्ज़ी के साथ तो ये बेहद स्वाद लगती हैं |
तो अब बनाते हैं अमरूद की सब्ज़ी…
सामग्री…
आधा किलो अमरूद
हरी मिर्च
हरी धनिया
काली मिर्च
सेंधा नमक एक टी स्पून
जीरा एक टी स्पून
नीबूं .एक
चीनी… तीन टी स्पून
अमरूद को चाकू से छील लें | फिर उसके बीज चाकू से निकाल कर अलग कर दें | अब बारीक बारीक अमरूद को काट लें | पैन में बस एक चम्मच घी डालकर जीरे और हरी मिर्च का तडका लगाएँ | अब उसे चलाकर ढक दें | पाँच मिनट के बाद उसमें सेंधा नमक डाल कर फिर पकाएँ | जब पकने को हो उसमें चीनी डालकर एक नींबू निचोड़ कर चलाकर ढक दें | अब आपकी विटामिन सी से भरपूर एनर्जी देने वाली सब्जी बनकर तैयार है।
भाई मेहनत तो है, पर पौष्टिकता से भरपूर विटामिन सी युक्त भोजन है | तो आज ही तैयारी कर लीजिए | और हाँ, अमरूद पके हों तो सब्जी ज्यादा अच्छी बनती है |
साथ में कोई भी चटनी बना सकती हैं | व्रत की चटनी को सिलबट्टे से ही पीसे बस खाने भर का ही पीसे | एक साथ पीस कर सात दिन न चलाएँ | व्रत का भोजन कभी रखा हुआ नहीं खाते हैं | हमेशा खाने पूर्व ही बनाएँ |
________________रेखा अस्थाना
और अब… कुछ मीठा हो जाए…? तो सीखते हैं अर्चना गर्ग से अरबी का गोंद बनाने की विधि…
सामग्री…
1kg अरबी थोड़ी मोटी और बड़ी
तलने के लिए ढाई सौ ग्राम देसी घी
300 ग्राम चीनी
डेढ़ सौ ग्राम पानी
बनाने की विधि…
सबसे पहले हमने अरबी को अच्छे से छिलके उसे पानी से रगड़ रगड़ के धो लिया | फिर सूखे कपड़े से उसे अच्छी तरीके से पोंछ लिया | जब उसका लिसलिसापन खत्म हो गया तो चिप्स वाली मशीन में उसके चिप्स बना लिए और एक धोती के कपड़े पर उसे फैला दिए और पंखा चला दिया | 10 मिनट में वह हल्के हल्के से फरहरे ऐसे हो जाएंगे | फिर कढ़ाई में घी गरम करने के लिए रख दें | जब घी गरम हो जाए तो उसमें थोड़े-थोड़े चिप्स डालती जाएं | जब वह गोल्डन ब्राउन हो जाएं तो उन्हें निकाल निकाल कर रखती रहे | इस तरह से सारे चिप्स तल ले |
अब दूसरी कढ़ाई में पानी और चीनी चढ़ा दें | जब चीनी घुल जाए अच्छी तरीके से और दो तार की चाशनी बन जाए तब उसमें सारे चिप्स डाल दें और उनको चलाती रहे ताकि सबके ऊपर चाशनी चढ़ जाए और एक एक चिप्स खिल जाए | लीजिए अरबी का गोंद तैयार हो गया | यह खाने में बहुत ही स्वादिष्ट लगता है और मां का भोग भी लग गया | इसे अरबी के मीठे चिप्स भी कह सकते हैं…
अस्तु, अन्त में, समस्त देवताओं ने जिनकी उपासना की वे देवी कूष्माण्डा के रूप में सबके सारे कष्ट दूर कर हम सबका शुभ करें…