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Dear all,

This is to inform you that we at WOW India, only held our annual award function in the name of Mr. A P J Abdul Kalam and we do not charge any single penny as the entry fees from the awardees.

Regards:

Dr. Sharda Jain, Chairperson WOW India

Dr. S Lakshmi Devi, President WOW India

Dr. Purnima Sharma, Secretary General WOW India

bookmark_borderGuru Vyas Purnima

Guru Vyas Purnima

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

गुरु पूर्णिमा

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
  नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:॥

ब्रह्मज्ञान के भण्डार, महर्षि वशिष्ठ के वंशज साक्षात भगवान विष्णु के स्वरूप महर्षि व्यास को हम नमन करते हैं और उन्हीं के साथ भगवान विष्णु को भी नमन करते हैं जो महर्षि व्यास का ही रूप हैं |

शनिवार 24 जुलाई को आषाढ़ पूर्णिमा यानी गुरु पूर्णिमा – जिसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है – का पावन पर्व है… सर्वप्रथम सभी गुरुजनों को नमन… कल 23 जुलाई को प्रातः दस बजकर तैंतालीस मिनट के लगभग आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा तिथि का उदय होगा जो शनिवार को प्रातः आठ बजकर छह मिनट तक रहेगी | जो लोग पूर्णिमा का व्रत रखते हैं उन्हें कल ही व्रत करना होगा – क्योंकि पारायण के समय पूर्णिमा तिथि का होना आवश्यक है | किन्तु सूर्योदय काल में पूर्णिमा तिथि 24 को होने के कारण व्यास पूजा शनिवार को ही की जाएगी |

पंचम वेद “महाभारत” के रचयिता कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास का जन्मदिन इसी दिन मनाया जाता है | महर्षि वेदव्यास को ही आदि गुरु भी माना जाता है इसीलिए व्यास पूर्णिमा और गुरु पूर्णिमा एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं | भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उप पुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव” की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है |

आषाढ़ मास की पूर्णिमा का महत्त्व बौद्ध समाज में भी गुरु पूर्णिमा के रूप में ही है | बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था | इसलिये बौद्ध धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं | साथ ही आषाढ़ मास की पूर्णिमा होने के कारण इसे आषाढ़ी पूर्णिमा भी कहा जाता है |

चातुर्मास का आरम्भ भी इसी दिन से हो जाता है | जैन मतावलम्बियों के लिए चातुर्मास का विशेष महत्त्व है | सभी जानते हैं कि अहिंसा का पालन जैन धर्म का प्राण है | क्योंकि इन चार महीनों में बरसात होने के कारण अनेक ऐसे जीव जन्तु भी सक्रिय हो जाते हैं जो आँखों से दिखाई देते | ऐसे में मनुष्य के अधिक चलने फिरने के कारण इन जीवों की हत्या अहो सकती है | इसीलिए जैन साधू इन चार महीनों में एक ही स्थान पर निवास करते हैं और स्वाध्याय आदि करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं |

मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका,

नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या ||

वास्तव में ऐसी श्रद्धा और प्रज्ञा से युत होती है गुरु की सत्ता – गुरु की प्रकृति – जो माता के सामान  ममत्व का भाव रखती है तो पिता के सामान उचित मार्गदर्शन भी करती है | अर्थात गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत जल से शिष्य के व्यक्तित्व की नींव को सींच कर उसे दृढ़ता प्रदान करता है और उसका रक्षण तथा विकास करता है | तो सर्वप्रथम तो समस्त गुरुजनों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ |

हमारे देश में पौराणिक काल से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा के रूप में मनाया जाता है | इस अवसर पर न केवल गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि

My First Guru My Parents
My First Guru My Parents

माता पिता तथा अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी | वैसे भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं |

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से प्रायः वर्षा आरम्भ हो जाती है और उस समय तो चार चार महीनों तक इन्द्रदेव धरती पर अमृत रस बरसाते रहते थे | आवागमन के साधन इतने थे नहीं, इसलिए उन चार महीनों तक अर्थात चातुर्मास की अवधि में सभी ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास करते थे | और इस प्रकार इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी | क्योंकि विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी, अर्थात लिखा हुआ पढ़कर कण्ठस्थ करने का विधान उस युग में नहीं था, बल्कि गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था | गुरु के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को न केवल स्मरण रहती थी, बल्कि उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी | इस समय मौसम भी अनुकूल होता था – न अधिक गर्मी न सर्दी | तो जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा फसल उपजाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य प्राप्त होती थी और उनके व्यक्तित्व की नींव दृढ़ होती थी जो उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती थी |

एक शिक्षक पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ जाता है देश के भविष्य को आकार देने का | शिक्षक ज्ञान का वह धरातल है जिससे ज्ञान और संस्कार का बीज प्रस्फुटित होकर संपूर्णता की सुवास से ओत-प्रोत वृक्ष बनता है | शिक्षक ज्ञान से मस्तिष्क की क्षुधा का शमन करते हैं – फिर चाहे वो प्रथम गुरु माता हों या पिता अथवा विद्या दान करने वाले शिक्षक | एक उत्तम शिक्षक सही ग़लत का भेद बताकर शिष्य के व्यक्तित्व को सँवारता है | क्योंकि ज्ञान के प्रकाश के बिना किसी भी जीव का जीवन अपूर्ण है | यही कारण है कि शिक्षक बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं | उन्नति के पथ पर ज्ञान का प्रकाश प्रसारित कर अज्ञान के मार्ग की ठोकरों से शिक्षक बचाता है तो मार्ग भटक जाने पर प्रताड़ना भी देता है और स्नेह की वर्षा कर संघर्षों की धूप से थकित मन को शीतलता भी प्रदान करता है | वह शून्य को शून्य से परिचित कराकर शून्य को समस्त के साथ जुड़ना सिखाता है ताकि वह शून्य विस्तार पा सके और उसके मनःपटल पर ज्ञान विज्ञान की विविध शाखाओं के तारक दल झिलमिला उठें |

आज बहुत सी समस्याएँ हैं शिक्षकों के सामने | महँगाई बढ़ती जा रही है, स्कूल कॉलेजेज में फीस तो बढ़ाई जाती है लेकिन उसमें से शिक्षाओं का वेतन कितना प्रतिशत बढ़ता है हमें नहीं मालूम | अभिभावक बढ़ी हुई फीस के विरोध में अपने स्वर मुखर कर रहे हैं | हमें याद है हमारे घर में पिताजी के पास और बाद में हमारे पास भी विद्यार्थी घर पर पढ़ने के लिए आया करते थे, क्योंकि हम लोगों ने सबको बोला हुआ था कि कुछ भी पूछना हो तो हमारे घर के दरवाज़े आपके लिए हर समय खुले हैं | लेकिन हम लोग, और उस समय के अधिकाँश शिक्षक – घर पर आने वाले स्टूडेंट्स से किसी प्रकार की फीस नहीं लिया करते थे | साथ में उन्हें चाय नाश्ता कराते थे सो अलग | इस तरह एक परिवार जैसा प्रतीत होता था छात्रों को भी और शिक्षकों को भी | इन्हीं सारी उदात्त भावनाओं के कारण शिक्षकों का सम्मान भी बहुत था |

आज समय बहुत बदल गया है | समय तो परिवर्तनशील है | किन्तु हमें अपने मूल्यों को नहीं खोना चाहिए… उन्हें नहीं भुला देना चाहिए… बस यही प्रार्थना समस्त शिक्षक वर्ग से भी और छात्र वेग से भी तथा उनके अभिभावकों से भी हमारी है… क्योंकि गुरु कभी चाणक्य बन नन्द वंश के अहंकारी राजा घनानन्द से मगध की मुक्ति के लिए चंदगुप्त सरीखा अनुशासित शिष्य विकसित करता है तो कभी किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को गीता का उपदेश भी देता है… किन्तु इसके लिए शिष्य को भी चन्द्रगुप्त और अर्जुन के समान होना होगा… गुरु की ऊर्जा वास्तव में अन्तहीन आकाश के समान है और उत्तुंग पर्वत शिखरों से भी ऊँची है गुरु की गरिमा… तभी तो एक पत्थर को प्रतिपल गढ़ते रहकर आकर्षक और ज्ञान विज्ञान से युक्त भव्य मूर्ति का निर्माण कर देते हैं…

गुरु केवल शिष्य को उसका लक्ष्य बताकर उस तक पहुँचने का मार्ग ही नहीं प्रशस्त करता अपितु उसकी चेतना को अपनी चेतना के साथ समाहित करके लक्ष्य प्राप्ति की

My Yoga Guru Swami Vedabharti Ji
My Yoga Guru Swami Vedabharti Ji

यात्रा में उसका साथ भी देता है | गुरु और शिष्य की आत्माएँ जहाँ एक हो जाती हैं वहाँ फिर अज्ञान के अन्धकार के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | और गुरु के द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान कबीर के अनुसार गोविन्द यानी ईश्वर प्राप्ति यानी अपनी अन्तरात्मा के दर्शन का मार्ग है… इसलिए गुरु की सत्ता ईश्वर से भी महान है…

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय |

बलिहारी गुरु आपने जिन गोबिंद दियो बताए ||

तो, समस्त शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए एक बार पुनः सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ… हम सभी समस्त गुरुजनों के चरणकमलों में सादर अभिवादन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें… जय गुरुदेव…

____________________कात्यायनी…

bookmark_borderTree plantation of Vedic period is still contemporary

Tree plantation of Vedic period is still contemporary

वैदिक काल की पर्यावरण सुरक्षा आज भी प्रासंगिक

कल पर्यावरण दिवस है – अच्छी और सन्तोष की बात है कि हम सब पर्यावरण के प्रति इतने जागरूक हैं | लेकिन एक बात समझ में नहीं आती, कि एक ही दिन या एक ही

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

सप्ताह के लिए पर्यावरण की याद क्यों आती है – जबकि हमारा पर्यावरण अनुकूल बना रहे, सुरक्षित रहे इसके विषय में तो बच्चे बच्चे को जानकारी होनी चाहिए | आज फिर से अपना एक पुराना लेख दोहरा रहे हैं…

हम सभी जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व पर्यावरण दिवस विश्व भर में मनाया जाता है, और इसका मुख्य उद्देश्य है इस ओर राजनीतिक और सामाजिक जागृति उत्पन्न करना | लेकिन यहाँ हम इसके इतिहास पर नहीं जाना चाहते | असली बात है कि पर्यावरण को प्रदूषण से किस प्रकार बचाया जाए | पर्यावरण प्रदूषित होता है तो समूची प्रकृति पर उसका हानिकारक प्रभाव होता है | इण्डस्ट्रीज़ से निकले रसायनों के पानी में घुल जाने के कारण पानी न तो पीने योग्य ही रहता है और न ही इस योग्य रहता है कि उनसे खेतों में पानी दिया जा सके – क्योंकि वो सारा ज़हर फ़सलों में घुल जाएगा | पेड़ों के अकारण ही कटने से कहीं भू स्खलन, कहीं बाढ़ तो कभी भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ता है | अभी पिछले दिनों विश्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद सबके प्रिय श्री सुन्दर लाल बहुगुणा जी हमारे मध्य नहीं रहे, उनका चिपको आन्दोलन इस बात का जीता जागता प्रमाण है जिन्होंने इस आन्दोलन के माध्यम से इस दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं |

यदि हम थोड़ी समझदारी से काम लें तो काफी हद तक पर्यावरण की समस्या से मुक्ति मिल सकती है | जैसे कि पोलीथिन के पैकेट्स पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं | ज़मीन पर जिस जगह इन्हें फेंका जाए वहाँ घास तक नहीं उत्पन्न हो सकती | इसे जलाया नहीं जा सकता | तो अच्छा हो कि इसका जितना हो सके कम उपयोग किया जाए | लेकिन आजकल जितनी भी वस्तुएँ बाज़ार में पैकेट्स में उपलब्ध होती हैं वे सभी अधिकाँश में प्लास्टिक या पोलीथिन में ही पैक होती हैं | इतना ही नहीं, लोग बाहर घूमने जाते हैं तो चिप्स, चोकलेट, पान मसाला आदि के ख़ाली पैकेट्स यों ही ज़मीन पर फेंक देते हैं | पिकनिक की जगहों पर तो डस्टबिन रखे होने पर भी जहाँ तहाँ ये कूड़ा फैला मिल जाएगा | इससे गन्दगी तो होती ही है, साथ ही मिट्टी को भी नुकसान पहुँचता है |

इसी तरह घरों में पंखे बिजली आदि अकारण ही चलते छोड़ देते हैं | “अर्थ डे” पर एक सामाजिक या राजनीतिक पर्व की भाँती रात में एक घंटे के लिए बिजली की सारी चीज़ें बन्द रखने की रस्म अदायगी हो जाती है – और वो भी हर कोई नहीं करता, काफ़ी लोग तो इस पर ध्यान ही नहीं देते | इस दिन और इसके आगे पीछे बिजली कैसे बचाएँ इस विषय पर गोष्ठियों में लोग अपने अपने विचार प्रस्तुत कर देते हैं | लेकिन “अर्थ डे” का समारोह समाप्त हो जाने के बाद फिर वही ढाक के तीन पात | क्योंकि हमारी मानसिकता तो वही है |

तो ये सब बातें तो होती ही रहेंगी – पर्यावरण दिवस और धरती दिवस यानी अर्थ डे भी मनाए जाते रहेंगे, लेकिन इन सब बातों से भी अधिक आवश्यक है वृक्षों के प्रति उदार होना | जितने अधिक वृक्ष होंगे उतनी ही स्वच्छ प्राकृतिक वायु उपलब्ध होगी और वातावरण में घुले ज़हर से काफ़ी हद तक बचाव हो पाएगा |

समय समय पर अनेकों प्रयास इसके लिए किये जाते रहते हैं | कभी पता चलता है कि “ग्रीन कैंपेन” के माध्यम से देश के कई भागों में हरियाली में वृद्धि करने का प्रयास किया जा रहा है | कुछ वर्ष पूर्व कई विद्यालयों में ईको क्लब भी बनाए गए थे, ताकि बच्चों में स्वस्थ पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनी रहे | अक्सर सरकारी स्तर पर और गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी पर्यावरण को बचाने के लिये वृक्षारोपण के कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है | लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें सब कुछ सरकार अथवा समाजसेवी संगठनों पर ही छोड़ देना चाहिये ? क्या देश के हर नागरिक का कर्तव्य नहीं कि वृक्षों की देखभाल अपनी सन्तान के समान करें और वैसा ही स्नेह उन्हें दें ?

इसके लिए हमें अपने वैदिक युग की ओर घूम कर देखना होगा | भारतवासियों को तो गर्व था अपने देश के प्राकृतिक सौन्दर्य पर | भारत की भूमि में जो प्राकृतिक सुषमा है उस पर भारतीय मनीषियों का आदिकाल से अनुराग रहा है | आलम्बन उद्दीपन, बिम्बग्रहण, उपदेशग्रहण, आलंकारिकता आदि के लिये सभी ने इसके पर्वत, सरिता, वन आदि की ओर दृष्टि उठाई है | इन सबसे न केवल वे आकर्षित होते थे, अपितु अपने जीवन रक्षक समझकर इनका सम्मान भी करते थे | वनों के वृक्षों से वे पुत्र के समान स्नेह करते थे | पुष्पों को देवताओं को अर्पण करते थे | वनस्पतियों से औषधि प्राप्त करके नीरोग रहने का प्रयत्न करते थे | क्या कारण है कि जिन वृक्षों को हमारे ऋषि मुनि, हमारे पूर्वज इतना स्नेह और सम्मान प्रदान करते थे उन्हीं पर अत्याचार किया जा रहा है ?

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर विचार करते समय सबसे पहले सोचना है कि पर्यावरण की समस्या के कारण क्या हैं |  प्रगतिशीलता के इस वैज्ञानिक युग में समय की माँग के साथ डीज़ल पैट्रोल इत्यादि से चलने वाले यातायात के साधन विकसित हुए हैं | दिल्ली सरकार ने इसी को देखते हुए ऑड ईवन का सिलसिला चलाया है, पर ये कितना कारगर है इसके विषय में फिलहाल अभी कुछ नहीं कहना | मिलों कारखानों आदि में वृद्धि हुई है | एक के बाद एक गगनचुम्बी बहुमंज़िले भवन बनते जा रहे हैं | मिलों कारखानों आदि से उठता धुआँ वायुमण्डल में घुलता चला जाता है और पर्यावरण को अपना शिकार बना लेता है | हरियाली के अभाव तथा बहुमंज़िले भवनों के कारण स्वच्छ ताज़ी हवा न जाने कहाँ जाकर छिप जाती है | निरन्तर हो रही वनों की कटाई से यह समस्या दिन पर दिन गम्भीर होती जा रही है | यद्यपि जनसंख्या वृद्धि के कारण लोगों को रहने के लिये अधिक स्थान की आवश्यकता है | और इसके लिये वनों की कटाई भी आवश्यक है | अभी भी बहुत से गाँवों में लकड़ी पर ही भोजन पकाया जाता है | भवन निर्माण में भी लकड़ी की आवश्यकता होती ही है | इस सबके लिये वृक्षों का काटना युक्तियुक्त है | किन्तु जिस अनुपात में वृक्ष काटे जाएँ उसी अनुपात में लगाए भी तो जाने चाहियें | लक्ष्य होना चाहिये कि हर घर में जितने बच्चे हों अथवा जितने सदस्य हों कम से कम उतने तो वृक्ष लगाए जाएँ |

प्राचीन काल में भी भवन निर्माण में लकड़ी का उपयोग होता था | लकड़ी भोजन पकाने के लिये ईंधन का कार्य भी करती थी | और यज्ञ कार्य तो लकड़ी के बिना सम्भव ही नहीं था | फिर भी स्वस्थ पर्यावरण था | समस्त वैदिक साहित्य तथा पुराणों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उस काल में पर्यावरण की समस्या थी ही नहीं | उस समय लोगों ने कभी यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भविष्य में कभी पर्यावरण प्रदूषित भी हो सकता है | उस समय धुआँ उगलने वाले वाहन नहीं थे | उनके स्थान पर थे बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, रथ इत्यादि | मिलों कारखानों के स्थान पर समस्त वस्तुएँ हाथ से ही बनाई जाती थीं | इतनी अधिक बहुमंज़िली इमारतें नहीं थीं | और ये सब आज की जनसँख्या की विस्फोटक वृद्धि को देखते हुए अव्यावहारिक ही प्रतीत होता है | क्योंकि इतने अधिक लोगों की नित्य प्रति की आवश्कताओं की पूर्ति के लिये हाथ से वस्तुएँ बनाई गईं तो कार्य की गति धीमी होगी और अनगिनती लोग अपनी आवश्यक वस्तुओं से वंचित रह जाएँगे | साथ ही इतनी बड़ी जनसँख्या तक उनकी दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ पहुँचाने के लिये भी तेज़ गति से चलने वाले वाहनों की ही आवश्यकता है, न कि बैलगाड़ी आदि की | इतने अधिक लोगों के निवास की भी आवश्यकता है अतः बहुमंज़िली इमारतों के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प भी नहीं है | लोग उस समय सादा व शान्त जीवन जीने के आदी थे | आज की तरह दौड़ भाग उस समय नहीं थी | जनसँख्या सीमित होने के कारण लोगों के निवास की समस्या भी उस समय नहीं थी | इस प्रकार किसी भी रूप में पर्यावरण प्रदूषण से लोग परिचित नहीं थे | फिर भी उस समय का जनसमाज वृक्षारोपण के प्रति तथा उनके पालन के प्रति इतना जागरूक था, इतना सचेत था कि वृक्षों के साथ उसने भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे | यही कारण था कि भीष्म ने मुनि पुलस्त्य से प्रश्न किया था कि “पादपानां विधिं ब्रह्मन्यथावद्विस्तराद्वद | विधिना येन कर्तव्यं पादपारोपणम् बुधै ||” अर्थात हे ब्रह्मन् ! मुझे वह विधि बताइये जिससे विधिवत वृक्षारोपण किया जा सके | – पद्मपुराण २८-१

भीष्म के इस प्रश्न के उत्तर में पुलस्त्य ने वृक्षारोपण तथा उनकी देखभाल की समस्त विधि बताई थी | जिसके अनुसार विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना करके वृक्षों को आरोपित किया जाता था | इस पूजन में एक विशेष बात यह होती थी कि चार हाथ की वेदी चारों ओर से तथा सोलह हाथ का मण्डल बनाया जाता था | उसके मध्य में वृक्षारोपण किया जाता था | जिस प्रकार घर में सन्तानोत्पत्ति के अवसर पर माँगलिक कार्य, उत्सव इत्यादि होते हैं, उसी प्रकार वृक्षारोपण के समय भी उत्सव होते थे | कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तान के समान वृक्षों को संस्कारित किया जाता था | वृक्षों को वस्त्र-माला-चन्दनादि समर्पित करके उनका पूजन किया जाता था | उसके पश्चात् उनका कर्णवेधन किया जाता था जिसके लिये उनके पत्ते में सूई से छेद करते थे | उसके बाद धूप दीप आदि से सुवासित किया जाता था | पयस्विनी गौ को वृक्षों के मध्य से निकाला जाता था | वैदिक मंत्रोच्चार के साथ हवन किया जाता था | यह उत्सव चार दिन तक चलता था | उसके पश्चात् प्रतिदिन प्रातः सायं देवताओं के समान वृक्षों की भी पूजा अर्चना की जाती थी |

सम्भवतः विधि विधान पूर्वक वृक्षारोपण तथा नियमित वृक्षार्चन आज की व्यस्त जीवन शैली को देखते हुए हास्यास्पद प्रतीत हो – किन्तु सामयिक अवश्य है | पद्मपुराण के उपरोक्त सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि उस काल में पर्यावरण के प्रति जनसमाज कितना जागरूक था | वृक्षों का विधिपूर्वक आरोपण करके, सन्तान के समान उन्हें संस्कारित करके देवताओं के समान प्रतिदिन उनकी अर्चना का विधान कोरे अन्धविश्वास के कारण ही नहीं बनाया गया था – अपितु उसका उद्देश्य था जनसाधारण के हृदयों में वृक्षों के प्रति स्नेह व श्रद्धा की भावना जागृत करना | स्वाभाविक है कि जिन वृक्षों को आरोपित करते समय सन्तान के समान माँगलिक संस्कार किये गए हों उन्हें अपने किसी भी स्वार्थ के लिये मनुष्य आघात कैसे पहुँचा सकता है ? वह तो सन्तान के समान प्राणपण से उन वृक्षों की देखभाल ही करेगा | देवताओं के समान जिन वृक्षों की नियमपूर्वक श्रद्धाभाव से उपासना की जाती हो उन्हें किसी प्रकार की क्षति पहुँचाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता | वेदी व मण्डल बनाने का उद्देश्य भी सम्भवतः यही था कि लोग आसानी से वृक्षों तक पहुँच न सकें | उस समय वनों की सुरक्षा तथा पर्यावरण के प्रति जागरूकता किसी दण्ड अथवा जुर्माने के भय से नहीं थी – अपितु वृक्षों के प्रति स्वाभाविक वात्सल्य ए़वं श्रद्धा के कारण थी |

नाना प्रकार के वृक्षों के आरोपण से अनेक प्रकार के सुफल प्राप्त होते है ऐसी पुराणों की मान्यता है | जैसे पीपल के वृक्ष से धन की प्राप्ति होती है, अशोक शोकनाशक है, पलाश यज्ञफल प्रदान करता है, क्षीरी आयुवर्द्धक है, जम्बुकी कन्यारत्न प्रदान करता है, दाडिमी को स्त्रीप्रद बताया गया है | कहा गया है कि बड़े वृक्ष जैसे वट, पीपल, आम, इमली और शाल्मली आदि लगाना अत्यन्त सौभाग्यकारक है | उष्णकाल में प्राणीमात्र इनकी छाया में विश्राम करते हैं – जिससे इन वृक्षों को लगाने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है | इनको देखने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं | इसीलिये बड़ी छाया वाले वृक्षों का रोपण श्रेयस्कर है | इसके अतिरिक्त जो लोग मार्गों में वृक्ष लगाते हैं वे वृक्ष उनके घर पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं | जो इन वृक्षों की छाया में बैठते हैं वे इन वृक्ष लगाने वालों के सहायक व मित्र बन जाते हैं | वृक्षों के पुष्पों से देवताओं को तथा फलों से अतिथियों को प्रसन्न किया जाता है – “वृक्षप्रदो वृक्षप्रसूनैर्देवान् प्रीणयति, फलैश्चातिथीन्, छायया चाभ्यागतान् |” विष्णुस्मृतिः – ९१

वृक्ष भले ही पुत्ररूप में उत्पन्न न होते हों, किन्तु वृक्षारोपण करने वाला उन्हें पुत्रवत् स्नेह अवश्य करता था | वृक्षों की छाया में बैठने वाले भले ही वृक्षारोपण करने वालों के नाम तक न जानते हों, किन्तु उनके लिये शुभकामनाएँ अवश्य करते थे और इस प्रकार अनजाने ही मित्र बन जाते थे | कितना भावनात्मक तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध था मनुष्य व वृक्षों के मध्य | इसीलिये वृक्ष सुरक्षित थे | और वृक्षों की सुरक्षा के कारण पर्यावरण सुरक्षित था | कुछ वृक्ष जैसे तुलसी आँवला आदि के महत्व को आज भी स्वीकार किया जाता है | ये सारी ही बातें किसी भावुकता अथवा अन्धविश्वास के कारण ही नहीं कही गई हैं | इन सबका उद्देश्य था जनसाधारण के हृदयों में वृक्षों के प्रति श्रद्धा, सम्मान व स्नेह की भावना जागृत करना जिससे कि वृक्षों पर किसी प्रकार का अत्याचार न हो सके और पर्यावरण स्वस्थ रहे |

आज वृक्षों की कटाई रोकने के लिये दण्ड का विधान होते हुए भी कटाई चोरी छिपे होती अवश्य है जहाँ हरे भरे वृक्ष राही को छाया प्रदान करते थे आज वहाँ सूखे अथवा अधकटे वृक्ष दिखाई देते हैं | पर्वतश्रंखलाएँ जो हरी भरी हुआ करती थीं आज नग्न होती जा रही हैं | एक ओर कारखानों की बढ़ती संख्या तथा यातायात के बढ़ते साधनों – जो कि आज के जीवन के लिये अत्यावश्यक भी है – से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, तो दूसरी ओर हम स्वयं वनों व पर्वतों का चीरहरण करने में लगे हुए हैं | यही कारण है कि जाड़ा गर्मी बरसात सारे ही मौसम बदल चुके हैं | कालिदास ने ऋतुओं का जो स्वरूप देखकर ऋतुसंहार की रचना की थी आज कहाँ है ऋतुओं का वह स्वरूप ?

अतः, उपसंहार के रूप में यही कहना चाहेंगे कि समाज तथा राष्ट्र की प्रगति के लिये एक ओर जहाँ ये मिलें, ये कारखाने, ये वाहन आवश्यक हैं, जनसँख्या की वृद्धि के कारण जहाँ हर व्यक्ति के सर पर साया करने के लिये भू भाग की कमी के कारण गगनचुम्बी इमारतों की भी आवश्यकता है – वहीं दूसरी ओर इनके दुष्परिणाम – पर्यावरण प्रदूषण से बचने के लिये नए वृक्ष लगाना तथा उनकी उचित देखभाल करना भी उतना ही आवश्यक है | ताकि उनकी स्वच्छ ताज़ी हवा वातावरण में घुले हुए विष को कम कर सके | और यह कार्य केवल सरकार तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता | न ही केवल स्वयंसेवी संगठनों के कन्धों पर इतना बड़ा भार डाला जा सकता है | और न ही यह कार्य किसी दण्ड अथवा जुर्माने के भय से सम्भव है | इसके लिये आवश्यक है कि बच्चे बच्चे को इस बात की जानकारी दी जाए कि वृक्ष हमारे लिये कितने उपयोगी हैं | प्राणवायु, ईंधन, भवन निर्माण हेतु लकड़ी तथा रोगों के निदान के लिये औषधि सभी कुछ तो वृक्षों से प्राप्त होता है | कागज़ कपड़ा भी इन्हीं की देन है | अतः आवश्यकता है जनमानस में वृक्षों के प्रति वही श्रद्धा तथा वही स्नेह की भावना विकसित करने की जो हमारे पूर्वजों के हृदयों में थी |

____________________कात्यायनी 

bookmark_borderHappy Buddha Purnima

Happy Buddha Purnima

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ 

“स्त्री तब तक “चरित्रहीन” नहीं हो सकती, जब तक पुरुष “चरित्रहीन” न हो | आज हम जो कुछ भी हैं वो हमारी आज तक की सोच का परिणाम है | इसलिए अपनी सोच ऐसी बनानी चाहिए ताकि क्रोध न आए | क्योंकि हमें अपने क्रोध के लिए दण्ड नहीं मिलता, अपितु क्रोध के कारण दण्ड मिलता है | क्रोध एक ऐसा जलता हुआ कोयला है जो दूसरों पर फेंकेंगे तो पहले हमारा हाथ ही जलाएगा | यही कारण है कि हम कितने भी युद्धों में विजय प्राप्त कर लें, जब तक हम स्वयं को वश में नहीं कर सकते तब तक हम विजयी नहीं कहला सकते | इसलिए सर्वप्रथम तो अपने शब्दों पर ध्यान देना चाहिए | भले ही कम बोलें, लेकिन ऐसी वाणी बोलें जिससे प्रेम और शान्ति का सुगन्धित समीर प्रवाहित हो | हम कितनी भी आध्यात्म की बातें पढ़ लें या उन पर चर्चा कर लें, कितने भी मन्त्रों का जाप कर लें, लेकिन जब तक हम उनमें निहित गूढ़ भावनाओं को अपने जीवन का अंग नहीं बनाएँगे तब तक सब व्यर्थ है | इस सबके साथ ही हमें अपने अतीत के स्मरण और भविष्य की चिन्ताओं को भुलाकर अपना वर्तमान सुखद बनाने का प्रयास करना चाहिए | क्योंकि संसार दुखों का घर है, दुख का कारण वासनाएँ हैं, वासनाओं को मारने से दुख दूर होते हैं, वासनाओं को मारने के लिए मानव को अष्टमार्ग अपनाना चाहिये, अष्टमार्ग अर्थात – शुद्ध ज्ञान, शुद्ध संकल्प, शुद्ध वार्तालाप, शुद्ध कर्म, शुद्ध आचरण, शुद्ध प्रयत्न, शुद्ध स्मृति और शुद्ध समाधि”…

इस प्रकार की जीवनोपयोगी और व्यावहारिक शिक्षाएँ देने वाले भगवान बुद्ध का आज वैशाख पूर्णिमा को जन्मदिवस (जो सिद्धार्थ गौतम के रूप में था) भी है, बुद्धत्व प्राप्ति (जिस दिन दीर्घ तपश्चर्या के बाद सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बने) का दिन भी है और महानिर्वाण (मोक्ष) दिवस भी है | यों कल प्रातः सूर्योदय के बाद 6:38 पर पूर्णिमा तिथि का आगमन हो चुका है, इसलिए उपवास की पूर्णिमा कल थी, किन्तु उदया तिथि होने के कारण बुद्ध पूर्णिमा का पर्व आज मनाया जा रहा है | सर्वप्रथम बुद्ध पूर्णिमा की सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ | बुद्ध न केवल बौद्ध सम्प्रदाय के ही प्रवर्तक हैं अपितु भगवान विष्णु के नवम अवतार के रूप में भी भगवान बुद्ध की पूजा अर्चना की जाती है |

अब हम बुद्ध के उपरोक्त कथन पर बात करते हैं | व्यक्ति के आत्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास के लिए बुद्ध ने शुद्ध ज्ञान, शुद्ध संकल्प, शुद्ध वार्तालाप, शुद्ध कर्म, शुद्ध आचरण, शुद्ध प्रयत्न, शुद्ध स्मृति और शुद्ध समाधि के अष्टमार्ग के साथ साथ पाँच बातें और कही हैं कि मनसा वाचा कर्मणा अहिंसा का पालन करना चाहिए, जब तक कोई अपनी वस्तु प्रेम और सम्मान के साथ हमें न दे तब तक उससे पूछे बिना वह वस्तु नहीं लेनी चाहिए, किसी भी प्रकार के दुराचार अथवा व्यभिचार से बचना चाहिए, असत्य सम्भाषण नहीं करना चाहिए और मादक पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए |

इन उपदेशों के पीछे भावना यही थी कि व्यक्ति को एक ऐसा मार्ग दिखा सकें जिस पर चलकर वह सांसारिक कर्तव्य करते हुए आत्मोत्थान के मार्ग पर अग्रसर होकर मोक्ष अर्थात पूर्ण ज्ञान की स्थिति को प्राप्त हो जाए | व्यक्ति को स्वयं ही उसके देश-काल-परिस्थिति का पूर्ण सत्यता और ईमानदारी से आकलन करके यह निश्चित करना होगा कि क्या उसके लिए उचित है और क्या अनुचित | किन्तु इतना अवश्य है कि बुद्ध के उपदेशों की आत्मा को यदि मानवमात्र ने आत्मसात कर लिया तो हर प्रकार के छल, कपट, युद्ध आदि से संसार को मुक्ति प्राप्त हो सकेगी और शान्त तथा आनन्दित हुआ मानव अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा – अध्यात्म मार्ग अर्थात स्वयं अपने भीतर झाँकने का मार्ग – स्वयं अपनी आत्मा से साक्षात्कार करने का मार्ग | और समस्त भारतीय दर्शनों की मूलभूत भावना यही है |

उदाहरण के लिए बुद्ध ने कायिक, वाचिक, मानसिक किसी भी प्रकार की हिंसा को अनुचित माना है | लेकिन जो लोग सेना में हैं – देश की सुरक्षा के लिए जो कृतसंकल्प हैं – आततायियों को नष्ट करने का उत्तरदायित्व जिनके कन्धों पर है – उनके लिए उस प्रकार की हिंसा ही उचित और कर्तव्य कर्म है, यदि वे पूर्ण रूप से अहिंसा का मार्ग अपना लेंगे तो न केवल वे कायर कहलाएँगे, बल्कि देश की सुरक्षा भी नहीं कर पाएँगे |

बुद्ध ने दुराचार और व्यभिचार से बचने की बात कही | आज जिस प्रकार से महिलाओं – यहाँ तक कि छोटी बच्चियों – के साथ दुराचार और व्यभिचार की दिल दहला देने वाली घटनाएँ सामने आ रही हैं – यदि अपने घरों में ही हम परिवार का केन्द्र बिन्दु – समाज की आधी आबादी – नारी शक्ति का सम्मान करना सीख जाएँ तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है | यहाँ बुद्ध की एक कथा का उदाहरण प्रस्तुत है कि एक बार भ्रमण करते हुए बुद्ध एक गाँव में पहुँचे तो वहाँ एक स्त्री उनसे मिलने के लिए आई और बोली “आप देखने में तो राजकुमार लगते हैं लेकिन वस्त्र आपने सन्यासियों के पहने हैं | इसका कारण ?”

बुद्ध ने उत्तर दिया “हमारा यह युवा और आकर्षक शरीर क्यों बीमार और वृद्ध होकर अन्त में काल के गाल में समा जाता है इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए मैंने सन्यास लिया है…” स्त्री उनकी बातों से प्रभावित हुई और उन्हें अपने घर भोजन के लिए निमन्त्रित किया | ग्रामवासियों को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने बुद्ध से कहा कि वे उस स्त्री के घर भोजन के लिए न जाएँ क्योंकि वह चरित्रहीन है | बुद्ध ने जब प्रमाण माँगा तो गाँव के मुखिया ने कहा “मैं शपथ लेकर कहता हूँ यह स्त्री चरित्रहीन है…” बुद्ध ने मुखिया का एक हाथ पकड़ लिया और उसे ताली बजाने को कहा | मुखिया ने कहा “मैं एक हाथ से ताली कैसे बजा सकता हूँ ?” तब बुद्ध ने कहा “अगर तुम एक हाथ से ताली नहीं बजा सकते तो फिर यह स्त्री अकेली कैसे चरित्रहीन हो सकती है | किसी भी स्त्री को चरित्रहीन बनाने के लिए पुरुष उत्तरदायी है | यदि पुरुष चरित्रवान होगा तो भला स्त्री कैसे चरित्रहीन हो सकती है ?” यही बात यदि हम अपने घर के बच्चों को संस्कार के रूप में सिखाना आरम्भ कर दें तो महिलाओं के प्रति अत्याचार जैसी भयावह स्थिति से बहुत सीमा तक मुक्ति प्राप्त हो सकती है |

बुद्ध ने मदाक पदार्थों से बचने की बात कही – तो क्या केवल नशीली वस्तुओं का सेवन ही मादक पदार्थों का सेवन है ? दूसरों की चुगली करना, आत्मतुष्टि के लिए दूसरों के

Buddha Purnima
Buddha Purnima

कार्यों में विघ्न डालना इत्यादि ऐसी अनेकों बातें हैं कि जिनकी लत पड़ जाए तो कठिनाई से छूटती है – इस प्रकार के नशों का भी त्याग करने के लिए बुद्ध प्रेरणा देते हैं | हम सभी दोनों “कल” की चिन्ता करते रहते हैं और “आज” को लगभग भुला ही देते हैं | बीते “कल” का कुछ किया नहीं जा सकता, अतः हमें उसे भुलाकर “आज” पर गर्व करना सीखना होगा… विश्वास कीजिए, आने वाला “कल” स्वतः ही अनुकूल हो जाएगा…

तो, देश काल और परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपने लिए उचित-अनुचित का निर्धारण करना चाहिए | हाँ, इतना प्रयास अवश्य करना चाहिए कि हमारे कर्म ऐसे हों कि जिन्हें करने के बाद हमारे मन में किसी प्रकार के अपराध बोध अथवा पश्चात्ताप की भावना न आने पाए | क्योंकि यदि हमारे मन में किसी बात के लिए अपराध बोध आ गया या किसी प्रकार के पश्चात्ताप की भावना आ गई तो हमें स्वयं से ही घृणा होने लगेगी और तब हम किस प्रकार सुखी रह सकते हैं ? स्वयं को दुखी करना भी एक प्रकार की हिंसा ही तो है | जो व्यक्ति स्वयं ही दुखी होगा वह दूसरे लोगों को सुख किस प्रकार पहुँचा सकता है ? जबकि बुद्ध के इन उपदेशों का मूलभूत उद्देश्य ही है मानव मात्र की प्रसन्नता – मानव मात्र का सुख…

अस्तु, बुद्धम् शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि ।।

बुद्ध अर्थात् अपनी चैतन्य आत्मा की साक्षी में रहते हुए, धर्म अर्थात अपने यथोचित कर्तव्यों का पालन करते हुए, संघ अर्थात समुदाय – समाज – देश – विश्व – समस्त ब्रह्माण्ड – इस समस्त चराचर जगत के प्रति उत्तरदायी रहकर सभी के हितों की चिन्ता करते हुए – सभी के प्रति समभाव रखते हुए – करुणा का भाव रखते हुए और बुद्ध के दिखाए मार्ग पर चलते हुए हम सभी सुखी रहें, शान्तचित्त रहें, सबके प्रति हमारा प्रेमभाव बना रहे, इसी भावना के साथ सभी को बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ…

____________कात्यायनी 

 

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Akshaya Tritiya

अक्षय तृतीया का अक्षय पर्व

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः

ॐ जमदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात

कल यानी शुक्रवार 14 मई को वैशाख शुक्ल तृतीय अर्थात अक्षय तृतीया का अक्षय पर्व है, जिसे भगवान् विष्णु के छठे अवतार परशुराम के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है | तृतीया तिथि का आरम्भ प्रातः पाँच बजकर चालीस मिनट के लगभग होगा और पन्द्रह मई को प्रातः आठ बजे तक तृतीया तिथि रहेगी | तिथि के आरम्भ में गर करण और धृति योग है तथा सूर्य, शुक्र और शनि अपनी अपनी राशियों में गोचर कर रहे हैं | साथ ही चौदह मई को ही रात्रि में ग्यारह बजकर बीस मिनट के लगभग भगवान भास्कर भी वृषभ राशि में प्रस्थान कर जाएँगे | तो, सर्वप्रथम सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ…

यों तो हर माह की दोनों ही पक्षों की तृतीया जया तिथि होने के कारण शुभ मानी जाती है, किन्तु वैशाख शुक्ल तृतीया स्वयंसिद्ध तिथि मानी जाती है | पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं उनका अक्षत अर्थात कभी न समाप्त होने वाला शुभ फल प्राप्त होता है | भविष्य पुराण तथा अन्य पुराणों की मान्यता है कि भारतीय काल गणना के सिद्धान्त से अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग और त्रेतायुग का आरम्भ हुआ था जिसके कारण इस तिथि को युगादि तिथि – युग के आरम्भ की तिथि – माना जाता है |

साथ ही पद्मपुराण के अनुसार यह तिथि मध्याह्न के आरम्भ से लेकर प्रदोष काल तक अत्यन्त शुभ मानी जाती है | इसका कारण भी सम्भवतः यह रहा होगा कि पुराणों के अनुसार भगवान् परशुराम का जन्म प्रदोष काल में हुआ था | परशुराम के अतिरिक्त भगवान् विष्णु ने नर-नारायण और हयग्रीव के रूप में अवतार भी इसी दिन लिया था | ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतार भी इसी दिन माना जाता है | पवित्र नदी गंगा का धरती पर अवतरण भी इसी दिन माना जाता है | माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डवों को वनवास की अवधि में अक्षत पात्र भी इसी दिन दिया था – जिसमें अन्न कभी समाप्त नहीं होता था | माना जाता है कि महाभारत के युद्ध और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था तथा महर्षि वेदव्यास ने इसी दिन महान ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत की रचना आरम्भ की थी |

जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया का महत्त्व माना जाता है | प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को उनके वर्षीतप के सम्पन्न होने पर उनके पौत्र श्रेयाँस ने इसी दिन गन्ने के रस के रूप में प्रथम आहार दिया था | श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार किया था | सत्य और अहिंसा के प्रचार करते करते आदिनाथ हस्तिनापुर पहुँचे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था | वहाँ सोमयश के पुत्र श्रेयाँस ने इन्हें पहचान लिया और शुद्ध आहार के रूप में गन्ने का रस पिलाकर इनके व्रत का पारायण कराया | गन्ने को इक्षु कहते हैं इसलिए इस तिथि को इक्षु तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया कहा जाने लगा | आज भी बहुत से जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना करते हैं जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होकर दूसरे वर्ष वैशाख शुक्ल तृतीया को सम्पन्न होती है और इस अवधि में प्रत्येक माह की चतुर्दशी को उपवास रखा जाता है | इस प्रकार यह साधना लगभग तेरह मास में सम्पन्न होती है |

इस प्रकार विभिन्न पौराणिक तथा लोक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि को इतने सारे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए इसीलिए सम्भवतः इस तिथि को सर्वार्थसिद्ध तिथि माना जाता है | किसी भी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीया को सबसे अधिक शुभ तिथि माना जाता है : “अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तम्, तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया | उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यै:, तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ||”

सांस्कृतिक दृष्टि से इस दिन विवाह आदि माँगलिक कार्यों का आरम्भ किया जाता है | कृषक लोग एक स्थल पर एकत्र होकर कृषि के शगुन देखते हैं साथ ही अच्छी वर्षा के लिए पूजा पाठ आदि का आयोजन करते हैं | ऐसी भी मान्यता है इस दिन यदि कृषि कार्य का आरम्भ किया जाए जो किसानों को समृद्धि प्राप्त होती है | इस प्रकार प्रायः पूरे देश में इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है | साथ ही, माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किया जाए अथवा जो भी वस्तु खरीदी जाए उसका कभी ह्रास नहीं होता | किन्तु, वास्तविकता तो यह है कि यह समस्त संसार ही क्षणभंगुर है | ऐसी स्थिति में हम यह कैसे मान सकते हैं कि किसी भौतिक और मर्त्य पदार्थ का कभी क्षय नहीं होगा ? जो लोग धन, सत्ता, रूप-सौन्दर्य, मान सम्मान आदि के मद में चूर कहते सुने जाते थे “अरे हम जैसों पर किसी बीमारी से क्या फ़र्क पड़ना है… इतना पैसा आख़िर कमाया किसलिए है…? हमारी सात पीढ़ियाँ भी आराम से बैठकर खाएँ तो ख़त्म होने वाला नहीं… तो बीमारी अगर हो भी गई तो क्या है, अच्छे से अच्छे अस्पताल में इलाज़ करवाएँगे… पैसा किस दिन काम आएगा…?” आज वही लाखों रूपये जेबों में लिए घूम रहे हैं लेकिन किसी को अस्पतालों में जगह नहीं मिल रही, किसी को ऑक्सीजन नहीं मिल रही तो किसी को प्राणरक्षक दावों का अभाव हो रहा है और इस सबके चलते अपने प्रियजनों को बचा पाने में असफल हो रहे हैं | कोरोना ने तो सभी को यह बात सोचने पर विवश कर दिया है कि पञ्चतत्वों से निर्मित इस शरीर का तथा कितनी भी धन सम्पत्ति एकत्र करने का क्या प्रयोजन…?

इसीलिए यह सोचना वास्तव में निरर्थक है कि अक्षय तृतीया पर हम जितना स्वर्ण खरीदेंगे वह हमारे लिए शुभ रहेगा, अथवा हम जो भी कार्य आरम्भ करेंगे उसमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्क़ी होगी | जिस समय हमारे मनीषियों ने इस प्रकार कथन किये थे उस समय का समाज तथा उस समय की आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न थीं | उस समय भी अर्थ तथा भौतिक सुख सुविधाओं को महत्त्व दिया जाता था, किन्तु चारित्रिक नैतिक आदर्शों के मूल्य पर नहीं | यही कारण था कि परस्पर सद्भाव तथा लोक कल्याण की भावना हर व्यक्ति की होती थी | इसलिए हमारे मनीषियों के कथन का तात्पर्य सम्भवतः यही रहा होगा कि हमारे कर्म सकारात्मक तथा लोक कल्याण की भावना से निहित हों, जिनके करने से समस्त प्राणिमात्र में आनन्द और प्रेम की सरिता प्रवाहित होने लगे तो उस उपक्रम का कभी क्षय नहीं होता अपितु उसके शुभ फलों में दिन प्रतिदिन वृद्धि ही होती है – और यही तो है जीवन का वास्तविक स्वर्ण | किन्तु परवर्ती जन समुदाय ने – विशेषकर व्यापारी वर्ग ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इसे भौतिक वस्तुओं – विशेष रूप से स्वर्ण – के साथ जोड़ लिया | अभी हम देखते हैं कि अक्षय तृतीया से कुछ दिन पूर्व से ही हमारे विद्वान् ज्योतिषी अक्षय तृतीया पर स्वर्ण खरीदने का मुहूर्त बताने में लग जाते हैं | कोरोना के इस संकटकाल में भी – जब लगभग हर परिवार में यह महामारी अपना स्थान बना चुकी है – हमारे विद्वज्जन अपनी इस भूमिका का निर्वाह पूर्ण तत्परता से कर रहे हैं | लोग अपने आनन्द के लिए प्रत्येक पर्व पर कुछ न कुछ नई वस्तु खरीदते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं, किन्तु वास्तविकता तो यही है कि इस पर्व का स्वर्ण की ख़रीदारी से कोई सम्बन्ध नहीं है |

एक अन्य महत्त्व इस पर्व का है | यह पर्व ऐसे समय आता है जो वसन्त ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के कारण दोनों ऋतुओं का सन्धिकाल होता है | इस मौसम में गर्मी और उमस वातावरण में व्याप्त होती है | सम्भवतः इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस दिन सत्तू, खरबूजा, तरबूज, खीरा तथा जल से भरे मिट्टी के पात्र आदि दान देने की परम्परा है अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है | साथ ही यज्ञ की आहुतियों से वातावरण स्वच्छ हो जाता है और इस मौसम में जन्म लेने वाले रोग फैलाने वाले बहुत से कीटाणु तथा मच्छर आदि नष्ट हो जाते हैं – सम्भवतः इसीलिए इस दिन यज्ञ करने की भी परम्परा है |

अस्तु, ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्, ऊँ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात्… श्री लक्ष्मी-नारायण की उपासना के पर्व अक्षय तृतीया तथा परशुराम जयन्ती की सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात, इस समय किसी भी प्रकार का दिखावा अथवा नाम की इच्छा किये बिना जितनी हो सके दूसरों की सहायता करें… क्योंकि जिनकी सहायता हम करते हैं हमें उनके भी स्वाभिमान की रक्षा करनी है… इसीलिए तो गुप्त दान को सबसे श्रेष्ठ माना गया है… साथ ही जो लोग ऑक्सीजन, दवाओं तथा कोरोना से सम्बन्धित किसी भी वस्तु की जमाखोरी और कालाबाज़ारी में लगे हैं वे इतना अवश्य समझ लें कि यदि यह सत्य है कि इस अवसर पर किये गए शुभकर्मों के फलों में वृद्धि होती है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस अवसर पर किये गए दुष्कर्मों के फलों में भी वृद्धि होगी… और साथ ही, कोरोना से बचने के उपायों जैसे मास्क पहनना, निश्चित दूरी बनाकर रखना तथा साफ़ सफाई का ध्यान रखना आदि का पूर्ण निष्ठा से पालन करें ताकि इनसे प्राप्त होने वाले शुभ फलों में वृद्धि हो और समस्त जन कोरोना को परास्त करने में समर्थ हो सकें… सभी के जीवन में सुख-समृद्धि-सौभाग्य-ज्ञान-उत्तम स्वास्थ्य की वृद्धि होती रहे तथा हर कार्य में सफलता प्राप्त होती रहे… यही कामना है…

_______________कात्यायनी…

bookmark_borderThere is victory beyond fear

There is victory beyond fear

डर के आगे जीत है

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

आज हर कोई डर के साए में जी रहा है | कोरोना ने हर किसी के जीवन में उथल पुथल मचाई हुई है | आज किसी को फोन करते हुए, किसी का मैसेज चैक करते हुए हर कोई डरता है कि न जाने क्या समाचार मिलेगा | जिससे भी बात करें हर दिन यही कहता मिलेगा कि आज उसके अमुक रिश्तेदार का स्वर्गवास हो गया कोरोना के कारण, आज उसका अमुक मित्र अथवा परिचित कोरोना की भेंट चढ़ गया | पूरे के पूरे परिवार कोरोना की चपेट में आए हुए हैं | हर ओर त्राहि त्राहि मची हुई है | साथ ही, जब समाचार मिलते हैं कि ऑक्सीजन की कमी है या लूट हो रही है, दवाओं की जमाखोरी के विषय में समाचार प्राप्त होते हैं तो इस सबको जानकार भयग्रस्त होना स्वाभाविक ही है | लेकिन हम एक कहावत भूल जाते हैं “जो डर गया वो मर गया” और “डर के आगे जीत है”… जी हाँ, डरने से काम नहीं चला करता | किसी भी बात से यदि हम भयभीत हो जाते हैं तो इसका अर्थ है कि हमारी संकल्प शक्ति दृढ़ नहीं है… और इसीलिए हम उस बीमारी को या जिस भी किसी बात से डर रहे हैं उसे अनजाने ही निमन्त्रण दे बैठते हैं… और समय से पूर्व ही हार जाते हैं… हम यह नहीं कहते कि कोरोना से डरा न जाए… बिल्कुल डरना चाहिए… लेकिन इसलिए नहीं कि हमें हो गया तो क्या हो गया… बल्कि इसलिए कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए हम कोरोना के लिए बताए गए दिशा निर्देशों का कड़ाई से पालन करें…

डर तो किसी भी बात का हो सकता है | किसी को अपनी असफलता का भय हो सकता है, कोई भविष्य के विषय में चिन्तित हो सकता है, कोई रिजेक्ट किये जाने के भय से चिन्तित हो सकता है, किसी को अपना कुछ प्रिय खो जाने का भय हो सकता है, किसी को दुर्घटना का भय हो सकता है तो किसी को मृत्यु का भय और भी न जाने कितने प्रकार के भयों से त्रस्त हो सकता है | इसका परिणाम क्या होता है… कि हम अपना वर्तमान का सुख भी नहीं भोग पाते | जो व्यक्ति डर डर कर जीवन यापन करता है वह कभी प्रसन्न रह ही नहीं सकता |

हम अपने भयों से – परिस्थितियों से – पलायन कर जाना चाहते हैं | उनका सामना करने का साहस हम नहीं जुटा पाते | लेकिन हर समय डर डर कर जीना या परिस्थितियों से पलायन करना तो समस्या का समाधान नहीं | इससे तो परिस्थितियाँ और भी बिगड़ सकती हैं | क्योंकि नकारात्मकता नकारात्मकता को ही आकर्षित करती है – Negativity attracts negativity” इसलिए सकारात्मक सोचेंगे तो हमारे चारों ओर सकारात्मकता का एक सुरक्षा चक्र निर्मित हो जाएगा और हम बहुत सीमा तक बहुत सी दुर्घटनाओं से बच सकते हैं | प्रयोगों के द्वारा ये बात सिद्ध भी हो चुकी है अनेकों बार |

तो डर को दूर भगाने के लिए सबसे पहले हमें उसका सामना करने की सामर्थ्य स्वयं में लानी होगी | इसके लिए सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि हाँ हम भयग्रस्त हैं | और फिर जिस बात से भी हम डरे हुए हैं वह बात हमें कितना बड़ा आघात पहुँचा सकती है इस विषय में सोचना होगा कि यदि हम डरकर बैठ रहे तो हमारी हार होगी और उसका कितना बड़ा मूल्य हमें चुकाना पड़ सकता है | कितना कष्ट हमें उस परिस्थिति से हो सकता है जिसके विषय में सोच कर भी हमें डर लगता है इस विषय में भी सोचना होगा | और तब अपने भीतर से ही हममें साहस आएगा कि या तो हम उस परिस्थिति को आने ही न दें, और यदि आ भी जाए तो साहस के साथ उसका सामना करके उसे हरा सकें |

आज जिस प्रकार से ऑक्सीजन के लिए, दवाओं के लिए मारामारी मची हुई है वह सब भय के ही कारण है और उसका लाभ जमाखोरों और कालाबाज़ारी करने वालों को मिल रहा है | जिन लोगों को अभी कोरोना के लक्षण नहीं भी हैं या कम लक्षण हैं वे भी घबराकर दवाओं और ऑक्सीजन के लिए भागे भागे फिर रहे हैं | अस्पतालों में बेड के लिए भागे फिर रहे हैं | इन लोगों के डर के ही परिणामस्वरूप जमाखोरों और कालाबाज़ारी करने वालों की चाँदी हो रही है | जबकि डॉक्टर्स बार बार कह रहे हैं कि यदि हल्के से लक्षण हैं तो अस्पताल की तरफ मत देखिये – घर में रहकर ही डॉक्टर की बताई दवा समय पर लीजिये, प्राणायाम कीजिए, मास्क और साफ़ सफाई का ध्यान रखिये और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कीजिए – ऐसा करके आप घर में रहकर ही रोगमुक्त हो जाएँगे, और जमाखोरों तथा कालाबाज़ारी करने वालों को भी अवसर नहीं मिलेगा कि वे ऑक्सीजन और दवाओं को इकट्ठा करके मनमाने दामों में बेचकर जनता को लूट सकें | बीमारी की आग पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले राजनेताओं की बन आती है |

जिन लोगों ने इस आपदा के कारण अपने प्रियजनों को खोया है उनका कष्ट समझ में आता है | या जिन लोगों ने कोरोना को झेला है उनकी चिन्ता भी समझ में आती है | लेकिन यदि थोड़ी समझदारी और शान्ति से काम लिया जाए तो और अधिक नुकसान होने से बचाया जा सकता है | अभी दो दिन पहले सभी ने एक समाचार अवश्य देखा पढ़ा होगा कि किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति ने एक युवक के लिए अस्पताल का अपना वो बेड छोड़ दिया जो उन्हें उनके परिवार वालों ने बड़ी भाग दौड़ के बाद दिलाया था | उनका कहना था कि “मैं तो अपना जीवन जी चुका, अब इन्हें इनका जीवन जीने देना है…” और घर वापस जाने के दो दिन बाद स्वर्ग सिधार गए | ये तो एक समाचार है, बहुत से ऐसे उदाहरण मानवता के आजकल सुर्ख़ियों में हैं |

रामायण में प्रसंग आता है कि अंगिरा और भृगुवंश के ऋषियों के कोप के कारण हनुमान जी अपनी शक्ति भुला बैठे थे | भगवान श्री राम ने जब उन्हें लंका जाने के लिए कहा तो उन्होंने असमर्थता प्रकट की | तब जामवन्त ने उनके गुणों का बखान उनके समक्ष किया और इस प्रकार उन्हें उनकी शक्ति का आभास कराया और वे “राम काज” करने में समर्थ हो सके | इसलिए व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य कभी नहीं भूलनी चाहिए और समय पर उसका सदुपयोग करना चाहिए | और आज ये महामारी हमारे लिए जामवन्त बनकर आई है जो हमें सीख दे रही है कि हमें अपनी सामर्थ्य को नहीं भूलना चाहिए | और इस महामारी के समय सबसे बड़ी शक्ति यही है कि हम सभी सुरक्षा नियमों का पालन करें और यदि हलके लक्षण कोरोना के हैं भी तो घर में रहकर ही डॉक्टर की बताई दवा समय पर लें, अकारण ही घर से बाहर न जाएँ, मास्क लगाएँ, उचित दूरी बनाकर रखें, साफ सफाई का ध्यान रखें, एक दूसरे की सहायता के लिए आगे आएँ, वैक्सीन लें, बीमारी के सम्बन्ध में नकारात्मक तथा डराने वाले समाचारों को देखने सुनने से बचें… और सबसे बड़ी शक्ति ये कि घबराएँ नहीं और संकल्प शक्ति दृढ़ बनाए रहें ताकि कोरोना से लड़ाई में जीत सकें… माना अभी समय कुछ अच्छा नहीं है – लेकिन ये समय भी शीघ्र ही निकल जाएगा – इस प्रकार की सकारात्मकता का भाव बनाए रखें… क्योंकि सकारात्मकता किसी भी विपत्ति को दूर करने में सहायक होती है…

सुख जाता है दुःख को देकर, दुःख जाता है सुख को देकर |

सुख देकर जाने वाले से डरना क्या इस जीवन में ||

__________________कात्यायनी

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Hanuman Jayanti

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

हनुमान जयन्ती

आज चैत्र पूर्णिमा है… और कोविड महामारी के बीच आज विघ्नहर्ता मंगल कर्ता हनुमान जी – जो लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर करने के लिए संजीवनी बूटी का पूरा पर्वत ही उठाकर ले आए थे… जिनकी महिमा का कोई पार नहीं… की जयन्ती है… जिसे पूरा हिन्दू समाज भक्ति भाव से मनाता है… कल दिन में बारह बजकर पैंतालीस मिनट के लगभग पूर्णिमा तिथि का आगमन हुआ था और आज प्रातः नौ बजे तक ही पूर्णिमा तिथि थी, लेकिन उदया तिथि होने के कारण आज हनुमान जन्म महोत्सव मनाया जा रहा है… मान्यता है कि सूर्योदय काल में हनुमान जी का जन्म हुआ था… आज पाँच बजकर चौवालीस मिनट पर सूर्योदय हुआ है… अस्तु, सर्वप्रथम सभी को श्री रामदूत हनुमान जी की जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ… इस भावना के साथ कि जिस प्रकार पग पग पर भगवान श्री राम के मार्ग की बाधाएँ उन्होंने दूर कीं… जिस प्रकार लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्राप्त करने में सहायक हुए… उसी प्रकार आज भी समस्त संसार को कोरोना महामारी से मुक्त होने में सहायता करें… अपनी कृपा से जन जन का मनोबल इतना सुदृढ़ कर दें कि हर कोई मन में बस यही संकल्प ले कि कोरोना को हराना है… क्योंकि संकल्प की ही विजय होती है…

बुद्धिर्बलं यशो धैर्यं निर्भयत्वमरोगता |

अजाड्यं वाक्पटुत्वं च हनूमत्स्मरणाद्भवेत् ||

हनुमान जी का स्मरण करने से हमारी बुद्धि, बल, यश, धैर्य, निर्भयता, आरोग्य, विवेक और वाक्पटुता में वृद्धि हो |

मनोजवं मारुततुल्यवेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् |

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ||

हम उन वायुपुत्र श्री हनुमान के शरणागत हैं जिनकी गति का वेग मन तथा मरुत के समान है, जो जितेन्द्रिय हैं, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, वानरों की सेना के सेनापति हैं तथा भगवान् श्री राम के दूत हैं |

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् |

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ||

अत्यन्त बलशाली, स्वर्ण पर्वत के समान शरीर से युक्त, राक्षसों के काल, ज्ञानियों में अग्रगण्य, समस्त गुणों के भण्डार, समस्त वानर कुल के स्वामी तथा रघुपति के प्रिय भक्त वायुपुत्र हनुमान को हम नमन करते हैं |

हनुमानद्द्रजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः, रामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम: |

Hanuman Jayanti ki hardik shubhkamnaein
Hanuman Jayanti ki hardik shubhkamnaein

उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः, लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ||

एवं द्वादशनामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः,

स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्‌ |

तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्‌ ||

हनुमान, अंजनिपुत्र, वायुपुत्र, महाबली, रामप्रिय, अर्जुन (फाल्गुन) के मित्र, पिंगाक्ष – भूरे नेत्र वाले, अमित विक्रम अर्थात महान प्रतापी, उदधिक्रमण: – समुद्र को लाँघने वाले, सीता जी के शोक को नष्ट करने वाले, लक्ष्मण को जीवन दान देने वाले तथा रावण के घमण्ड को चूर्ण करने वाले – ये कपीन्द्र के बारह नाम हैं | रात्रि को शयन करने से पूर्व, प्रातः निद्रा से जागने पर तथा यात्रा आदि के समय जो व्यक्ति हनुमान जी के इन बारह नामों का पाठ करता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता तथा विजय प्राप्त होती है |

आज की इस भयंकर आपदा के समय में मंगल रूप हनुमान सबका मंगल करें… सभी को एक बार पुनः हनुमान जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ…

__________________कात्यायनी…

bookmark_borderCorona and Mahaveer Jayanti

Corona and Mahaveer Jayanti

कोरोना और महावीर जयन्ती

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

जय श्री वर्द्ध्मानाय स्वामिने विश्ववेदिने

नित्यानन्द स्वभावाय भक्तसारूप्यदायिने |

धर्मोSधर्मो ततो हेतु सूचितौ सुखदुःखयो:

पितु: कारण सत्त्वेन पुत्रवानानुमीयते ||

आज चैत्र शुक्ल त्रयोदशी है – भगवान् महावीर स्वामी की जयन्ती का पावन पर्व | तो सबसे पहले तो सभी को महावीर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ… हमें याद है हमारे पितृ नगर नजीबाबाद में – जहाँ जैन लोग बहुत अधिक तादाद में हैं… महावीर जयन्ती के अवसर पर जैन मन्दिर में बहुत बड़ा आयोजन प्रातः से सायंकाल तक चलता था… जैन अध्येता होने के कारण हमें भी वहाँ बुलाया जाता था… और सच में बहुत आनन्द आता था… दिल्ली में भी कई बार महावीर जयन्ती के कार्यक्रमों में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ…

सभी जानते हैं कि महावीर स्वामी जैन धर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर थे | अब तीर्थंकर किसे कहते हैं ? तीर्थं करोति स तीर्थंकर: – अर्थात जो अपनी साधना के माध्यम से स्वयं संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थों का निर्माण करें वह तीर्थंकर | तीर्थंकर का कर्तव्य होता है कि वे अन्यों को भी आत्मज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करने का प्रयास करें | इसी क्रम में प्रथम तीर्थंकर हुए आचार्य ऋषभदेव और अन्तिम अर्थात चौबीसवें तीर्थंकर हुए भगवान् महावीर – जिनका समय ईसा से 599-527 वर्ष पूर्व माना जाता है | णवकार मन्त्र में सभी तीर्थंकरों को नमन किया गया है “ॐ णमो अरियन्ताणं” | समस्त जैन आगम अरिहन्तों द्वारा ही भाषित हुए हैं |

जैन दर्शन मानता है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और संसार की समस्त वस्तुएँ सदसदात्मक हैं | जैन दर्शन हमारे विचार से पूर्ण रूप से सम सामयिक दृष्टि है… सम्यग्दर्शन, सम्यग्चरित्र तथा सम्यग्चिन्तन की भावना पर सबसे अधिक बल जैन दर्शन में ही दिया गया है… और आज जिस प्रकार से सामाजिक परिदृश्य में, राजनीतिक परिदृश्य में, यहाँ तक कि पारिवारिक परिदृश्य में भी जिस प्रकार से एक असहमति, कुण्ठा आदि का विकृत रूप देखने को मिलता है उससे यदि मुक्ति प्राप्त हो सकती है तो वहाँ केवल ये सम्यग्दर्शन, सम्यक्चरित्र और सम्यक्चिन्तन की भावनाएँ ही काम आएँगी… समस्त संसार यदि सम्यग्दर्शन, सम्यग्चरित्र तथा सम्यग्चिन्तन की भावना को अंगीकार कर ले तो बहुत सी समस्याओं से मुक्ति प्राप्त हो सकती है – क्योंकि इस स्थिति में समता का भाव विकसित होगा और फिर किसी भी प्रकार की ऊँच नीच अथवा किसी भी प्रकार के ईर्ष्या द्वेष क्रोध घृणा इत्यादि के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाएगा…

ये तो हुआ दार्शनिक पक्ष | व्यावहारिक और सामाजिक पक्ष की यदि बात करें तो अपरिग्रह, अहिंसा, संयम और सेवा आदि जितने भी व्यवहारों पर भगवान महावीर स्वामी ने बल दिया है वे सभी न केवल वर्तमान कोरोना काल में, अपितु सदा के लिए मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हैं | जैसे…

अहिंसा – अर्थात किसी प्रकार की मनसा वाचा कर्मणा हिंसा का त्याग करें | परस्पर मैत्री भाव रखते हुए कोरोना के सम्बन्ध में जो दिशा निर्देश दिए गए हैं उनका पालन करेंगे तो इस आपदा के समय अपना स्वयं का बचाव करते हुए एक दूसरे के सहायक सिद्ध हो सकते हैं | लॉकडाउन में आवश्यक होने पर यदि किसी कार्य से घर से बाहर निकलना भी पड़ जाता है तो शान्ति बनाए रहे, यहाँ वहाँ हमारी सुरक्षा के लिए तत्पर पुलिस के समक्ष भी विनम्र रहें, उनसे झगड़ने की अपेक्षा उनके बताए दिशा निर्देशों का पालन करें ताकि स्थिति उग्र न हो और किसी प्रकार की अहिंसा की स्थिति उत्पन्न न होने पाए |

अपरिग्रह – अभी तो हमारे लिए कोरोना परिग्रह बना हुआ है – सारे संसार को इसने बन्धक बनाया हुआ है | तो क्यों न कुछ समय के लिए अपनी सभी इच्छाओं का त्याग करके केवल सीमित मूलभूत आवश्यकताओं की ही पूर्ति पर ध्यान दिया जाए – वो भी मिल बाँटकर ? आजकल इस प्रकार के समाचार भी प्राप्त हो रहे हैं कि कुछ व्यक्तियों ने दवाओं आदि को अपने घरों में स्टोर करना आरम्भ कर दिया है कि न जाने कब आवश्यकता पड़ जाए | अनावश्यक रूप से किसी वस्तु को अपने पास रखना ही परिग्रह कहलाता है | क्योंकि प्रस्तरकालीन मानव की ही भाँति आज कुछ व्यक्तियों की सोच यही बन चुकी है कि पहले स्वयं को बचाएँ, दूसरों के साथ चाहे जो हो | इस भावना से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अपरिग्रह का आचरण अपनाने की आवश्यकता है |

सेवा – यदि हम सम्यग्दर्शन, सम्यग्चरित्र तथा सम्यग्चिन्तन के सिद्धान्त का पालन करेंगे तो सबको एक समान मानते हुए असहाय तथा अशक्त व्यक्तियों की सहायता के लिए भी आगे आ सकेंगे – और वह भी किसी पुरूस्कार अथवा नाम के लिए नहीं – न ही इसलिए कि सेवा करते हुए समाचार पत्रों में हमारे चित्र प्रकाशित हो जाएँगे | क्योंकि वास्तविक सेवा वह होती है कि जिसका किसी को पता भी न चल सके – जैसे कहा जाता है कि दान इस प्रकार होना चाहिए कि एक हाथ दान करे तो दूसरे हाथ को उसका भान भी न होने पाए | आज सेवाकार्य करते हुए चित्र खिंचवाना तथा उन्हें सोशल नेटवर्किंग पर पोस्ट करने की जैसे एक होड़ सी लगी हुई है | वास्तव में सेवाकार्य करना चाहते हैं तो इस भावना से ऊपर उठने की आवश्यकता है |

संयम – महावीर स्वामी का एक सिद्धान्त संयम का आचरण भी है | संकट की घड़ी है, जन साधारण के धैर्य की परीक्षा का समय है यह | कोरोना को हराना है तो धैर्य के साथ घरों में रहने की आवश्यकता है | अनावश्यक रूप से घरों से बाहर निकलेंगे तो अपने साथ साथ दूसरों के लिए भी समस्या बन सकते हैं | कोरोना के लक्षण दिखाई दें तो भी धैर्य के साथ – संयम के साथ विचार चिकित्सक से सम्पर्क साधें ताकि समय पर उचित चिकित्सा उपलब्ध हो सके |

और सबसे अन्त में लेकिन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मुखवस्त्रिका अर्थात मास्क | भगवान महावीर के अन्तिम सूत्र में मुखवस्त्रिका का वर्णन है | मुख में वायु के माध्यम से किसी भी प्रकार के जीव का प्रवेश होकर उसकी हिंसा न हो जाए इस भावना से मुखवस्त्रिका को आवश्यक बताया गया था – जो कि कोरोना की रोकथाम में सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है | साथ ही बार बार हाथ मुँह धोना और बाहर से आई प्रत्येक वस्तु को भी सेनिटायिज़ करके अर्थात साफ़ करके उपयोग में लाना – इसका भी यही उद्देश्य था कि किसी प्रकार के कीटाणु उस वस्तु में न रह जाएँ |

वे सभी सम्यग्दर्शन, सम्यग्चरित्र तथा सम्यग्चिन्तन के अन्तर्गत ही आते हैं | महावीर जयन्ती के इस अवसर पर यदि हम इनका पालन करने का संकल्प ले लें तो कोरोना जैसी महामारी से मुक्त होने में सहायता प्राप्त हो सकती है |

तो इस प्रकार की उदात्त भावनाओं का प्रसार करने वाले भगवान महावीर को नमन करते हुए प्रस्तुत हैं कुछ पंक्तियाँ…

हे महावीर शत नमन तुम्हें, शत वार तुम्हें है नमस्कार  

तुम्हारी कर्म श्रृंखला देव हमारी संस्कृति का श्रृंगार |

हे महावीर श्रद्धा से नत शत वार तुम्हें है नमस्कार

जो पथ दिखलाया तुमने वह है सकल मनुजता का आधार ||

तुमने दे दी हर प्राणी को जीवन जीने की अभिलाषा

ममता के स्वर में समझा दी मानव के मन की परिभाषा |

बन गीत और संगीत जगत को हर्ष दिया तुमने अपार

हे महावीर श्रद्धा से नत शत वार तुम्हें है नमस्कार ||

तुमको पाकर रानी त्रिशला के संग धरती माँ धन्य हुई

Mahaveer Jayanti
Mahaveer Jayanti

विन्ध्याचल पर्वत से कण कण में करुणाभा फिर व्याप्त हुई |

तुमसे साँसों को राह मिली, जग में अगाध भर दिया प्यार

हे महावीर श्रद्धा से नत शत वार तुम्हें है नमस्कार ||

तुम श्रम के साधक, कर्म विजेता, आत्मतत्व के ज्ञानी तुम

सम्यक दर्शन, सम्यक चरित्र और अनेकान्त के साधक तुम |

सुख दुःख में डग ना डिगें कभी, समता का तुमने दिया सार

हे महावीर श्रद्धा से नत शत वार तुम्हें है नमस्कार ||

हे महावीर शत नमन तुम्हें, शत वार तुम्हें है नमस्कार 

तुम्हारी कर्म श्रृंखला देव हमारी संस्कृति का श्रृंगार |

हे महावीर श्रद्धा से नत शत वार तुम्हें है नमस्कार

जो पथ दिखलाया तुमने वह है सकल मनुजता का आधार ||

अस्तु, भगवान महावीर स्वामी के सिद्धान्तों का पालन करते हुए सुरक्षा निर्देशों का पालन करते हुए सभी स्वस्थ रहें… सुरक्षित रहें… इसी कामना के साथ सभी को महावीर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ…

______________कात्यायनी…

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Earth Day

पृथिवी दिवस

आज समूचा विश्व पृथिवी दिवस यानी Earth Day मना रहा है | आज प्रातः से ही पृथिवी दिवस के सम्बन्ध में सन्देश आने आरम्भ हो गए थे | कुछ संस्थाओं ने तो वर्चुअल

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

मीटिंग्स यानी वेबिनार्स भी आज आयोजित की हैं पृथिवी दिवस के उपलक्ष्य में – क्योंकि कोरोना के कारण कहीं एक स्थान पर एकत्र तो हुआ नहीं जा सकता | ये समस्त कार्यक्रम पृथिवी के पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण से मुक्ति प्राप्त करने तथा समाज में जागरूकता उत्पन्न करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है | किन्तु, यहाँ विचारणीय बात ये है कि भारतीय समाज में – विशेष रूप से वैदिक समाज में – तो सदा से हर दिन पृथिवी दिवस होता था, तो आज इस प्रकार के आयोजनों की आवश्यकता किसलिए प्रतीत होती है | अथर्व वेद में तो एक समग्र सूक्त ही पृथिवी के सम्मान में समर्पित है | वैदिक विधि विधान पूर्वक कोई भी पूजा अर्चना करें – पृथिवी की पूजा आवश्यक रूप से की जाती है – ससम्मान पृथिवी का आह्वाहन और स्थापन किया जाता है –

ॐ पृथिवी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता |

त्वां च धारय मां भद्रे पवित्रं कुरु चासनम्

पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः

अर्थात, हे पृथिवी तुमने समस्त लोकों को धारण किया हुआ है और तुम्हें भगवान विष्णु ने धारण किया हुआ है | तुम मुझे धारण करो, और इस आसन को पवित्र करो | आधार शक्ति पृथिवी को नमस्कार है |

अथर्ववेद के भूमि सूक्त में कहा गया है “देवता जिस भूमि की रक्षा उपासना करते हैं वह भूमि हमें मधु सम्पन्न करे | इस पृथ्वी का हृदय परम आकाश के अमृत से सम्बन्धित  रहता है | यह पृथ्वी हमारी माता है और हम इसकी सन्तानें हैं “माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या: |

पृथिवी पर्यावरण का महत्त्वपूर्ण अंग है ये हम सभी जानते हैं | जिस पर प्राणी निवास करते हैं तथा जीवन प्राप्त करते हैं वह भूमि निश्चित रूप से वन्दनीय तथा उपयोगी है | यही कारण है वैदिक वांग्मय में पृथिवी के सम्मान में अनेक मन्त्र उपलब्ध होते हैं | वैदिक ऋषि क्षमायाचना के साथ पृथिवी पर चरण रखते थे…

समुद्रवसने देवि, पर्वतस्तनमण्डिते | विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं, पादस्पर्शं क्षमस्व मे ||

अर्थात हे समुद्र में निवास करने वाली देवी, पर्वतरूपी स्तनों को धारण करने वाली, विष्णुपत्नी हम आपका अपने चरणों से स्पर्श कर रहे हैं – हमें इसके लिए क्षमा कीजिए |

इसके अतिरिक्त अनेकों मन्त्र पृथिवी की उपासना स्वरूप उपलब्ध होते हैं, यथा…

भूमे मातर्निधेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् |

संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ||

हे धरती माता मुझे कल्याणमय  बुद्धि के साथ स्थिर बनाए रखें | हे गतिशीले (जो प्राणिमात्र को गति प्रदान करती है), प्रकाश के साथ संयुत होकर मुझे श्री और विभूति में धारण करो |

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति |
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ||

पृथ्वी के लिए नमस्कार है जो सत्य, ऋत अर्थात अपरिवर्तनीय तथा सर्वशक्तिमान परब्रहम में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति, ऋषियो मुनियों की समर्पण भाव से किये गये यज्ञ और तप की शक्ति से अनन्तकाल से संरक्षित है | यह पृथिवी हमारे भूत और भविष्य की साक्षी है और सहचरी है | यह हमारी आत्मा को इस लोक से उस दिव्य लोक की ओर ले जाए |

असंबाधं बध्यतो मानवानां यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु |
नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः ||                     

यह अपने पर्वतों, ढालानों तथा मैदानों के माध्यम से समस्त जीवों के लिए निर्बाध स्वतन्त्रता प्रदान करती हुई अनेकों औषधियों को धारण करती है | यह हमें समृद्ध और स्वस्थ बनाए रखे |

यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः |
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु || 

समुद्र तथा नदियों के जल से सिंचित क्षेत्रों के माध्यम से अन्न प्रदान करने वाली पृथिवी हमें जीवन का अमृत प्रदान करे |

यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन् |
      गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ||

आदिकाल से हमारे पूर्वज इस पर विचरण करते रहे हैं | इस पर सत्व ने तमस को पराजित किया है | इस पर समस्त जीव जंतु और पशु आदि पोषण प्राप्त करते हैं | यह पृथिवी हमें समृद्धि तथा वैभव प्रदान करे |

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु |
बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम् |
अजीतेऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम् ||  

हे माता, आपके पर्वत, हिमाच्छादित हिमश्रृंखलाएँ तथा घने वन घने जंगल हमें शीतलता तथा सुख प्रदान करें | अपने अनेक वर्णों के साथ आप विश्वरूपा हैं | आप ध्रुव की भाँति अचल हैं तथा इन्द्र द्वारा संरक्षित हैं | आप अविजित हैं अचल हैं और हम आपके ऊपर दृढ़ता से स्थिर रह सकते हैं |

अथर्ववेद के भूमि सूक्त से इन कुछ मन्त्रों को उद्धत करने से हमारा अभिप्राय मात्र यही था कि जिस पृथिवी को माता के सामान – देवी के समान पूजा जाता था – क्या कारण है कि आज उसी की सुरक्षा के लिए इस प्रकार के “पृथिवी दिवस” का आयोजन करने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई |

इसका कारण हम स्वयं हैं | पूरे विश्व में आज यानी 22 अप्रैल को विश्व पृथिवी दिवस मनाया जाता है | इसका आरम्भ 1970 में हुआ था तथा इसका उद्देश्य था जन साधारण को पर्यावरण के प्रति सम्वेदनशील बनाना | पृथिवी पर जो भी प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं उन सबके लिए मनुष्य स्वयं ज़िम्मेदार है – फिर चाहे वह ओजोन परत में छेद होना हो, भयंकर तूफ़ान या सुनामी हो, या आजकल जैसे कोरोना ने आतंक मचाया हुआ ऐसा ही किसी महामारी का आतंक – सब कुछ के लिए मानव स्वयं ज़िम्मेदार है | यदि ये आपदाएँ इसी प्रकार आती रहीं तो पृथिवी से समस्त जीव जन्तुओं का – समस्त वनस्पतियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा | इसी सबको ध्यान में रखते हुए पृथिवी दिवस मनाना आरम्भ किया गया |

आज पृथिवी के पर्यावरण में प्रदूषण के कारण पृथिवी का वास्तविक स्वरूप नष्ट होता जा रहा है | और इस प्रदूषण के प्रमुख कारणों से हम सभी परिचित हैं – जैसे जनसंख्या में वृद्धि, बढ़ता औद्योगीकरण, शहरीकरण में वृद्धि तथा यत्र तत्र फैलता जाता कचरा इत्यादि इत्यादि | पोलीथिन का उपयोग, ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण अनियमित होती ऋतुएँ और मौसम | आज हमें समाज की चिन्ता न होकर स्वयं की सुविधाओं की चिन्ता कहीं बहुत अधिक है | जैसे जैसे मनुष्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता जा रहा है वैसे वैसे पर्यावरण की ओर से उदासीन होता जा रहा है | अर्थात हम स्वयं ही पृथिवी के इस पर्यावरण के लिए ज़िम्मेदार हैं |

इस प्रकार हम तो यही कहेंगे कि पृथिवी दिवस केवल एक आयोजन की औपचारिकता मात्र तक सीमित न रहने देकर यदि हर दृष्टिकोण से परस्पर एकजुट होकर चिन्तन मनन किया जाए तथा प्रयास किया जाए तभी हम पृथिवी को पुनः उसी रूप में देखने में समर्थ हो सकेंगे | और यह कार्य केवल पृथिवी दिवस के दिन ही न करके अपनी दैनिक दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण अंग बना लें तभी हम अपनी धरती माँ का ऋण चुका सकेंगे |

___________________कात्यायनी

bookmark_borderThe Spiritual Aspect of Durga Saptshati

The Spiritual Aspect of Durga Saptshati

दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक रहस्य

आज चैत्र नवरात्रों का समापन हुआ है | इस वर्ष भी गत वर्ष की ही भाँति कन्या पूजन नहीं कर सके – कोरोना के चलते सब कुछ बन्द ही रहा | आज सभी जानते हैं कि ऐसी

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

स्थिति है कि बहुत से परिवारों में तो पूरा का पूरा परिवार ही कोरोना का कष्ट झेल रहा है | किन्तु इतना होने पर भी उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं रही – और यही है भारतीय जन मानस की सकारात्मकता | कोई बात नहीं, माँ भगवती की कृपा से अगले वर्ष सदा की ही भाँति नवरात्रों का आयोजन होगा |

पूरे नवरात्रों में भक्ति भाव से दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी की तीनों चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ का उनकी समस्त सेना के सहित वध की कथाओं का पाठ किया जाता है | इन तीनों चरित्रों को पढ़कर इहलोक में पल पल दिखाई देने वाले अनेकानेक द्वन्द्वों का स्मरण हो आता है | किन्तु देवी के ये तीनों ही चरित्र इस लोक की कल्पनाशीलता से बहुत ऊपर हैं | दुर्गा सप्तशती किसी लौकिक युद्ध का वर्णन नहीं, वरन् एक अत्यन्त दिव्य रहस्य को समेटे उपासना ग्रन्थ है |

गीता ग्रन्थों में जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है, उसी प्रकार दुर्गा सप्तशती ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है | यही कारण है कि लाखों मनुष्य नित्य श्रद्धा-भक्ति पूर्वक इसका पाठ और अनुष्ठान आदि करते हैं | इतना ही नहीं, संसार के अन्य देशों में भी शक्ति उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित है | यह शक्ति है क्या ? शक्तिमान का वह वैशिष्ट्य जो उसे सामान्य से पृथक् करके प्रकट करता है शक्ति कहलाता है | शक्तिमान और शक्ति वस्तुतः एक ही तत्व है | तथापि शक्तिमान की अपेक्षा शक्ति की ही प्रमुखता रहती है | उसी प्रकार जैसे कि एक गायक की गायन शक्ति का ही आदर, उपयोग और महत्व अधिक होता है | क्योंकि संसार गायक के सौन्दर्य आदि पर नहीं वरन् उसकी मधुर स्वर सृष्टि के विलास में मुग्ध होता है | इसी प्रकार जगन्नियन्ता को उसकी जगत्कर्त्री शक्ति से ही जाना जाता है | इसी कारण शक्ति उपासना का उपयोग और महत्व शास्त्रों में स्वीकार किया गया है |

उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है | क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है | द्वित्व समाप्त हो जाने पर तो जीव स्वयं ब्रह्म हो जाता – अहम् ब्रह्मास्मि की भावना आ जाने पर व्यक्ति समस्त प्रकार की उपासना आदि से ऊपर उठ जाता है | द्वैत भाव का आधार सगुण तत्व है | सगुण उपासना के पाँच भेद बताए गए हैं – चित् भाव, सत् भाव, तेज भाव, बुद्धि भाव और शक्ति भाव | इनमें चित् भाव की उपासना विष्णु उपासना है | सत् भावाश्रित उपासना शिव उपासना है | भगवत्तेज की आश्रयकारी उपासना सूर्य उपासना होती है | भगवद्भाव से युक्त बुद्धि की आश्रयकारी उपासना धीश उपासना होती है | तथा भगवत्शक्ति को आश्रय मानकर की गई उपासना शक्ति उपासना कहलाती है | यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है | इसमें ब्रह्म पद से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले पाँच तत्व हैं – चित्, सत्, तेज, बुद्धि और शक्ति | इनमें चित् सत्ता जगत् को दृश्यमान बनाती है | सत् सत्ता इस दृश्यमान जगत् के अस्तित्व का अनुभव कराती है | तेज सत्ता के द्वारा जगत् का ब्रह्म की ओर आकर्षण होता है | बुद्धि सत्ता ज्ञान प्रदान करके इस भेद को बताती है कि ब्रह्म सत् है और जगत् असत् अथवा मिथ्या है | और शक्ति सत्ता जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती हुई जीव को बद्ध भी कराती है और मुक्त भी | उपासक इन्हीं पाँचों का अवलम्बन लेकर ब्रह्मसान्निध्य प्राप्त करता हुआ अन्त में ब्रह्मरूप को प्राप्त हो जाता है |

शक्ति उपासना वस्तुतः यह ज्ञान कराती है कि यह समस्त दृश्य प्रपंच ब्रहम शक्ति का ही विलास है | यही ब्रह्म शक्ति सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती है | एक ओर जहाँ यही ब्रह्मशक्ति अविद्या बनकर जीव को बन्धन में बाँधती है, वहीं दूसरी ओर यही विद्या बनकर जीव को ब्रह्म साक्षात्कार करा कर उस बन्धन से मुक्त भी कराती है | जिस प्रकार गायक और उसकी गायन शक्ति एक ही तत्व है, उसी प्रकार ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति में “अहं ममेति” जैसा भेद नहीं है | वेद और शास्त्रों में इस ब्रह्म शक्ति के चार प्रकार बताए गए हैं | जो निम्नवत् हैं :

तुरीया शक्ति – यह प्रकार ब्रह्म में सदा लीन रहने वाली शक्ति का है | यही ब्रह्मशक्ति स्व-स्वरूप प्रकाशिनी होती है | वास्तव में सगुण और निर्गुण का जो भेद है वह केवल ब्रह्म शक्ति की महिमा के ही लिये है | जब तक महाशक्ति स्वरूप के अंक में छिपी रहती है तब तक सत् चित् और आनन्द का अद्वैत रूप से एक रूप में अनुभव होता है | वह तुरीया शक्ति जब स्व-स्वरूप में प्रकट होकर सत् और चित् को अलग अलग दिखाती हुई आनन्द विलास को उत्पन्न करती है तब वह पराशक्ति कहाती है | वही पराशक्ति जब स्वरूपज्ञान उत्पन्न कराकर जीव के अस्तित्व के साथ स्वयं भी स्व-स्वरूप में लय हो निःश्रेयस का उदय करती है तब उसी को पराविद्या कहते हैं |

कारण शक्ति – अपने नाम के अनुरूप ही यह शक्ति ब्रह्मा-विष्णु-महेश की जननी है | यही निर्गुण ब्रह्म को सगुण दिखाने का कारण है | यही कभी अविद्या बनकर मोह में बाँधती है, और यही विद्या बनकर जीव की मुक्ति का कारण भी बनती है |

सूक्ष्म शक्ति – ब्राह्मी शक्ति – जो कि जगत् की सृष्टि कराती है, वैष्णवी शक्ति – जो कि जगत् की स्थिति का कारण है, और शैवी शक्ति – जो कि कारण है जगत् के लय का | ये तीनों ही शक्तियाँ सूक्ष्म शक्तियाँ कही जाती हैं | स्थावर सृष्टि, जंगम सृष्टि, ब्रह्माण्ड या पिण्ड कोई भी सृष्टि हो – सबको सृष्टि स्थिति और लय के क्रम से यही तीनों ब्रह्म शक्तियाँ अस्तित्व में रखती हैं | प्रत्येक ब्रह्माण्ड के नायक ब्रह्मा विष्णु और महेश इन्हीं तीनों शक्तियों की सहायता से अपना अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करते हैं | 

स्थूल शक्ति – चौथी ब्रह्म शक्ति है स्थूल शक्ति | स्थूल जगत् का धारण, उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन आदि समस्त कार्य इसी स्थूल शक्ति के द्वारा ही सम्भव हैं |

ब्रह्म शक्ति के उपरोक्त चारों भेदों के आधार पर शक्ति उपासना का विस्तार और महत्व स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है | समस्त जगत् व्यापार का कारण ब्रह्म शक्ति ही है | वही सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है | वही जीव के बन्ध का कारण है | वही ब्रह्म साक्षात्कार और जीव की मुक्ति का माध्यम है | ब्रह्मशक्ति के विलासरूप इस ब्रह्माण्ड-पिण्डात्मक सृष्टि में भू-भुवः-स्वः आदि सात ऊर्ध्व लोक हैं और अतल-वितल-पाताल आदि सात अधः लोक हैं | ऊर्ध्व लोकों में देवताओं का वास होता है और अधः लोकों में असुरों का | सुर और असुर दोनों ही देवपिण्डधारी हैं | भेद केवल इतना ही है कि देवताओं में आत्मोन्मुख वृत्ति की प्रधानता होती है और असुरों में इन्द्रियोन्मुख वृत्ति की | इस प्रकार वास्तव में सूक्ष्म देवलोक में प्रायः होता रहने वाला देवासुर संग्राम आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का ही संग्राम है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता के ही कारण देवता कभी भी असुरों का राज्य छीनने की इच्छा नहीं रखते, वरन् अपने ही अधिकार क्षेत्र में तृप्त रहते हैं | जबकि असुर निरन्तर देवराज्य छीनने के लिये तत्पर रहते हैं | क्योंकि उनकी इन्द्रियोन्मुख वृत्ति उन्हें विषयलोलुप बनाती है | जब जब देवासुर संग्राम में असुरों की विजय होने लगती है तब तब ब्रह्मशक्ति महामाय की कृपा से ही असुरों का प्रभव होकर पुनः शान्ति स्थापना होती है | मनुष्य पिण्ड में भी जो पाप पुण्य रूप कुमति और सुमति का युद्ध चलता है वास्तव में वह भी इसी देवासुर संग्राम का ही एक रूप है | मानवपिण्ड देवताओं और असुरों दोनों के ही लिये एक दुर्ग के सामान है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर देवता इस मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करना चाहते हैं, तो इन्द्रियोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर असुर मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करने को उत्सुक होते हैं | जब जब मनुष्य इन्द्रियोन्मुख होकर पाप के गर्त में फँसता जाता है तब तब उस महाशक्ति की कृपा से दैवबल से ही वह आत्मोन्मुखी बनकर उस दलदल से बाहर निकल सकता है |

यह मृत्युलोक सात ऊर्ध्व लोकों में से भूलोक का एक चतुर्थ अंश माना जाता है | इसमें समस्त जीव माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं | इसी कारण इसे मृत्यु लोक कहा जाता है | अन्य किसी भी लोक में माता के गर्भ से जन्म नहीं होता | मृत्यु लोक के ही जीव मृत्यु के पश्चात् अपने अपने कर्मों के आधार पर सूक्ष्म शरीर से अन्य लोकों में दैवी सहायता से पहुँच जाते हैं | मनुष्य लोक के अतिरिक्त जितने भी लोक हैं वे सब देवलोक ही हैं | उनमें दैवपिण्डधारी देवताओं का ही वास होता है | सहजपिण्डधारी (उद्भिज्जादि योनियाँ) तथा मानवपिण्डधारी जीव उन दैवपिण्डधारी जीवों को देख भी नहीं सकते | ये समस्त देवलोक हमारे पार्थिव शरीर से अतीत हैं और सूक्ष्म हैं | देवासुर संग्राम में जब असुरों की विजय होने लगती है तब ब्रह्मशक्ति की कृपा से ही देवराज्य में शान्ति स्थापित होती है |

ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है | जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है | इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है | इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं | जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं | देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं | पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय | वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है | ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है | त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं | अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है | यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है |

दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है | इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है | यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है | पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि | इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है | दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है | मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है | तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं | ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं | दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है | जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है |

राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए | क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया | और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया :

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ||

तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्, सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाम् भवति मुक्तये ||

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी, संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ||

प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं | भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है | इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है | इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है | इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु | ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है | यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है | जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है | जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस | नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है | यही नाद मधु है | समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है | जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है | यही नादरस है कैटभ | क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है | मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है | यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप | यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं | क्योंकि तम में क्रिया नही  होती | अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई | क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है |

दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है | महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा : “ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नात्तः, निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च |” और वह तेज था कैसा “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् |” तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं | यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप | यों पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है | जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह जीव के कल्याणार्थ ही होता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है | युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है | यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक श्रृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है | सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था | लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही | अतः महिषासुर को भी उसके तप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था | इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो | शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है | युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं | इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है | इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है | महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया | इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं | इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है | पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है | तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी | तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया |

तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ | वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से

Mahishasurmardini
Mahishasurmardini

प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है | इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है | सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है | कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं | शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं | राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है | इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं | राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है | यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है | देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है | अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ | उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है | तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है | निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना इसी भाव का प्रकाशक है | निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है | और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है | यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है | वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है | इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है | इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती हैं | इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है |

सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ | तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ | वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है :

त्वं सच्चिदानन्दमये स्वकीये ब्रह्मस्वरूपे निजविज्ञभक्तान् |

तथेशरूपे विधाप्य मातरुपासकान् दर्शनामात्म्भक्तान् ||

निष्कामयज्ञावलिनिष्ठसाधकान् विराट्स्वरूपे च विधाप्य दर्शनम् |

श्रुतेर्महावाक्यमिदं मनोहरं करोष्यहो तत्वमसीति सार्थकम् ||

जैसा कि पहले ही बताया गया है कि शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है | सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है | किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है | जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना | इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है | कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है | यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है | इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है | लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है | इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है | एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है | यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है |

विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती | युद्ध तो प्रकृति का नियम है | लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था | और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था | और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था | वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है | और बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और विद्या आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है | भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है | शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को भारतीय जनमानस का कोटिशः नमन…         

___________________कात्यायनी