हम क्या हैं
प्रायः हम अपने मित्रों से ऐसे प्रश्न कर बैठते हैं कि हमें तो अभी तक यही समझ नहीं आ रहा है कि हम हैं क्या अथवा हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ? हम इस माया मोह के चक्र से मुक्त होना चाहते हैं, किन्तु निरन्तर जाप करते रहने के बाद भी हम इस चक्रव्यूह को भेद नहीं पा रहे हैं | समझ नहीं आता क्या करें | इस प्रकार की बातों पर एक छोटी से कहानी का स्मरण हो आता है जो कभी अपनी माँ से सुनी थी | आज आपको भी सुना ही दें |
कहानी कुछ इस तरह से है कि एक चिड़िया का एक छोटा सा बच्चा था, जिसे वो चिड़िया उड़ना सिखा रही थी | हर दिन माँ अपने बच्चे को कोई न कोई नई बात सिखाती खुले आकाश में उड़ने के लिए – कोई न कोई नई तकनीक उसे करके दिखाती ताकि वह बच्चा उस तकनीक को सीख कर इस विशाल और असीम आकाश में जितनी दूर और जितनी ऊँची चाहे उड़ान भर सके | बहुत समय तक बच्चा अपनी माँ के साथ उड़ने का अभ्यास करता रहा | एक दिन जब माँ को लगा कि अब उसका बच्चा इतना सीख चुका है कि उसे अब अकेले आकाश नापने के लिए भेजा जा सकता है तो उसने बच्चे को उड़ान भरने की आज्ञा दे इ | जब वो घोसले से बाहर निकलने लगा तो माँ ने समझाया “बेटा पहली बार अकेले जा रहे हो और अब हर दिन अपना दाना चुग्गा चुनने अकेले ही जाया करोगे, क्योंकि अब तुम बड़े हो गए हो और आत्मनिर्भर बन सकते हो | लेकिन बेटा सदा ही कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखना | एक तो शाम को घर जल्दी वापस लौट आना – सूर्यास्त से पहले ही, देर मत करना | दूसरे, रास्ते में कहीं व्यर्थ में ही मत रुकना, आजकल पंछियों को जाल में फँसाने की ताक में लोग बैठे रहते हैं और दाने का लालच देते रहते हैं | साथ ही मन में बस एक ही मन्त्र का जाप करते रहोगे कि “मैं किसी लालच में नहीं पडूँगा और शिकारियों से सावधान रहूँगा |” तो ये बात तुम्हारे मन में बैठ जाएगी और तुम सदा शिकारियों की ओर से सावधान रहोगे…” माँ ने बार बार इस मन्त्र का जाप बच्चे से कराया और बच्चा खुले आकाश में उड़ान भरने लगा |
एक दिन बहुत देर हो गई, सूर्यदेव छिप गए, लेकिन बच्चा नहीं लौटा | माँ को चिन्ता होनी स्वाभाविक थी | चिन्तित माँ बच्चे की खोज में निकली | कुछ दूर जाने पर क्या देखती है कि उसका बच्चा किसी शिकारी के जाल में फँसा हुआ है और माँ के दिए मन्त्र का जाप किये जा रहा है “मैं किसी लालच में नहीं पडूंगा और शिकारियों से सावधान रहूँगा |”
हमारा जीवन भी ऐसा ही है | हम निरन्तर अपने गुरुजनों द्वारा दिए गए इसी मन्त्र का जाप करते रहते हैं कि अपनी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हम किसी लालच में नहीं फँसेंगे, किन्तु केवल वाणी से “जाप” भर करते हैं | इस मन्त्र का अर्थ जानते भी हैं, किन्तु उस अर्थ को “समझने” का प्रयास नहीं करते | सब कुछ जानते हुए भी प्रायः हम अपनी ही अभिलाषाओं और अहंकार के जाल में फँसते चले जाते हैं और उन्हीं के अनुरूप कर्म और प्रयास करते रहते हैं | तो सबसे बड़ी समस्या यहीं पर है | हम स्वयं इस तथ्य की खोज में असफल रहते हैं कि हम वास्तव में चाहते क्या हैं और बहुत शीघ्र ही बहुत छोटी छोटी सारहीन बातों और वस्तुओं की ओर आकर्षित होकर मान बैठते हैं कि यही तो हमें चाहिए | कुछ दिनों के बाद उससे उकता जाते हैं और फिर किसी नवीन वस्तु की ओर आकर्षित हो जाते हैं | और यही क्रम जीवन भर चलता रहता है |
इसलिए, हमें बड़ी सावधानी से इस तथ्य को समझने का प्रयास करना चाहिए कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, उसके लिए हम कितना प्रयास कर रहे हैं और उन प्रयासों से हमारी क्या अपेक्षाएँ हैं | पूरी निष्ठा तथा विश्वास के साथ यदि ऐसा करेंगे तो कर्म भी अनुकूल दिशा में करेंगे जिनके कारण सफलता अवश्य प्राप्त होगी, क्योंकि निष्ठा और विश्वास ही मूर्त रूप में परिणत होते हैं | जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा भी है कि सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व अर्थात स्वभाव और संस्कार के अनुरूप होती है | मनुष्य स्वभाव से ही श्रद्धावान है, इसलिए जो व्यक्ति जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वैसा ही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा होगी वैसा ही उसका रूप, गुण, धर्म होगा तथा उसी के अनुरूप उसका कर्तव्य कर्म तथा प्रयास होगा…
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ||17/3||
इसलिए हमें अपने स्वयं के प्रति ईमानदार होने की आवश्यकता है कि हम अपने विषय में क्या सोचते हैं, क्या करना चाहते हैं | कोई अन्य न तो यह जानना चाहेगा कि हम स्वयं अपने विषय में क्या सोचते हैं न ही वह हमें यह बता पाने में समर्थ ही होगा | हमें स्वयं ही स्वयं के समक्ष यह सिद्ध करना होगा कि हमने किसी लालच के फँसे बिना कितनी निष्ठा और कितने विश्वास के साथ प्रयास किया है स्वयं को जानने का… तभी हम अपने जीवन का उद्देश्य समझ पाएँगे, तभी अनुकूल कर्म करते हुए अपने प्रयासों में सफल हो पाएँगे और तभी हमारी स्वयं के प्रयासों से जो अपेक्षाएँ हैं वे सन्तुष्ट हो पाएँगी…
डॉ पूर्णिमा शर्मा