24 जुलाई को इन्द्रप्रस्थ विस्तार स्थित आईपैक्स भवन में महिलाओं के सर्वांगीण स्वास्थ्य की दिशा में प्रयासरत संस्था WOW India ने अपनी Sister Organization DGF और 6 Organics तथा श्री लक्ष्मणदास चैरिटेबल ट्रस्ट के साथ मिलकर हरियाली तीज और आज़ादी के अमृत महोत्सव का आयोजन किया | कार्यक्रम दिन में दो बजे Lunch के साथ आरम्भ हुआ | तीन बजे श्री कबीर शर्मा द्वारा लिखित, डॉ पूर्णिमा शर्मा द्वारा स्वरबद्ध किया तथा रूबी शोम और अमज़द खान द्वारा गाया हुआ वीरों की शौर्य गाथा को दर्शाता गीत “रणबाँकुरों तुम्हें नमन तुम्हें प्रणाम है” प्रस्तुत किया गया | उसके बाद विधिवत कार्यक्रम का आरम्भ हुआ |
संस्था की चेयरपर्सन डॉ शारदा जैन ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि सभी को आज़ादी के महत्त्व को समझना चाहिए | संस्था की महासचिव डॉ पूर्णिमा शर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब आज़ादी मिलती है तो बहुत सारे उत्तरदायित्व भी साथ में लाती है – विशेष रूप से महिलाओं का उत्तरदायित्व यही है कि वे स्वयं अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दें ताकि अपनी सन्तानों के स्वास्थ्य पर भी दे सकें – उन्हें अच्छे संस्कार दें ताकि स्वस्थ और संस्कारित भावी पीढ़ी का निर्माण हो सके – और हमारे वीर शहीदों के बलिदान सार्थक सिद्ध हो सकें |
कार्यक्रम में डॉ दीपाली भल्ला का गीत “चलो पेड़ लगाएँ” भी रिलीज़ किया गया | साथ ही WOW India की सभी शाखाओं के सदस्यों के द्वारा रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किये गए |
नृत्य और गीतों के साथ ही एक प्रभावशाली प्रस्तुति रही सूर्य नगर शाखा की सदस्यों द्वारा प्लास्टिक के दुष्प्रभावों के सन्दर्भ में प्रस्तुत लघु नाटिका – जिसका लेखन और निर्देशन किया था अनुभा पाण्डेय ने… महिलाओं से सम्बन्धित वस्तुओं के स्टाल्स भी लगाए गए जिनमें महिलाओं ने अपनी पसन्द की वस्तुओं की ख़रीदारी भी की |
कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण रहा “Teej Queen Contest” जिसमें तीज क्वीन बनीं WOW India की इन्द्रप्रस्थ विस्तार की सदस्य ऋतु भार्गव… इन्हें ही Best Ramp Walk का अवार्ड भी मिला… रनर अप और बेस्ट स्माइल का अवार्ड मिला डॉ मंजु बारिक को… बेस्ट हेयर का अवार्ड मिला डॉ आभा शर्मा को…
इसके अतिरिक्त रूबी शोम को “रणबाँकुरों” गाने के लिए Excellence award दिया गया, रुक्मिणी नायर को Appreciation award दिया आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स के लिए, प्रीति नागपाल को Wow Woman Entrepreneur का अवार्ड दिया गया… WOW India की Cultural Secretary लीना जैन ने बहुत प्रभावशाली ढंग से मंच का संचालन किया…
WOW India साहित्य मुग्धा दर्पण के साथ मिलकर आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में 12 अगस्त को दिन में 12 बजे से एक काव्य संगोष्ठी का आयोजन किया डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्म ज़ूम पर | जिसकी अध्यक्षता की सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ रमा सिंह ने | संगोष्ठी में प्रसिद्ध कवि/कवयित्रियों ने काव्य पाठ प्रस्तुत किया… संगोष्ठी का सफलतापूर्ण संचालन किया WOW India की Cultural Secretary लीना जैन ने… प्रस्तुत है संगोष्ठी की वीडियो रिकॉर्डिंग…
चींचीं का शोर बहुत सवेरे मुझे उठा देता और गौरैया व उसकी सखियाँ मेरे छोटे से बगीचे में फुदकने लगतीं | इधर वो दाने, कीड़े आदि चुनकर सफाई करतीं की मैं घर बुहार लेती | उसमें और मेरी माँ में मुझे समानता लगती | कभी ना थकती कभी ना रूकती की तर्ज़ पर माँ के काम चलते जाते और ये गौरैया भी दाना पानी की जुगत में लगी रहती | सामने की झाड़ी में उसे चोंच में भर कभी तिनके, सींक और रूई लेकर जाते देख लगा कि घोंसला बना रही है | जैसे माँ स्वेटर बुनती लगभग वैसे ही गौरैया ने अपना घोंसला तैयार कर लिया | कुछ दिन बाद मुझे उसमें गोल, सफेद अंडे दिखाई दिए | अब मेरी सखी गौरैया का स्वभाव बदल रहा था | ज़्यादातर वह अपने घोंसले में चौकन्नी रहती अपनी गर्दन घुमाती रहती | उस दिन तो उसने शोर मचाकर और पंख फड़फड़ा कर दुश्मन पंछी को भगा कर ही दम लिया | कुछ दिन बाद मुझे पंख विहीन, मरियल चूज़े दिखाई दिए |
गौरैया की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी | आसपास की बड़ी इमारतों और सड़कों के कारण उसे दाना चुगने दूर जाना पड़ता था | उससे मेरी घनिष्ठता इस तरह बढ़ी की अब मैं कुछ गेहूं – चावल के दाने और एक सकोरे में पानी रोज छत पर रखने लगी | मुझे देखकर अब वो एक दम उड़ती नहीं थी वरन पास पड़े दाने चुनते रहती | गौरैया को देख उसके बच्चे चोंच खोल देते और वो उसमें दाना डाल देती | समय अपनी गति से चल रहा था | उस दिन गौरैया घोंसले में नहीं थी | पता नहीं कैसे उसका एक बच्चा नीचे गिर पड़ा | इस से पहले बिल्ली उसको झपट लेती मैंने उसे सुरक्षित घोंसले में पहुंचा दिया | देर शाम तक गौरैया चींचीं करती मेरे घर के चक्कर काटती रही | अब किसी भी माँ की तरह वो भी अपने बच्चों को दुनिया दारी के लिए तैयार कर रही थी | बच्चे थोड़ी उड़ान भरने लगे थे | वो बड़ी भयावह शाम थी | गर्मी में बरामदे का पंखा तेजी से घूम रहा था | गौरैया का एक बच्चा पता नहीं कब उस ओर उड़ते हुए आया और एक पल में पंखे से टकरा कर गिर गया | उस रात मेरे आंसू और गौरैया की चीं चीं वाली चीख़ आपस में घुल मिल गईं |
समय ने गति पकड़ ली थी | मेरे बच्चे दूसरे शहरों में पढ़ने चले गए | मेरी उदासी गहरा रही थी | उस दिन मैंने देखा गौरैया के बच्चे पेड़ों के एकाध चक्कर लगा कर उड़ गए | कभी ना वापस आने के लिए | मैं निराश हो गई | पर ये क्या?गौरैया अगली सभी सुबह खुशी खुशी चहकती आ धमकती और पुरानी दिनचर्या में व्यस्त हो गई | उसके चहचहाने से मुझे सीख मिल गई कि बच्चों को अपना भविष्य बनाने जाना ही है इसलिए उसमें बाधा न बनो और गौरैया की तरह अपेक्षा न रखते हुए अपने कर्तव्य पूर्ण खुशी खुशी करते रहो | मेरी सहेली गौरैया ने मुझे एक साथ यानि समाज से जुड़ने का संदेश दिया | आत्म निर्भरता, आत्म रक्षा और पर्यावरण संरक्षण जैसे सबक भी जाने अनजाने सिखा दिए | अब मैं उसे सहेली के साथ गुरु भी मानने लगी हूँ |
जी हाँ, पाँच फरवरी को वसन्त पञ्चमी है… ऋतुराज वसन्त के स्वागत हेतु WOW India ने साहित्य मुग्धा दर्पण के साथ मिलकर तीन फरवरी को डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्म ज़ूम पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया… जिसमें देश के विभिन्न भागों से लब्ध प्रतिष्ठ कवि और कवयित्रियों ने अपने आकर्षक काव्य पाठ से मंच को गौरवान्वित किया… डॉ मंजु गुप्ता – दिल्ली से, डॉ नीलम वर्मा – दिल्ली से, सुश्री नीलू मेहरा – कोलकाता से, श्री प्राणेन्द्र नाथ मिश्रा जी – कोलकाता से, श्री हिमांशु शेखर जी – पुणे से और श्री नीरज सक्सेना जी – ग़ाज़ियाबाद से – आप सभी के हम हृदय से आभारी हैं कि आप लोगों ने हमारा आमन्त्रण स्वीकार कर अपने व्यस्त समय में से कुछ पल हम सबके साथ व्यतीत किये और कार्यक्रम को सफल बनाकर मंच को गौरवान्वित किया… दोनों संस्थाओं की ओर से आपको “वसन्त कवि” से सम्मानित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है…
कार्यक्रम का मनोहर और सफल संचालन किया लीना जैन ने… प्रस्तुत है इसी काव्य सन्ध्या की वीडियो रिकॉर्डिंग… देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
तुलसी पूजन दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सभी को सुबह की राम राम जी… आज कुछ विशेष बात करने का मन हुआ तो सुबह सुबह लिखने बैठ गए… आजकल “क्रिसमस बनाम तुलसी पूजन दिवस” एक अत्यन्त आवश्यक विषय बना हुआ है और बहुत दिनों से इस पर चर्चाएँ देखने सुनने पढ़ने में आ रही हैं | हम क्रिसमस के स्थान पर तुलसी पूजन दिवस मनाने की बात करते हैं – जो हमारी सनातन संस्कृति के विचार से बहुत अच्छा प्रयास है – हम भी सहमत हैं इस बात से कि निश्चित रूप से हमारा देश सांता का नहीं है – स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, गुरु तेग बहादुर, गुरु नानक देव जैसे सन्तों का है – और इन सबने जो उच्च आदर्श स्थापित किये उनका सम्मान करना ही भारतीय संस्कृति का भी सम्मान करना होगा और यही हर भारतवासी का प्रथम कर्तव्य भी होना चाहिए |
लेकिन यहाँ एक बात अवश्य जानना चाहेंगे | आप सब जानते ही होंगे कि “क्रिसमस ट्री” को जब सजाया जाता है तो उस पर बहुत सारे उपहार लटका दिए जाते हैं जो बाद में सभी को दिए जाते हैं | बच्चों के लिए तो बहुत बड़ा आकर्षण होता है यह | साथ ही एक आकर्षण और होता है कि रात को जुराब में या बच्चों के तकिए के नीचे कोई उपहार छिपा दिया जाता है और बच्चे जब सुबह नींद से जागते हैं तो उस “सरप्राइज गिफ्ट” को देखकर उछल पड़ते हैं | इसी सन्दर्भ में कुछ दिन पहले एक सुझाव फॉरवर्ड किया था कि क्या हम क्रिसमस के स्थान पर तुलसी पूजन के अवसर पर ऐसा कुछ नहीं कर सकते ? इससे हमारे बच्चों में भी तुलसी पूजन के प्रति क्रिसमस जैसा ही उत्साह उत्पन्न होगा | हम तुलसी पूजन के समय वहाँ कुछ उपहार रखें जो बाद में प्रसाद के रूप में बच्चों में वितरित किये जाएँ तो बच्चे पूर्ण उत्साह के साथ उसमें भाग लेंगे और धीरे धीरे क्रिसमस के प्रलोभन को भूल जाएँगे | जिनके बच्चे 2 वर्ष से दस वर्ष तक की आयु के हैं वे एक बार ऐसा प्रयोग आरम्भ तो करें, केवल “क्रिसमस का बहिष्कार करो और उसके स्थान पर तुलसी पूजन करो” इस प्रकार की कोरी नारेबाजी से क्या कुछ सम्भव होगा ?
तुलसी वृक्ष की महानता को कोई नहीं नकार सकता – चाहे वह आयुर्वेद की दृष्टि से हो, सामाजिक या धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टि से हो – पर्यावरण की दृष्टि से हो – प्रत्येक दृष्टि से तुलसी, अश्वत्थ, वट, आमलकी इत्यादि वृक्षों की महानता से तो समूचा विश्व ही परिचित है – जो हम भारतीयों के लिए वास्तव में गर्व की बात है | नहीं मालूम क्रिसमस ट्री में इस प्रकार के कोई गुण हैं अथवा नहीं – इस विषय में या तो उन देशों के निवासी बता सकते हैं जहाँ यह बहुतायत से उत्पन्न होता है और इसी कारण से उन देशों में क्रिसमस के अवसर पर इसे सजाया जाता है, या फिर वनस्पति विज्ञान के ज्ञाता इस पर कोई प्रकाश डाल सकते हैं | इसीलिए हमारे देश और संस्कृति के अनुकूल वास्तव में तुलसी आदि वृक्षों का पूजन ही है |
हमने देखा है कि जब तुलसी विवाह होता है तो उस समय बहुत सारे उपहार उपस्थित अतिथियों को देने का एक प्रकार से “फैशन” हो गया है | कुछ परिवारों में तुलसी विवाह में हम भी गए हैं तो वहाँ विशेष रूप से सौभाग्यवती महिलाओं को बड़े अच्छे उपहार ख़ूबसूरत पैकिंग में भेंट किये गए – तो फिर “तुलसी पूजन दिवस” को बच्चों के मध्य आकर्षण का केन्द्र बनाने के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता…? इसीलिए आप सबसे विनम्र निवेदन है कि इस उपहार वाले प्रस्ताव पर एक बार विचार अवश्य कीजियेगा…
साथ ही एक बात हमारे इस महान देश के विषय में हम सभी को याद रखने की आवश्यकता है कि भारतीय वैदिक संस्कृति ने संसार की सभी संस्कृतियों का सम्मान करना सिखाया है… सभी को एक सूत्र में पिरोने का उदात्त विचार दिया है…
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् |
सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ||
– अथर्ववेद 12/1/45 – जिसका आशय यही है कि…
प्रकृति – वह भी भारत देश की – जहाँ नाना प्रकार की साग सब्जियाँ व फल होते हैं जो शरीर के लिए औषधि का कार्य करते हैं पर हमें सही जानकारी न होने के कारण हम इनका इस्तेमाल कम करते हैं | हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि अगर हम केवल मौसमी फलों और साग सब्ज़ियों का ही भोजन में प्रयोग करें तो रोगों से कोसों दूर रह सकते हैं | आजकल आँवलो पर बहार आई हुई है… जी हाँ, आँवलों का मौसम चल रहा है और आँवले स्वास्थ्य के लिए कितने अधिक उपयोगी होते हैं ये हम सभी जानते हैं | कई तरह से आँवलों का प्रयोग किया जाता है | और अगर उनकी चटनी बनाकर खाई जाती है तब तो सेहत के साथ साथ खाने का स्वाद भी दोगुना बढ़ जाता है… तो आइये आज मैं आपको आँवले की चटनी प्रतिदिन खाने के लिए बनाने की विधि बता रही हूँ…
सामग्री
आँवले चार – काटकर गुठली अलग करें व बारीक टुकड़ों में काट लें
हरी धनिया पचास ग्राम
लहसुन यदि खाते हों तो पाँच कली छीलकर
हरी मिर्च सात या आठ या फिर स्वादानुसार
दो चम्मच सफेद सूखे तिल (तवे में हल्के लाल कर हल्का सा पीस लें)
एक चम्मच ऑलिव ऑइल यदि हो तो
नमक स्वादानुसार
विधि— इस सारी सामग्री को अच्छी प्रकार धोकर मिक्सी में पीसकर एक छोटे जार में रखें फिर उसमें भुने दरबराए तिल व ऑलिव ऑइल को मिलाकर रखें | प्रतिदिन अपने प्रियजन को प्रेम से परोसें |
फायदे— आपको सर्दी-जुकाम से दूर रखे, इम्यून सिस्टम ठीक रखेगा, शरीर में आयरन व कैल्शियम की कमी को पूरा करेगा । बाल आँखों के लिए हितकर |
रोज खाइए और खिलाइए | क्योंकि यह बिना बताए पुण्य का बैलेंस बढ़ाता जाता है | जब हम स्वस्थ रहेंगे तो देश पर बोझ नहीं बनेंगे न |
“बुजुर्गों की गाथा व आँवले का खाया” बाद में पता चलता है |
और हाँ, त्रुटि के लिए क्षमा करियेगा क्योंकि डाक्टर हमसे अधिक जानते हैं।👏😊
कल पर्यावरण दिवस है – अच्छी और सन्तोष की बात है कि हम सब पर्यावरण के प्रति इतने जागरूक हैं | लेकिन एक बात समझ में नहीं आती, कि एक ही दिन या एक ही
सप्ताह के लिए पर्यावरण की याद क्यों आती है – जबकि हमारा पर्यावरण अनुकूल बना रहे, सुरक्षित रहे इसके विषय में तो बच्चे बच्चे को जानकारी होनी चाहिए | आज फिर से अपना एक पुराना लेख दोहरा रहे हैं…
हम सभी जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व पर्यावरण दिवस विश्व भर में मनाया जाता है, और इसका मुख्य उद्देश्य है इस ओर राजनीतिक और सामाजिक जागृति उत्पन्न करना | लेकिन यहाँ हम इसके इतिहास पर नहीं जाना चाहते | असली बात है कि पर्यावरण को प्रदूषण से किस प्रकार बचाया जाए | पर्यावरण प्रदूषित होता है तो समूची प्रकृति पर उसका हानिकारक प्रभाव होता है | इण्डस्ट्रीज़ से निकले रसायनों के पानी में घुल जाने के कारण पानी न तो पीने योग्य ही रहता है और न ही इस योग्य रहता है कि उनसे खेतों में पानी दिया जा सके – क्योंकि वो सारा ज़हर फ़सलों में घुल जाएगा | पेड़ों के अकारण ही कटने से कहीं भू स्खलन, कहीं बाढ़ तो कभी भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ता है | अभी पिछले दिनों विश्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद सबके प्रिय श्री सुन्दर लाल बहुगुणा जी हमारे मध्य नहीं रहे, उनका चिपको आन्दोलन इस बात का जीता जागता प्रमाण है जिन्होंने इस आन्दोलन के माध्यम से इस दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं |
यदि हम थोड़ी समझदारी से काम लें तो काफी हद तक पर्यावरण की समस्या से मुक्ति मिल सकती है | जैसे कि पोलीथिन के पैकेट्स पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं | ज़मीन पर जिस जगह इन्हें फेंका जाए वहाँ घास तक नहीं उत्पन्न हो सकती | इसे जलाया नहीं जा सकता | तो अच्छा हो कि इसका जितना हो सके कम उपयोग किया जाए | लेकिन आजकल जितनी भी वस्तुएँ बाज़ार में पैकेट्स में उपलब्ध होती हैं वे सभी अधिकाँश में प्लास्टिक या पोलीथिन में ही पैक होती हैं | इतना ही नहीं, लोग बाहर घूमने जाते हैं तो चिप्स, चोकलेट, पान मसाला आदि के ख़ाली पैकेट्स यों ही ज़मीन पर फेंक देते हैं | पिकनिक की जगहों पर तो डस्टबिन रखे होने पर भी जहाँ तहाँ ये कूड़ा फैला मिल जाएगा | इससे गन्दगी तो होती ही है, साथ ही मिट्टी को भी नुकसान पहुँचता है |
इसी तरह घरों में पंखे बिजली आदि अकारण ही चलते छोड़ देते हैं | “अर्थ डे” पर एक सामाजिक या राजनीतिक पर्व की भाँती रात में एक घंटे के लिए बिजली की सारी चीज़ें बन्द रखने की रस्म अदायगी हो जाती है – और वो भी हर कोई नहीं करता, काफ़ी लोग तो इस पर ध्यान ही नहीं देते | इस दिन और इसके आगे पीछे बिजली कैसे बचाएँ इस विषय पर गोष्ठियों में लोग अपने अपने विचार प्रस्तुत कर देते हैं | लेकिन “अर्थ डे” का समारोह समाप्त हो जाने के बाद फिर वही ढाक के तीन पात | क्योंकि हमारी मानसिकता तो वही है |
तो ये सब बातें तो होती ही रहेंगी – पर्यावरण दिवस और धरती दिवस यानी अर्थ डे भी मनाए जाते रहेंगे, लेकिन इन सब बातों से भी अधिक आवश्यक है वृक्षों के प्रति उदार होना | जितने अधिक वृक्ष होंगे उतनी ही स्वच्छ प्राकृतिक वायु उपलब्ध होगी और वातावरण में घुले ज़हर से काफ़ी हद तक बचाव हो पाएगा |
समय समय पर अनेकों प्रयास इसके लिए किये जाते रहते हैं | कभी पता चलता है कि “ग्रीन कैंपेन” के माध्यम से देश के कई भागों में हरियाली में वृद्धि करने का प्रयास किया जा रहा है | कुछ वर्ष पूर्व कई विद्यालयों में ईको क्लब भी बनाए गए थे, ताकि बच्चों में स्वस्थ पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनी रहे | अक्सर सरकारी स्तर पर और गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी पर्यावरण को बचाने के लिये वृक्षारोपण के कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है | लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें सब कुछ सरकार अथवा समाजसेवी संगठनों पर ही छोड़ देना चाहिये ? क्या देश के हर नागरिक का कर्तव्य नहीं कि वृक्षों की देखभाल अपनी सन्तान के समान करें और वैसा ही स्नेह उन्हें दें ?
इसके लिए हमें अपने वैदिक युग की ओर घूम कर देखना होगा | भारतवासियों को तो गर्व था अपने देश के प्राकृतिक सौन्दर्य पर | भारत की भूमि में जो प्राकृतिक सुषमा है उस पर भारतीय मनीषियों का आदिकाल से अनुराग रहा है | आलम्बन उद्दीपन, बिम्बग्रहण, उपदेशग्रहण, आलंकारिकता आदि के लिये सभी ने इसके पर्वत, सरिता, वन आदि की ओर दृष्टि उठाई है | इन सबसे न केवल वे आकर्षित होते थे, अपितु अपने जीवन रक्षक समझकर इनका सम्मान भी करते थे | वनों के वृक्षों से वे पुत्र के समान स्नेह करते थे | पुष्पों को देवताओं को अर्पण करते थे | वनस्पतियों से औषधि प्राप्त करके नीरोग रहने का प्रयत्न करते थे | क्या कारण है कि जिन वृक्षों को हमारे ऋषि मुनि, हमारे पूर्वज इतना स्नेह और सम्मान प्रदान करते थे उन्हीं पर अत्याचार किया जा रहा है ?
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर विचार करते समय सबसे पहले सोचना है कि पर्यावरण की समस्या के कारण क्या हैं | प्रगतिशीलता के इस वैज्ञानिक युग में समय की माँग के साथ डीज़ल पैट्रोल इत्यादि से चलने वाले यातायात के साधन विकसित हुए हैं | दिल्ली सरकार ने इसी को देखते हुए ऑड ईवन का सिलसिला चलाया है, पर ये कितना कारगर है इसके विषय में फिलहाल अभी कुछ नहीं कहना | मिलों कारखानों आदि में वृद्धि हुई है | एक के बाद एक गगनचुम्बी बहुमंज़िले भवन बनते जा रहे हैं | मिलों कारखानों आदि से उठता धुआँ वायुमण्डल में घुलता चला जाता है और पर्यावरण को अपना शिकार बना लेता है | हरियाली के अभाव तथा बहुमंज़िले भवनों के कारण स्वच्छ ताज़ी हवा न जाने कहाँ जाकर छिप जाती है | निरन्तर हो रही वनों की कटाई से यह समस्या दिन पर दिन गम्भीर होती जा रही है | यद्यपि जनसंख्या वृद्धि के कारण लोगों को रहने के लिये अधिक स्थान की आवश्यकता है | और इसके लिये वनों की कटाई भी आवश्यक है | अभी भी बहुत से गाँवों में लकड़ी पर ही भोजन पकाया जाता है | भवन निर्माण में भी लकड़ी की आवश्यकता होती ही है | इस सबके लिये वृक्षों का काटना युक्तियुक्त है | किन्तु जिस अनुपात में वृक्ष काटे जाएँ उसी अनुपात में लगाए भी तो जाने चाहियें | लक्ष्य होना चाहिये कि हर घर में जितने बच्चे हों अथवा जितने सदस्य हों कम से कम उतने तो वृक्ष लगाए जाएँ |
प्राचीन काल में भी भवन निर्माण में लकड़ी का उपयोग होता था | लकड़ी भोजन पकाने के लिये ईंधन का कार्य भी करती थी | और यज्ञ कार्य तो लकड़ी के बिना सम्भव ही नहीं था | फिर भी स्वस्थ पर्यावरण था | समस्त वैदिक साहित्य तथा पुराणों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उस काल में पर्यावरण की समस्या थी ही नहीं | उस समय लोगों ने कभी यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भविष्य में कभी पर्यावरण प्रदूषित भी हो सकता है | उस समय धुआँ उगलने वाले वाहन नहीं थे | उनके स्थान पर थे बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, रथ इत्यादि | मिलों कारखानों के स्थान पर समस्त वस्तुएँ हाथ से ही बनाई जाती थीं | इतनी अधिक बहुमंज़िली इमारतें नहीं थीं | और ये सब आज की जनसँख्या की विस्फोटक वृद्धि को देखते हुए अव्यावहारिक ही प्रतीत होता है | क्योंकि इतने अधिक लोगों की नित्य प्रति की आवश्कताओं की पूर्ति के लिये हाथ से वस्तुएँ बनाई गईं तो कार्य की गति धीमी होगी और अनगिनती लोग अपनी आवश्यक वस्तुओं से वंचित रह जाएँगे | साथ ही इतनी बड़ी जनसँख्या तक उनकी दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ पहुँचाने के लिये भी तेज़ गति से चलने वाले वाहनों की ही आवश्यकता है, न कि बैलगाड़ी आदि की | इतने अधिक लोगों के निवास की भी आवश्यकता है अतः बहुमंज़िली इमारतों के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प भी नहीं है | लोग उस समय सादा व शान्त जीवन जीने के आदी थे | आज की तरह दौड़ भाग उस समय नहीं थी | जनसँख्या सीमित होने के कारण लोगों के निवास की समस्या भी उस समय नहीं थी | इस प्रकार किसी भी रूप में पर्यावरण प्रदूषण से लोग परिचित नहीं थे | फिर भी उस समय का जनसमाज वृक्षारोपण के प्रति तथा उनके पालन के प्रति इतना जागरूक था, इतना सचेत था कि वृक्षों के साथ उसने भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे | यही कारण था कि भीष्म ने मुनि पुलस्त्य से प्रश्न किया था कि “पादपानां विधिं ब्रह्मन्यथावद्विस्तराद्वद | विधिना येन कर्तव्यं पादपारोपणम् बुधै ||” अर्थात हे ब्रह्मन् ! मुझे वह विधि बताइये जिससे विधिवत वृक्षारोपण किया जा सके | – पद्मपुराण २८-१
भीष्म के इस प्रश्न के उत्तर में पुलस्त्य ने वृक्षारोपण तथा उनकी देखभाल की समस्त विधि बताई थी | जिसके अनुसार विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना करके वृक्षों को आरोपित किया जाता था | इस पूजन में एक विशेष बात यह होती थी कि चार हाथ की वेदी चारों ओर से तथा सोलह हाथ का मण्डल बनाया जाता था | उसके मध्य में वृक्षारोपण किया जाता था | जिस प्रकार घर में सन्तानोत्पत्ति के अवसर पर माँगलिक कार्य, उत्सव इत्यादि होते हैं, उसी प्रकार वृक्षारोपण के समय भी उत्सव होते थे | कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तान के समान वृक्षों को संस्कारित किया जाता था | वृक्षों को वस्त्र-माला-चन्दनादि समर्पित करके उनका पूजन किया जाता था | उसके पश्चात् उनका कर्णवेधन किया जाता था जिसके लिये उनके पत्ते में सूई से छेद करते थे | उसके बाद धूप दीप आदि से सुवासित किया जाता था | पयस्विनी गौ को वृक्षों के मध्य से निकाला जाता था | वैदिक मंत्रोच्चार के साथ हवन किया जाता था | यह उत्सव चार दिन तक चलता था | उसके पश्चात् प्रतिदिन प्रातः सायं देवताओं के समान वृक्षों की भी पूजा अर्चना की जाती थी |
सम्भवतः विधि विधान पूर्वक वृक्षारोपण तथा नियमित वृक्षार्चन आज की व्यस्त जीवन शैली को देखते हुए हास्यास्पद प्रतीत हो – किन्तु सामयिक अवश्य है | पद्मपुराण के उपरोक्त सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि उस काल में पर्यावरण के प्रति जनसमाज कितना जागरूक था | वृक्षों का विधिपूर्वक आरोपण करके, सन्तान के समान उन्हें संस्कारित करके देवताओं के समान प्रतिदिन उनकी अर्चना का विधान कोरे अन्धविश्वास के कारण ही नहीं बनाया गया था – अपितु उसका उद्देश्य था जनसाधारण के हृदयों में वृक्षों के प्रति स्नेह व श्रद्धा की भावना जागृत करना | स्वाभाविक है कि जिन वृक्षों को आरोपित करते समय सन्तान के समान माँगलिक संस्कार किये गए हों उन्हें अपने किसी भी स्वार्थ के लिये मनुष्य आघात कैसे पहुँचा सकता है ? वह तो सन्तान के समान प्राणपण से उन वृक्षों की देखभाल ही करेगा | देवताओं के समान जिन वृक्षों की नियमपूर्वक श्रद्धाभाव से उपासना की जाती हो उन्हें किसी प्रकार की क्षति पहुँचाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता | वेदी व मण्डल बनाने का उद्देश्य भी सम्भवतः यही था कि लोग आसानी से वृक्षों तक पहुँच न सकें | उस समय वनों की सुरक्षा तथा पर्यावरण के प्रति जागरूकता किसी दण्ड अथवा जुर्माने के भय से नहीं थी – अपितु वृक्षों के प्रति स्वाभाविक वात्सल्य ए़वं श्रद्धा के कारण थी |
नाना प्रकार के वृक्षों के आरोपण से अनेक प्रकार के सुफल प्राप्त होते है ऐसी पुराणों की मान्यता है | जैसे पीपल के वृक्ष से धन की प्राप्ति होती है, अशोक शोकनाशक है, पलाश यज्ञफल प्रदान करता है, क्षीरी आयुवर्द्धक है, जम्बुकी कन्यारत्न प्रदान करता है, दाडिमी को स्त्रीप्रद बताया गया है | कहा गया है कि बड़े वृक्ष जैसे वट, पीपल, आम, इमली और शाल्मली आदि लगाना अत्यन्त सौभाग्यकारक है | उष्णकाल में प्राणीमात्र इनकी छाया में विश्राम करते हैं – जिससे इन वृक्षों को लगाने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है | इनको देखने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं | इसीलिये बड़ी छाया वाले वृक्षों का रोपण श्रेयस्कर है | इसके अतिरिक्त जो लोग मार्गों में वृक्ष लगाते हैं वे वृक्ष उनके घर पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं | जो इन वृक्षों की छाया में बैठते हैं वे इन वृक्ष लगाने वालों के सहायक व मित्र बन जाते हैं | वृक्षों के पुष्पों से देवताओं को तथा फलों से अतिथियों को प्रसन्न किया जाता है – “वृक्षप्रदो वृक्षप्रसूनैर्देवान् प्रीणयति, फलैश्चातिथीन्, छायया चाभ्यागतान् |” विष्णुस्मृतिः – ९१
वृक्ष भले ही पुत्ररूप में उत्पन्न न होते हों, किन्तु वृक्षारोपण करने वाला उन्हें पुत्रवत् स्नेह अवश्य करता था | वृक्षों की छाया में बैठने वाले भले ही वृक्षारोपण करने वालों के नाम तक न जानते हों, किन्तु उनके लिये शुभकामनाएँ अवश्य करते थे और इस प्रकार अनजाने ही मित्र बन जाते थे | कितना भावनात्मक तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध था मनुष्य व वृक्षों के मध्य | इसीलिये वृक्ष सुरक्षित थे | और वृक्षों की सुरक्षा के कारण पर्यावरण सुरक्षित था | कुछ वृक्ष जैसे तुलसी आँवला आदि के महत्व को आज भी स्वीकार किया जाता है | ये सारी ही बातें किसी भावुकता अथवा अन्धविश्वास के कारण ही नहीं कही गई हैं | इन सबका उद्देश्य था जनसाधारण के हृदयों में वृक्षों के प्रति श्रद्धा, सम्मान व स्नेह की भावना जागृत करना जिससे कि वृक्षों पर किसी प्रकार का अत्याचार न हो सके और पर्यावरण स्वस्थ रहे |
आज वृक्षों की कटाई रोकने के लिये दण्ड का विधान होते हुए भी कटाई चोरी छिपे होती अवश्य है जहाँ हरे भरे वृक्ष राही को छाया प्रदान करते थे आज वहाँ सूखे अथवा अधकटे वृक्ष दिखाई देते हैं | पर्वतश्रंखलाएँ जो हरी भरी हुआ करती थीं आज नग्न होती जा रही हैं | एक ओर कारखानों की बढ़ती संख्या तथा यातायात के बढ़ते साधनों – जो कि आज के जीवन के लिये अत्यावश्यक भी है – से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, तो दूसरी ओर हम स्वयं वनों व पर्वतों का चीरहरण करने में लगे हुए हैं | यही कारण है कि जाड़ा गर्मी बरसात सारे ही मौसम बदल चुके हैं | कालिदास ने ऋतुओं का जो स्वरूप देखकर ऋतुसंहार की रचना की थी आज कहाँ है ऋतुओं का वह स्वरूप ?
अतः, उपसंहार के रूप में यही कहना चाहेंगे कि समाज तथा राष्ट्र की प्रगति के लिये एक ओर जहाँ ये मिलें, ये कारखाने, ये वाहन आवश्यक हैं, जनसँख्या की वृद्धि के कारण जहाँ हर व्यक्ति के सर पर साया करने के लिये भू भाग की कमी के कारण गगनचुम्बी इमारतों की भी आवश्यकता है – वहीं दूसरी ओर इनके दुष्परिणाम – पर्यावरण प्रदूषण से बचने के लिये नए वृक्ष लगाना तथा उनकी उचित देखभाल करना भी उतना ही आवश्यक है | ताकि उनकी स्वच्छ ताज़ी हवा वातावरण में घुले हुए विष को कम कर सके | और यह कार्य केवल सरकार तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता | न ही केवल स्वयंसेवी संगठनों के कन्धों पर इतना बड़ा भार डाला जा सकता है | और न ही यह कार्य किसी दण्ड अथवा जुर्माने के भय से सम्भव है | इसके लिये आवश्यक है कि बच्चे बच्चे को इस बात की जानकारी दी जाए कि वृक्ष हमारे लिये कितने उपयोगी हैं | प्राणवायु, ईंधन, भवन निर्माण हेतु लकड़ी तथा रोगों के निदान के लिये औषधि सभी कुछ तो वृक्षों से प्राप्त होता है | कागज़ कपड़ा भी इन्हीं की देन है | अतः आवश्यकता है जनमानस में वृक्षों के प्रति वही श्रद्धा तथा वही स्नेह की भावना विकसित करने की जो हमारे पूर्वजों के हृदयों में थी |
आज समूचा विश्व पृथिवी दिवस यानी Earth Day मना रहा है | आज प्रातः से ही पृथिवी दिवस के सम्बन्ध में सन्देश आने आरम्भ हो गए थे | कुछ संस्थाओं ने तो वर्चुअल
मीटिंग्स यानी वेबिनार्स भी आज आयोजित की हैं पृथिवी दिवस के उपलक्ष्य में – क्योंकि कोरोना के कारण कहीं एक स्थान पर एकत्र तो हुआ नहीं जा सकता | ये समस्त कार्यक्रम पृथिवी के पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण से मुक्ति प्राप्त करने तथा समाज में जागरूकता उत्पन्न करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है | किन्तु, यहाँ विचारणीय बात ये है कि भारतीय समाज में – विशेष रूप से वैदिक समाज में – तो सदा से हर दिन पृथिवी दिवस होता था, तो आज इस प्रकार के आयोजनों की आवश्यकता किसलिए प्रतीत होती है | अथर्व वेद में तो एक समग्र सूक्त ही पृथिवी के सम्मान में समर्पित है | वैदिक विधि विधान पूर्वक कोई भी पूजा अर्चना करें – पृथिवी की पूजा आवश्यक रूप से की जाती है – ससम्मान पृथिवी का आह्वाहन और स्थापन किया जाता है –
अर्थात, हे पृथिवी तुमने समस्त लोकों को धारण किया हुआ है और तुम्हें भगवान विष्णु ने धारण किया हुआ है | तुम मुझे धारण करो, और इस आसन को पवित्र करो | आधार शक्ति पृथिवी को नमस्कार है |
अथर्ववेद के भूमि सूक्त में कहा गया है “देवता जिस भूमि की रक्षा उपासना करते हैं वह भूमि हमें मधु सम्पन्न करे | इस पृथ्वी का हृदय परम आकाश के अमृत से सम्बन्धित रहता है | यह पृथ्वी हमारी माता है और हम इसकी सन्तानें हैं “माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या: |
पृथिवी पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण अंग है ये हम सभी जानते हैं | जिस पर प्राणी निवास करते हैं तथा जीवन प्राप्त करते हैं वह भूमि निश्चित रूप से वन्दनीय तथा उपयोगी है | यही कारण है वैदिक वांग्मय में पृथिवी के सम्मान में अनेक मन्त्र उपलब्ध होते हैं | वैदिक ऋषि क्षमायाचना के साथ पृथिवी पर चरण रखते थे…
समुद्रवसने देवि, पर्वतस्तनमण्डिते | विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं, पादस्पर्शं क्षमस्व मे ||
अर्थात हे समुद्र में निवास करने वाली देवी, पर्वतरूपी स्तनों को धारण करने वाली, विष्णुपत्नी हम आपका अपने चरणों से स्पर्श कर रहे हैं – हमें इसके लिए क्षमा कीजिए |
इसके अतिरिक्त अनेकों मन्त्र पृथिवी की उपासना स्वरूप उपलब्ध होते हैं, यथा…
भूमे मातर्निधेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् |
संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ||
हे धरती माता मुझे कल्याणमय बुद्धि के साथ स्थिर बनाए रखें | हे गतिशीले (जो प्राणिमात्र को गति प्रदान करती है), प्रकाश के साथ संयुत होकर मुझे श्री और विभूति में धारण करो |
पृथ्वी के लिए नमस्कार है जो सत्य, ऋत अर्थात अपरिवर्तनीय तथा सर्वशक्तिमान परब्रहम में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति, ऋषियो मुनियों की समर्पण भाव से किये गये यज्ञ और तप की शक्ति से अनन्तकाल से संरक्षित है | यह पृथिवी हमारे भूत और भविष्य की साक्षी है और सहचरी है | यह हमारी आत्मा को इस लोक से उस दिव्य लोक की ओर ले जाए |
यह अपने पर्वतों, ढालानों तथा मैदानों के माध्यम से समस्त जीवों के लिए निर्बाध स्वतन्त्रता प्रदान करती हुई अनेकों औषधियों को धारण करती है | यह हमें समृद्ध और स्वस्थ बनाए रखे |
आदिकाल से हमारे पूर्वज इस पर विचरण करते रहे हैं | इस पर सत्व ने तमस को पराजित किया है | इस पर समस्त जीव जंतु और पशु आदि पोषण प्राप्त करते हैं | यह पृथिवी हमें समृद्धि तथा वैभव प्रदान करे |
हे माता, आपके पर्वत, हिमाच्छादित हिमश्रृंखलाएँ तथा घने वन घने जंगल हमें शीतलता तथा सुख प्रदान करें | अपने अनेक वर्णों के साथ आप विश्वरूपा हैं | आप ध्रुव की भाँति अचल हैं तथा इन्द्र द्वारा संरक्षित हैं | आप अविजित हैं अचल हैं और हम आपके ऊपर दृढ़ता से स्थिर रह सकते हैं |
अथर्ववेद के भूमि सूक्त से इन कुछ मन्त्रों को उद्धत करने से हमारा अभिप्राय मात्र यही था कि जिस पृथिवी को माता के सामान – देवी के समान पूजा जाता था – क्या कारण है कि आज उसी की सुरक्षा के लिए इस प्रकार के “पृथिवी दिवस” का आयोजन करने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई |
इसका कारण हम स्वयं हैं | पूरे विश्व में आज यानी 22 अप्रैल को विश्व पृथिवी दिवस मनाया जाता है | इसका आरम्भ 1970 में हुआ था तथा इसका उद्देश्य था जन साधारण को पर्यावरण के प्रति सम्वेदनशील बनाना | पृथिवी पर जो भी प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं उन सबके लिए मनुष्य स्वयं ज़िम्मेदार है – फिर चाहे वह ओजोन परत में छेद होना हो, भयंकर तूफ़ान या सुनामी हो, या आजकल जैसे कोरोना ने आतंक मचाया हुआ ऐसा ही किसी महामारी का आतंक – सब कुछ के लिए मानव स्वयं ज़िम्मेदार है | यदि ये आपदाएँ इसी प्रकार आती रहीं तो पृथिवी से समस्त जीव जन्तुओं का – समस्त वनस्पतियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा | इसी सबको ध्यान में रखते हुए पृथिवी दिवस मनाना आरम्भ किया गया |
आज पृथिवी के पर्यावरण में प्रदूषण के कारण पृथिवी का वास्तविक स्वरूप नष्ट होता जा रहा है | और इस प्रदूषण के प्रमुख कारणों से हम सभी परिचित हैं – जैसे जनसंख्या में वृद्धि, बढ़ता औद्योगीकरण, शहरीकरण में वृद्धि तथा यत्र तत्र फैलता जाता कचरा इत्यादि इत्यादि | पोलीथिन का उपयोग, ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण अनियमित होती ऋतुएँ और मौसम | आज हमें समाज की चिन्ता न होकर स्वयं की सुविधाओं की चिन्ता कहीं बहुत अधिक है | जैसे जैसे मनुष्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता जा रहा है वैसे वैसे पर्यावरण की ओर से उदासीन होता जा रहा है | अर्थात हम स्वयं ही पृथिवी के इस पर्यावरण के लिए ज़िम्मेदार हैं |
इस प्रकार हम तो यही कहेंगे कि पृथिवी दिवस केवल एक आयोजन की औपचारिकता मात्र तक सीमित न रहने देकर यदि हर दृष्टिकोण से परस्पर एकजुट होकर चिन्तन मनन किया जाए तथा प्रयास किया जाए तभी हम पृथिवी को पुनः उसी रूप में देखने में समर्थ हो सकेंगे | और यह कार्य केवल पृथिवी दिवस के दिन ही न करके अपनी दैनिक दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण अंग बना लें तभी हम अपनी धरती माँ का ऋण चुका सकेंगे |
(रेखा अस्थाना जी का संस्मरण… जब हम कोई वृक्ष रोपते हैं तो उसके साथ अपनी सन्तान के जैसा मोह हो जाना स्वाभाविक ही है… उसके फलने फूलने में कोई कमी रह
जाए तो मन उदास हो जाता है – उसी तरह जैसे अपनी सन्तान को कष्ट में देखकर होता है, और जब वो फलता फूलता है तो मन उसी प्रकार प्रफुल्लित हो उठता है जैसे अपनी सन्तान को सुखी देखकर होता है… यही भाव रेखा जी के इस संस्मरण में हैं… रेखा अस्थाना जी रिटायर्ड अध्यापिका हैं तथा हिन्दी की लब्धप्रतिष्ठ लेखिका और कवयित्री होने के साथ ही पर्यावरण के लिए भी कार्य कर रही हैं… डॉ पूर्णिमा शर्मा)
कवि हृदय की कमी आपको बता दूँ, वे कभी अपने मन के उदगार छिपा नहीं पाते | दुख हो या सुख, वे दूसरों को बताएँगे जरूर | एक तरह से ढोल होते हैं वे | जब तक बता न दें बेचैन रहते हैं वे | कोई सुनने वाला न मिले तो कागज पर ही मन की बात उतार देते हैं |
अब आइए मुद्दे की बात पर | मैं भी कुछ ऐसी ही हूँ | सारी हृदय की बातें जब तक कह न दूँ पेट में गैस बन जाती है | हुआ ऐसा कि मुझे पेड़ पौधों से बहुत लगाव है | बचपन से ही इनके बीच रहती आई हूँ | पेड़-पौधे की हर अवस्था को बारीकी से देखती व समझती हूँ | और जिस तरह बच्चे की हर क्रियाकलाप में आप उसे आशीष देते हैं मैं अपने इन पेड़ों को देती हूँ |
आज से लगभग ढाई बरस पूर्व मैंने एक सहजन का पौधा रोपा था | माली से ढाई सौ में खरीद कर | उसके पूर्व कई बार अनेक कटिंग सहजन की लगाई थी पर कोई न उगा |
यह लगाया हुआ पेड़ बड़ी तीव्र गति से पूरा वृक्ष बन गया | इसकी बढ़त देखकर मन झूम उठता | फिर इसकी छँटाई भी करवाई | पर ढाई बरस में फूला नहीं, मन उदास हो गया | भगवान से प्रार्थना कर रही थी |
अचानक फरवरी 2021 के प्रथम सप्ताह में जब प्रातः उठकर अपने छज्जे से सूर्यदेव को प्रणाम कर रही थी और दृष्टि सहजन के गाछ पर गयी तो फुनगियों पर कुछ गुलाबी मिश्रित नारंगी रंग के कलियों के गुच्छे दिखाई दिए |
मन में अचानक उछाह उठा | जल्दी से भीतर जाकर चश्मा उठा लाई और लगा कर बड़े ही प्यार से निहारने लगी और ईश्वर को कोटि- कोटि धन्यवाद दिया | सच बताऊँ कितनी खुशी हुई जैसे प्रथम बार किसी को माँ बनने की खबर पता चलती है उतनी ही खुशी इन कलियों को देखकर हुई |
मुझे अपने पोते को पहली बार जब देखकर मन प्रसन्न हुआ उसी प्रकार इन कलियों को निहार कर हुआ | अब तो रोज ही कलियों को निहारती हूँ और इनसे फूल बनने की प्रक्रिया भी देख रही हूँ | दोनों हाथ जोड़कर ईश्वर से आशीष माँगती हूँ | खूब फलो फूलो मेरे सहजन |तुम दुनिया की बुरी नज़र से बचे रहो|
इस प्रक्रिया को किसी को कह न पाई सो लिख दिया ताकि आप सब पढ़ सकें | और हाँ मेरे सहजन को आशीर्वाद जरूर देना…
आज वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्व है और हम सब माँ वाणी का अभिनन्दन करेंगे | माँ वाणी – सरस्वती – विद्या की – ज्ञान की देवी हैं | ज्ञान का अर्थ है शक्ति प्राप्त करना, सम्मान प्राप्त करना | ज्ञानार्जन करके व्यक्ति न केवल भौतिक जीवन में प्रगति कर सकता है अपितु मोक्ष की ओर भी अग्रसर हो सकता है | पुराणों में कहा गया है “सा विद्या या विमुक्तये” (विष्णु पुराण 1/19/41) अर्थात ज्ञान वही होता है जो व्यक्ति को मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करे | मोक्ष का अर्थ शरीर से मुक्ति नहीं है | मोक्ष का अर्थ है समस्त प्रकार के भयों से मुक्ति, समस्त प्रकार के सन्देहों से मुक्ति, समस्त प्रकार के अज्ञान – कुरीतियों – दुर्भावनाओं से मुक्ति – ताकि व्यक्ति के समक्ष उसका लक्ष्य स्पष्ट हो सके और उस लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग स्पष्ट हो सके | हम सब ज्ञान प्राप्त करके भय तथा सन्देहों से मुक्त होकर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकें इसी कामना के साथ सभी को वसन्त पञ्चमी और सरस्वती पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ…
अभी पिछले दिनों कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी | वसन्त के आगमन के साथ ही सर्दी में भी कुछ कमी सी है | और ऐसे सुहाने मौसम में ऋतुराज वसन्त के स्वागत में प्रकृति के कण कण को उल्लसित करता हुआ वसन्त पञ्चमी का अर्थात मधुऋतु का मधुमय पर्व…
कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से विभूषित किया जाता है |
कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैं | संस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता था | इस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थे | यह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमी जनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था | आज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नर-नारी बाल-वृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं |
इस सबके पीछे कारण यही है कि इस समय प्रकृति में बहुत बड़े परिवर्तन होते हैं | सर्दियों की विदाई हो जाती है… प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकर – अपनी समस्त सीमाएँ तोड़कर – प्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती है… जिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैं… और प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती है… इसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता है…
और संयोग देखिए कि आज ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है… यों निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 यानी माघ शुक्ल एकादशी को हुआ था… लेकिन प्रकृति के सरस गायक होने के कारण 1930 से वसन्त पञ्चमी को उनका जन्मदिवस मनाने की प्रथा आरम्भ हुई…
तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँ… इस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकें… ताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें…
संग फूलों की बरात लिए लो ऋतु वसन्त अब चहक उठी ||
कोयल की तान सुरीली सी, भँवरे की गुँजन रसभीनी
सुनकर वासन्ती वसन धरे, दुलहिन सी धरती लचक उठी |
धरती का लख कर नवयौवन, लो झूम उठा हर चरन चरन
हर कूल कगार कछारों पर है मधुर रागिनी झनक उठी ||
ऋतु ने नूतन श्रृंगार किया, प्राणों में भर अनुराग दिया
सुख की पीली सरसों फूली, फिर नई उमंगें थिरक उठीं |
पर्वत टीले वन और उपवन हैं झूम रहे मलयानिल से
लो झूम झूम कर मलय पवन घर द्वार द्वार पर महक उठी ||