Happy Mother’s Day
आज जो कुछ भी हम हैं – हमारी माताओं के स्नेह और श्रम का ही परिणाम हैं | माँ से ही हमारी जड़ें मजबूत बनी हुई हैं – ऐसी कि बड़े से बड़े आँधी तूफ़ान भी हमें अपने लक्ष्य से – अपने आदर्शों से – अपने कर्तव्यों से डिगा नहीं सकते | करुणा-विश्वास-क्षमाशीलता की उदात्त भावनाएँ माँ से ही
हमें मिली हैं | WOW India के साहित्यकृतिक मँच पर सदस्यों ने मातृ दिवस के उपलक्ष्य में कुछ रचनाएँ प्रेषित कीं | स्नेह, विश्वास, साहस और क्षमाशीलता की प्रतिमूर्ति संसार की सभी माताओं को श्रद्धापूर्वक नमन के साथ प्रस्तुत हैं वही रचनाएँ —–कात्यायनी
माँ में चन्दा की शीतलता, तो सूरज का तेज भी उसमें ।
हिमगिरि जैसी ऊँची है, तो सागर की गहराई उसमें ।।
शक्ति का भण्डार भरा है, वत्सलता की कोमलता भी ।
भला बुरा सब गर्भ समाती, भेद भाव का बोध न उसमें ।।
बरखा की रिमझिम रिमझिम बून्दों का है वह गान सुनाती ।
नेह अमित है सदा लुटाती, मोती का वरदान भी उसमें ।।
धीरज की प्रतिमा है, चट्टानों सी अडिग सदा वो रहती ।
अपनी छाती से लिपटा कर सहलाने की मृदुता उसमें ।।
मैं हूँ उसका अंश, उसी के तन मन की तो छाया हूँ मैं ।
बून्द अकिंचन को मूरत कर देने की है क्षमता उसमें ।।
धन्यभाग मेरे, अपने अमृत से उसने सींचा मुझको ।
ऋण उसका चुकता कर पाऊँ, कहाँ भला ये क्षमता मुझमें ।।
—–कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा, दिल्ली
बहुत याद आती हो माँ तुम
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एक बार फिर से उछाल कर
वह खुशी तुम दे दो न माँ
ऊँची उड़ान की चाह तभी से मैंने भर ली थी माँ।
अपने हाथ का सना वह कौरा जो पंचगव्य का आभास आज भी दे रहा है मुझको
एक बार वही मोहनभोग फिर से तुम खिला दो न माँ
घर के पके गाय के दूध की खुरचन की सोंधी सुगंध फिर न मिल पाई मुझे कभी
आकर एक बार फिर से भर कटोरा मुझको दे जाओ न माँ।
धूप में चलकर भी अपना पल्लू
जो मुझे उढ़ाती उसकी छाँव व सुरक्षा को मैं खोजती फिरती
वैसी सुरक्षा एकबार तो आकर फिर से तो दे जाओ माँ!
विभु से करूँ 🙏विनती मै जब भी लूँ जन्म दोबारा
माँ तुमको ही पाऊँ मैं
अपनी गोदी का मयूर सिंहासन पर फिर से मुझे लिटा तो माँ।
“बहुत याद आती हो माँ तुम”
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—–श्रीमती रेखा अस्थाना, ग़ाज़ियाबाद
मातृदिवस का अवसर आया
मातृदिवस का अवसर आया, लिखना भावुकता ना भाया,
हमने सीधी सोच चलाया, बीस लाख मीटर तक धाया।
मॉं पर इतना लिखते पाया, मिलना उनसे सोच बिठाया,
इक विमान लेना था भाया, पुणे छोड़ दरभंगा आया।
माँ से मिला, उन्हें खुश पाया, जो पसंद खाने में आया,
हार्लिक्स भी हमने पाया, इस दिन छोटा बनना भाया।
आशीषों का मौसम पाया, दही, सेवई, मीठा खाया,
बात चीत कर दिवस बिताया, वापस फिर चलने की माया।
भावुकता का ना था साया, यात्रा का खर्चा ना भाया,
कर्म करो इतना फ़रमाया, करो तरक्की वचन सुहाया।
एक दिवस था अलग मनाया, पता नहीं क्या खोया, पाया?
दिल में कुछ तरंग सा पाया, आह्लादित हो तन, मन, काया।
स्वस्थ रहें माँ यही मनाया, हो निरोग बस माँ की काया,
वापस जाने की फिर माया, लौट के बुद्धू पुणे आया।
—–डॉ हिमांशु शेखर, पुणे
ईश्वर का उपहार है माँ
ऐ मां तेरे आंचल के तले, मैंने तो जीवन पाया है
सब भार हमारे जीवन का मां, तूने ही तो उठाया है।
आभार तुम्हारा कैसे करूं, हर तरफ तेरा ही साया है।
दुख का कभी आभास न हो,
जीवन में कोई प्यास न हो
हर कदम पे (पर) मां, तूने ही तो मेरा संबल बढ़ाया है।
ईश्वर का उपहार है मां,
ऐसा अद्भुत प्यार है मां
तुमसे ही तो घर आंगन में, खुशियों का सामां आया है।
कड़कती धूप में छांव है तू,
सुख की ऐसी नांव है तू
तेरे कारण ही तो मां, जीवन में उजाला आया है।
उदासी में मुस्कान है मां,
बच्चों की तो जान है मां
चरणों में झुकाया जब भी सर, मां का आशीष पाया है।
ऐ मां तेरे आंचल के तले, मैंने तो जीवन पाया है
सब भार हमारे जीवन का मां, तूने ही तो उठाया है
आभार तुम्हारा कैसे करूं,हर तरफ तेरा ही साया है।
—–श्रीमती रूबी शोम, ग़ाज़ियाबाद
माँ तो माँ होती है
बच्चो के मन को
एक बार देख कर ही
जान जाती है
कहाँ क्या कुछ चल रहा है
क्या छुपाया जा रहा है
क्यो
कुछ नहीं बताया जा रहा
भाँप लेती है दुख और परेशानी भी
छिपायी हुई ख़ुशी भी
तुम कितना भी छिपा लो
वो जान जाती है देख कर ही
ना मालूम उसे कैसे पता चल जाता है
जतन से छुपाया हुआ दुख
और ख़ुशी दोनों ही
इसी से तो कहा जाता है
माँ तो माँ होती है
कभी समझा कर कभी डाँट कर
तो कभी हंसी हंसी में
मन का सब कुछ उगलवा लेती है
पता भी नहीं चलता की उसने
कब जान लिया
ये सब कुछ ही
कभी माँ बन कर तो
कभी दोस्त बन कर
और कभी कभी तो लगता है
छोटे बच्चों की तरह
रूठ कर भी हमे मना लेती है
और समझा जाती है
बड़ी बड़ी सीख चुटकियों में
पता भी नहीं चलता
कब वो हमे कहाँ
ग़लत करते पकड़े लेती है
और कभी समझदारी पर खूब
ख़ुशियाँ बरसाती है
माँ ऐसी ही होती है
जब माँ होती है तो
हम कभी बड़े नहीं होना चाहते
लगता है वो हमे प्यार करे
दुलार करे
और हम उसे पकड़े रहे
लेकिन पता नहीं चलता
हम कब बड़े हो जाते है
और
ढूँढते है उन छोटी छोटी
ख़ुशियों को
हम क्यों बड़े हो जाते है
माँ
—–श्रीमती बानू बंसल, दिल्ली
सुंदर सरल सरस मुस्काती मां
सूती साड़ी बिना प्रसाधन शोभित मां
कुछ ऊँची कुछ लिपटी साड़ी
सादी चोटी में छा जाती मां
हाथों में चूड़ी, माथे पर बिंदी हरदम
पांव में बिछिया सदा सजाती मां
इत्र फुलेल न मंहगा गहना
अपनेपन की सुगंध से महकती मां
लड्डू, मठरी और गुझिया खूब बनाती
और खिलाकर खुद ही खुश हो जाती मां
स्वेटर टोपे मोजे बुनतीं
सरदी को गरमाती यां
बच्चों की पुस्तक कपड़े जूते पहले
साड़ी में फॉल लगाती मां
गुड़िया की शादी के कपड़े सिलती
छोटी पूरी, हलुआ बना बच्चों को खुश करती मां
तपे कभी बुखार से बदन जो मेरा
रात रात भर ठंडी पट्टी सर पर रखती मां
अव्वल आएं दर्जे में तो
खुशियां खूब मनाती मां
कम नम्बर पर डांट से बचाएं
हाथ फेर, आशा नई जगाती मां
लगता जैसे घर के लिए ही जीतीं
मानो सांस सांस गिरवी रख देती मां
सबको रखती हर मन्नत में
बिरवे पर रोशन दिया है मां
बिरवे पर जलता दिया है मां…
—–श्रीमती गुंजन खण्डेलवाल, बैतूल
कहो कौन माँ का दुलारा नहीं है
कहो कौन मां का दुलारा नहीं है
कि आंचल सा उसके नज़ारा नहीं है
तेरे नूर से है मेरी दुनियां रोशन
मगर तुझ सा चमके सितारा नहीं है
है मां रब का अवतार दूजा समझ ले
दुआ दी जिसे भी वो हारा नहीं है
करो माँ की सेवा न भूलो कभी तुम
ये फरमान रब का हमारा नहीं है
रुलाया जो माँ को तो रब रूठ जाए
बड़ा इससे कोई खसारा नहीं है
कज़ा लौट जाती है चौखट से मां की
बड़ा शान में उसकी नारा नहीं है
करे कोई मैला यहां मां का आंचल
ख़ुदा को कभी भी गवारा नहीं है
—–श्रीमती पूजा श्रीवास्तव, ग़ाज़ियाबाद
माँ
सह रही दर्द असीम वह औरत,
लिये आस देखने को मूरत बालक की,
चौंक पड़ती है सुन आवाज़ रोने की,
लगा सीने से नन्हें जीव को,
जाती है भूल कष्ट शारीरिक-मानसिक सभी,
पाकर संसार का सबसे खूबसूरत एहसास,
औरत से माँ बन जाने का।
भावना यही करती प्रेरित सदा,
करने को न्यौछावर समस्त अपना बालक पर।
बन प्रथम शिक्षक कराती शिक्षित सुसंस्कारों से।
लगा डुबकी हृदय के समुद्र में,
निकाल लाती राज़ छुपे सभी,
धर रूप घनिष्ठ मित्र का।
कर लेती झगड़ा भी,
करती हुई अभिनय भाई-बहन का।
है माँ सहनशील धरती समान,
तटस्थ है हिमालय की भाँति,
समुद्र की है गहराई उसमें।
बदल लेती रूप भवानी का
करने रक्षा बालक की।
है प्यार माँ का अनमोल,
अप्रतिबन्धित आकाश की भाँति।
माँ, हो तुम सृजनकर्ता मेरी,
सह कष्ट अनेक किया लालन-पालन मेरा,
उतार न पाऊँगा कभी ऋण तुम्हारा,
है कोटि कोटि नमन और धन्यवाद तुम्हें,
माँ हो तुम ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना।।
—–श्रीमती उषा गुप्ता मुम्बई
माँ की ममता
धरती भर कर दे सके स्नेह जिसकी कंचन मुस्कान मेह।
जिसकी आंखों में है दुलार जिसके आंचल में भरा प्यार।
वह और कौन हो सकता है! जिसमे ईश्वर ही दिखता है!
जो मूर्ति, मृत्तिका ममतामय आंचल की छांव, जीवन सुखमय।
मां का स्पर्श जो मिल जाए दुख, कष्ट रोग सब मिट जाए।
हर शब्द लिए आशीष खड़ा कोई विश्व में जिससे नहीं बड़ा।
जिसके आंसू में दुआएं हों कोमल पूनम सी हवाएं हों।
वह मां है, मां की ममता है संचित ईश्वर की क्षमता है।
रोना ही जानते थे हम तब दुनिया में जन्म लिया था जब।
बौछार हुई, मां की ममता बढ़ गई भाव, तन की क्षमता।
मुस्काते हुए, हंसना सीखा पहली ध्वनि में, मां शब्द दिखा।
था शून्य, अनंत दिखाया है बालक को कृष्ण बनाया है।
जो गर्भ में रख सकती है राम जिसे ईश्वर भी करते प्रणाम।
वह मां है, मां की ममता है ईश्वर की संचित क्षमता है।
—–श्री प्राणेंद्र नाथ मिश्र, कोलकाता
भरी – भरी सी रहती माँ।
सबकी सुनती , मन में गुनती
फिर बातों को मथती माँ।।
उसके होने से घर, घर है
है आँगन की तुलसी वो,
आँचल की देती है छैया
किन्तु धूप में झुलसी वो,
है वो निराली, सबकी प्यारी
संस्कारों को मढ़ती माँ।।
गौरैया सी उड़ने वाली
बँध जाती जब बंधन में,
मेंहदी और महावर रच कर
बजती चूड़ी- कंगन में,
ओढ़ लहरिया सिर पर अपने
घूँघट में हाँ हँसती माँ।।
प्रथम-प्रथम माँ बनने पर मुख
दीपक -सा दीपित होता,
नन्हा -सा इस पुष्प सुगंधित
उसके संग में जब सोता,
रूप बदल जाता है उसका
बन कर ममता बहती माँ।।
बन के माता, सृष्टि विधाता
ईश्वर -सा सौंदर्य लिए ,
बल, बुधि, विद्या सबकुछ देती
और बीजती प्रेम प्रिये,
ज्ञान-चक्षु भी वही खोलती
गुरु बन कर ही गढ़ती माँ।।
—–डॉ रमा सिंह,ग़ाज़ियाबाद
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मां की परिभाषा
कितना बेहतरीन मौका है आज पाया मैंने
उसे मां की अहमियत की दास्तान सुनाने
जादुई तिलिस्म था प्यारी सी मां का आंचल
ममता और दुआ से भरा था उसके मन का बादल।
वह कलम कहां से लाऊं जो लिख दे मां की परिभाषा
उसके जिस्म का ही तो हूं मै एक टुकड़ा
नौ महीने कष्टों को भोगा उसने, मुझे जनने की थी आशा।
मां स्वयं होती है वह ईश्वर की प्रथम रचना
है वो खुदा की जन्नत का एक खूबसूरत फूल
महकता है जिससे संसार रूपी बागबान का कोना-कोना
ऐसा रूप सलोना मेरी मां का कैसे जाऊं मैं भूल।
अक्सर याद आती है उसके आंचल की शीतल छाया
गुंजा आज जब सुबह शंख मंदिर की आरती में
अपनी मां की याद में एक गीत मुझको याद आया
मां के लिए लिखने का बेहतरीन मौका है आज मैंने पाया।
—–श्रेमाटी मधु रुस्तगी, दिल्ली
जब से माँ तू दूर हुई
अब जब से मां तू दूर हुई
अपने भी मुझसे दूर हुए
छा गया अंधेरा जीवन में
सपने भी चकनाचूर हुए l
जो सम्बल तुमसे मिला मुझे
लगता है वह भी छूट गया
नाता जो अपनेपन का था
लगता है वह भी टूट गया l
मैं तेरे आंगन की तुलसी
मुझसे अपने अब दूर हुए
छा गया अंधेरा जीवन में
सपने भी चकनाचूर हुए l
तुम से ही खुशियां थीं सारी
अब किससे मन की बात करूं
चेहरे का नूर हुआ धूमिल
जाहिर कैसे जज्बात करूं l
इस दुनिया के भी तो मुझ पर
मां वार कई भरपूर हुए
छा गया अंधेरा जीवन में
सपने भी चकनाचूर हुए l
अब जब से मां तू दूर हुई
अपने भी मुझसे दूर हुए
छा गया अंधेरा जीवन में
सपने भी चकनाचूर हुए l
—–सुश्री संगीता अहलावत, बुलन्दशहर
माँ को अच्छा लगेगा
मातृदिवस आया
फिर एक बार,
सबने हृदय से याद किया
माँ का प्यार!
कहीं माँ को सामने देख अंग अंग में भर गई उमंग,
कहीं लगा माँ बिन कितने फीके हो जाते हैं जीवन के सभी रंग !
हम बचपन को पीछे छोड़ ,
कुलाचें मारते,
हो जाते हैं युवा,
पर माँ
जो बिना थके घूमती रहती थी
पूरे घर में बन कर हवा,
धीरे धीरे सिमट जाती है
अपने ही किसी कोने में ।
निहारती रहती है,
हमारा आ कर जाना
और जा कर आना !
हमारी धुंआधार जिन्दगी को भी तो
उसी कोने में होता है ऐसा एहसास,
कि आई हो जैसे, चैन की श्वास!
फिर माँ अचानक बिछड़ जाती है,
सन्न रह जाते हैं हम
और सबसे छिप कर
फूट फूट कर रोते हैं,
हाँ, ऐसे रुआँसे पल सभी की जिन्दगी में होते हैं !
मैं भी रोई थी ऐसे ही,
कई दिन, कई रात,
बार बार इच्छा हुई
माँ मिल जाए बस एक बार,
मुझे बाहों में भर ले
बस एक बार!
और फिर
सहसा, जागा एक नया आभास …
मैं माँ को नहीं देख सकती
कयोंकि अब माँ नहीं है ,
यही सत्य है,
प्रमाणित सत्य
कठोर सत्य ,
और मुझे इसे स्वीकार करना ही है;
पर क्या, माँ भी मुझे नहीं देख पाती?
क्या यह भी सत्य है?
प्रमाणित सत्य?
नहीं ,
कोई प्रमाण नहीं है इसका
ना मेरे पास, ना किसी और के पास !
तो शायद
वह मुझे देख पाती हो!
यदि देखती होगी
तो कैसे सहती होगी
मेरी उन आंखो में ,आँसुओ की धार,
जिन्हे उसने कभी ना होने दिया नम?
वह तो देखना चाहती थी
मुझे मुस्कुराते हुए हरदम!
तो फिर क्यू ना उठ कर पोंछ लूं आँसु ,
श्रृंगार करूँ
तन का, मन का, जीवन का,
और धरूँ हूबहू वैसा रूप,
जैसा चाहती थी माँ !
माँ की खुशी के लिए
इतना तो कर ही सकती हूँ ना मैं,
और आप भी,
माँ को अच्छा लगेगा!
—–डॉ नीलम वर्मा, दिल्ली
एक भावांजलि 🌹 🙏 🌹….. माँ को 🌹🙏🌹
माँ तो माँ ही है , उसे कौन कहाँ है कह पाया ,
अपने जीवन का,वो प्रथम प्रेम न समझ पाया।
निष्कपट,निस्वार्थ, आलस्यरहित निशि दिन ही,
माँ को हर समय सजग ही मैंने निकट ही पाया ।।
माँ के मातृत्व को कह पाना भी असम्भव ही है,
और यादों को भुला सकना भी असम्भव ही है ।
माँ से पिटने पर,उसी की गोद में सिमटना मेरा ,
क्या वो अनुभूति थी,कह पाना असम्भव ही है।।
उम्र पचपन की थी मेरी, फिर भी बचपन की तरह,
थक के घर आने पर माँ के सिर दबाने, सहलाने से,
सुखद, मृदुल ,अलौकिक परिसंचरण था ऊर्जा का,
क्षणिक दुलार की विलक्षणता, कहना बहुत असम्भव है।
माँ तेरा कोई एक ‘दिवस’ भर नहीं हो सकता ,
मेरे जीवन का क्षण बिन तेरे नहीं हो सकता ।
भले ही लोक देवताओं के में तुम बैठी हो ,
तेरे आशीष बिना मैं कभी नहीं जी सकता ।।
—–श्री प्रभात शर्मा, ग़ाज़ियाबाद