Ritu Vasant Ab Chehak Uthi
आज वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्व है और हम सब माँ वाणी का अभिनन्दन करेंगे | माँ वाणी – सरस्वती – विद्या की – ज्ञान की देवी हैं | ज्ञान का अर्थ है शक्ति प्राप्त करना, सम्मान प्राप्त करना | ज्ञानार्जन करके व्यक्ति न केवल भौतिक जीवन में प्रगति कर सकता है अपितु मोक्ष की ओर भी अग्रसर हो सकता है | पुराणों में कहा गया है “सा विद्या या विमुक्तये” (विष्णु पुराण 1/19/41) अर्थात ज्ञान वही होता है जो व्यक्ति को मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करे | मोक्ष का अर्थ शरीर से मुक्ति नहीं है | मोक्ष का अर्थ है समस्त प्रकार के भयों से मुक्ति, समस्त प्रकार के सन्देहों से मुक्ति, समस्त प्रकार के अज्ञान – कुरीतियों – दुर्भावनाओं से मुक्ति – ताकि व्यक्ति के समक्ष उसका लक्ष्य स्पष्ट हो सके और उस लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग स्पष्ट हो सके | हम सब ज्ञान प्राप्त करके भय तथा सन्देहों से मुक्त होकर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकें इसी कामना के साथ सभी को वसन्त पञ्चमी और सरस्वती पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ…
अभी पिछले दिनों कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी | वसन्त के आगमन के साथ ही सर्दी में भी कुछ कमी सी है | और ऐसे सुहाने मौसम में ऋतुराज वसन्त के स्वागत में प्रकृति के कण कण को उल्लसित करता हुआ वसन्त पञ्चमी का अर्थात मधुऋतु का मधुमय पर्व…
कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से विभूषित किया जाता है |
कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैं | संस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता था | इस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थे | यह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमी जनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था | आज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नर-नारी बाल-वृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं |
इस सबके पीछे कारण यही है कि इस समय प्रकृति में बहुत बड़े परिवर्तन होते हैं | सर्दियों की विदाई हो जाती है… प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकर – अपनी समस्त सीमाएँ तोड़कर – प्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती है… जिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैं… और प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती है… इसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता है…
और संयोग देखिए कि आज ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है… यों निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 यानी माघ शुक्ल एकादशी को हुआ था… लेकिन प्रकृति के सरस गायक होने के कारण 1930 से वसन्त पञ्चमी को उनका जन्मदिवस मनाने की प्रथा आरम्भ हुई…
तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँ… इस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकें… ताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें…
संग फूलों की बरात लिए लो ऋतु वसन्त अब चहक उठी ||
कोयल की तान सुरीली सी, भँवरे की गुँजन रसभीनी
सुनकर वासन्ती वसन धरे, दुलहिन सी धरती लचक उठी |
धरती का लख कर नवयौवन, लो झूम उठा हर चरन चरन
हर कूल कगार कछारों पर है मधुर रागिनी झनक उठी ||
ऋतु ने नूतन श्रृंगार किया, प्राणों में भर अनुराग दिया
सुख की पीली सरसों फूली, फिर नई उमंगें थिरक उठीं |
पर्वत टीले वन और उपवन हैं झूम रहे मलयानिल से
लो झूम झूम कर मलय पवन घर द्वार द्वार पर महक उठी ||
_____________कात्यायनी