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Festival of Hindi Poetry on Spring

Festival of Hindi Poetry on Spring

वसन्त पर हिन्दी कविताओं का उत्सव

नमस्कार ! WOW India के सदस्यों की योजना थी कि कुछ कवि और कवयित्रियों की वासन्तिक रचनाओं से वेबसाइट में वसन्त के रंग भरेंगे, लेकिन स्वर साम्राज्ञी भारत

Lata Mangeshkar
Lata Mangeshkar

कोकिला लता मंगेशकर जी के दिव्य लोक चले जाने के कारण दो दिन ऐसा कुछ करने का मन ही नहीं हुआ… जब सारे स्वर शान्त हो गए हों तो किसका मन होगा वसन्त मनाने का… लेकिन दूसरी ओर वसन्त भी आकर्षित कर रहा था… तब विचार किया कि लता दीदी जैसे महान कलाकार तो कभी मृत्यु को प्राप्त हो ही नहीं सकते… वे तो अपनी कला के माध्यम से जनमानस में सदैव जीवित रहते हैं…

नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे

और यही सब सोचकर आज इस कार्य को सम्पन्न कर रहे हैं… लता दीदी वास्तव में माता सरस्वती की पुत्री थीं… तभी तो उनका स्वर कभी माँ वाणी की वीणा जैसा प्रतीत होता है… कभी कान्हा की बंसी जैसा… तो कभी वासन्तिक मलय पवन संग झूलते वृक्षों के पत्रों के घर्षण से उत्पन्न शहनाई के नाद सरीखा… तभी तो नौशाद साहब ने अपने एक इन्टरव्यू में कहा भी था “लता मंगेशकर की आवाज़ बाँसुरी और शहनाई की आवाज़ से इस क़दर मिलती है कि पहचानना मुश्किल हो जाता है कौन आवाज़ कण्ठ से आ रही है और कौन साज़ से…” उन्हीं वाग्देवी की वरद पुत्री सुमधुर कण्ठ की स्वामिनी लता दीदी को समर्पित है इस पृष्ठ की प्रथम रचना… माँ वर दे… सरस्वती वर दे…
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
वीणा पर वह भैरव गा दे, जो सोए उर स्वतः जगा दे |
सप्त स्वरों के सप्त सिन्धु में सुधा सरस भर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
गूँज उठें गायन से दिशि दिशि, नाच उठें नभ के तारा शशि |

Vasant Panchami
Vasant Panchami

पग पग में नूतन नर्तन की चंचल गति भर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
तार तार उर के हों झंकृत, प्राण प्राण प्रति हों स्पन्दित |
नव विभाव अनुभाव संचरित नव नव रस कर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
वीणा पुस्तक रंजित हस्ते, भगवति भारति देवि नमस्ते |
मुद मंगल की जननि मातु हे, मुद मंगल कर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…

अब, वसन्त का मौसम चल रहा है… जो फाल्गुन मास से आरम्भ होकर चैत्र मास तक रहता है… फाल्गुन मास हिन्दू वर्ष का अन्तिम महीना और चैत्र मास हिन्दू नव वर्ष का प्रथम माह होता है… भारतीय वैदिक जीवन दर्शन की मान्यता कितनी उदार है कि वैदिक वर्ष का समापन भी वसन्तोत्सव तथा होली के हर्षोल्लास के साथ होता है और आरम्भ भी माँ भगवती की उपासना के उल्लास और भक्तिमय पर्व नवरात्रों के साथ होता है… तो प्रस्तुत हैं हमारे कुछ साथियों द्वारा प्रेषित वासन्तिक रचनाएँ… सर्वप्रथम प्रस्तुत है डॉ ऋतु वर्मा द्वारा रचित ये रचना… प्रेम वल्लरी
हवाओं को करने दो पैरवी,
हौले हौले फूलों को रंग भरने दो
बस चुपचाप रहो तुम,
प्रेम वल्लरी अंबर तक चढ़ने दो
किरनों आओ, आकर धो दो हृदय आंगन
अब यहां आकर रहा करेंगे, सूर्य आनन
धड़कनों को घंटनाद करने दो,
विवादों को शंखनाद करने दो
प्रेम वल्लरी…..
सौंदर्यमयी आएगी पहनकर / नीहार का दुशाला
तुम भी दबे पांव आना / अति सजग है उजाला
प्रेम प्रालेय को देह पर गिरने दो,
चश्म के चश्मों को नेह से भरने दो
प्रेम वल्लरी….
ये हृदयहीन जाड़ा, क्यूं गलाये स्वप्न?
तेरा अलाव सा आगोश, पिघलाये स्वप्न
कहीं दूर शिखरों पर बर्फ गिरती है, तो गिरने दो
जलती है दुनिया पराली सी, तो जलने दो
प्रेम वल्लरी…..

और अब, रेखा अस्थाना जी की रचना… सखी क्या यही है वसन्त की भोर?

सखि क्या यही है वसन्त की भोर ?

खोल कपाट अलसाई नैनों से / देखा मैंने जब क्षितिज की ओर |
सुगंध मकरंद की भर गई / चला न पाई संयम का जोर ||
सखी कहीं यही तो नहीं वसन्त की भोर? |
फिर चक्षु मले निज मैंने / लगी तकन जब विटपों की ओर |
देख ललमुनियों का कौतुक / प्रेमपाश में मैं बंध गई
भीग उठे मेरे नयन कोर |
सखी यही तो नहीं वसन्त की भोर ||
फिर पलट कर देखा जब मैंने / बौराए अमुआ गाछ की ओर,
पिक को गुहारते वेदना में / निज साथी को बुलाते अपनी ओर |
देख उनकी वेदना, पीड़ा उठी मेरे पोर पोर |
सखी क्या यही है वसन्त की भोर ||
सुनकर भंवरे की गुंजार / पुष्प पर मंडराते करते शोर
अंतर भी मेरा मचल उठा |
सुन पाऊँ शायद मैं इस बार सखी
अपने प्रियतम के बोल |
लग रहा मुझको तो सखी यही है
अब वसन्त की भोर ||
मृदुल, सुगंधित, सुरभित बयार ने
आकर जब छुआ मेरे कोपलों को,
तन ऊर्जा से भर गया मेरा |
खुशी का रहा नहीं मेरा ओर-छोर |
अलि अब तो समझ ही गयी मैं,
यही तो है वसन्त की भोर ||

अब डॉ नीलम वर्मा जी का हाइकु…

बसंत-हाइकु

उन्मुक्त धरा

गा दिवसावसान

बसंत- गान

– नीलम वर्मा

अब पढ़ते हैं गुँजन खण्डेलवाल की रचना… पधार गए रति नरेश मदन…

माघ पौष से ठिठुरी, शुष्क धारा रति,

रूठी, उदास, फीकी, मन की जान रही गति,

सर्द तीखी हवा में बिखराए दूर्वा कुंतल,

रात भर तृण तृण पर बिछा तुहिन,

बुझाती विरह अनल,

श्वेत हिम के बगूलो से स्वयं जम गई,

नव सूर्य की प्रथम रश्मि से धीरे से पिघल गई,

उत्तरायण में ज्यों ली दिनकर ने करवट,

संवारने लगी वसुंधरा रूप अपना झटपट,

डगर, द्वार सजने लगी बलखाती लतिकाओं की बंदनवार,

कहे वसुधा – उठ अलि, उठ कलि, कर मेरा सोलह श्रृंगार,

सखी कोयल लगी कुहुकने, कीट भृंग करें गुंजार,

सुप्त तितलियों ने त्याग निद्रा सतरंगी पंख दिए पसार,

सरसों ने फैलाया उन्मुक्त पीला आंचल, दी लज्जा बिसार

रंग बिरंगे पुष्पों से शोभित हुए उपवन – अवनि,

बालियों से अवगुंठित पहन हार, ऋतुराज ढूंढे सजनी,

झटक कर अपने पुराने वसन,

नूतन पत्र पंखों से वृक्ष करते अगुवाई,

आंख मिचौली खेलती धूप, स्निग्ध ऊष्म से देती बधाई,

लहलहाने लगे खेत, उपवन करते अभिनंदन,

ईख उचक उचक लहराते, झुक झुक करते वंदन,

आम्रमंजरी, नव नीम पल्लव, पीपल कर रहे नमन,

चिड़ियों की चहक बजाएं ढोल शहनाई,

प्रफुल्ल पक्षियों ने जल तरंग बजाई,

लचकती टहनियां झूमें, छेड़े जो मलय पवन,

आनंद, प्रेम रस में हिलोरे लेते धरती गगन,

कामदेव प्रिया पीत अमलतास बिछाए,

शीश पर धर मयूर पंख किरीट रतिप्रिय मुस्काए,

कुमकुमी उल्लास, गुनगुनाते प्रेम राग पधार रहे ऋतुराज मदन,

पधार गए रति नरेश मदन।।

और अब प्रस्तुत है अनुभा पाण्डे जी की रचना… लो दबे पाँव आ गया वसन्त है…

धरती की हरिता पर यौवन अनंत है,

दिनकर की छाँव में प्रस्फुटित मकरंद है, पल्लवित कोंपलों में मंद हलचल बंद है,

लो दबे पाँव आ गया बसंत है |

शुष्क पत्र के छोड़ गलीचे,

झुरमुट हटा निस्तेज डाल की,

उल्लास की पायल झनकाती,

नव-जीवन मदिरा छलकाती,

धनी चूनर पहने धरती सराबोर रसरंग है…

लो दबे पाँव आ गया बसंत है |

झूम रहीं डाली, कलियाँ,

पत्ते सर-सर कर डाल रहे,

खेतों में नाचे गेहूँ, सरसों,

नभचर उन्मुक्त हुए, गगन मानो तोल रहे,

धरती, बयार दोनों थिरक रहे संग हैं…

लो दबे पाँव आ गया बसंत है |

फिर से कोयल कूकेगी,

फिर से अमरायी फूटेगी,

ओट से जीवन झांकेगा,

शैथिल्य की तंद्रा टूटेगी,

सुप्त तम का क्षीण-क्षीण हो रहा अंत है…

लो दबे पाँव आ गया बसंत है |

नयनाभिराम, अनुपम ये दृश्य,

रति- मदन मगन कर रहे हों नृत्य,

देव वृष्टि कर रहे ज्यों पुष्य,

मधु-पर्व की रागिनी पर सृष्टि की लय- तरंग,

शीत के कपोल पर कल्लोल कर रहा बसंत है,

लो दबे पाँव आ गया बसंत है |

माँ झंकृत कर दो मन के तार,

अलंकृत हों उद्गार, विचार,

हे वीना- वादिनी! दे विद्या उपहार,

धनेश्वरी, वाक्येश्वरी माँ! प्रार्थना करबद्ध है…

लो दबे पाँव आ गया बसंत है |

लो दबे पाँव आ गया बसंत है ||

अब प्रस्तुत कर रहे हैं रूबी शोम द्वारा रचित ये अवधी गीत… आए गवा देखो वसन्त…
आय गवा देखो बसंत, पिया नहीं आए रे
देखो सखी मोर जिया, हाय घबराए रे -3
फूल गेंदवा से चोटी, मैंने सजाई रे,
देख देख दरपन मा खुद ही लजाई रे |
अंजन से आंख अपन आंज लिंहिं आज रे
पर मोर गुइयां देखो साजन अबहुं नहीं आए रे |
आय गवा देखो बसंत सखी पिया नहीं आए रे |
पियर पियर सारी और लाल च चटक ओढ़नी
पहिन मै द्वारे के ओट बार बार जाऊं रे |
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे -3
पियर पियर बेर शिव जी को चढ़ाऊं रे
पूजा के बहाने अब तो पिया का पंथ निहारूं रे
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे |
पांती लिख लिख भेज रही मै हृदय की ज्वाला जल रही
आ जाओ पिया फाग में रूबी तुमरी मचले रे |
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे
देखो सखी मोर जिया हाय घबराए रे |
ये है नीरज सक्सेना की रचना… बसंत…
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
धरती से पतझड़ की सायें का अंत
बेलों में फूलों की खुशबू अनंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
रचा सरसों के खेतों में बासंती रंग
इठलाई अमुआ की डाली बौरों के संग
कोयलियां कि कुह कुह जगावें उमंग
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बहे मंद मंद पवन लेके भीनी सुगंध
घटी सर्दी की चादर कुहासें का अंत
दिनकर की आभा से चमचम दिगंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
गूंजे भौरें की गुंजन मधुप चखें मरकंद
देख मौसम के रंग जुड़े प्रेम के प्रसंग
जगे आशा की किरणें जगे भाव जीवंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं!

ये रचना श्री प्राणेन्द्र नाथ मिश्रा जी की है… आनन्द हो जीवन में…

नीरसता थी, नीरव था विश्व
हर ओर मौन छाया तब तक
मां सरस्वती की वीणा से
गूंजी झंकार नहीं जब तक |
अभिलाषा! ले आ राधातत्व
जीवन हो जाए कृष्ण भक्त,
शारदे की वीणा झंकृत हो
आलोक ज्ञान रस धरा सिक्त |
हो, कुसुम कली का कलरव हो
मन मारे हिलोरें दिशा दिशा
ढूंढती फिरे अमावस को
उत्सुक हो कर ज्योत्सना निशा |
झूमे पलाश, करे मंत्र पा
आहुति दे पवन, लिपट करके
नृत्यांगना बन कर वन देवी
नाचे पीपल से सिमट कर के |
यह पर्व है या यह उत्सव है
पावन मादकता है मन में
छूती वसंत की गलबहियां
कहतीं, आनंद हो जीवन में!

 

अब पढ़ते हैं नीरज सक्सेना जी की रचना… आया वसन्त…

सखी आया वसंत सखी छाया वसंत

धरती से पतझड़ की सायें का अंत

बेलों में फूलों की खुशबू अनंत

सखी आया वसंत सखी छाया वसंत

रचा सरसों के खेतों में बासंती रंग

इठलाई अमुआ की डाली बौरों के संग

कोयलियां कि कुह कुह जगावें उमंग

सखी आया वसंत सखी छाया वसंत

बहे मंद मंद पवन लेके भीनी सुगंध

घटी सर्दी की चादर कुहासें का अंत

दिनकर की आभा से चमचम दिगंत

सखी आया वसंत सखी छाया वसंत

गूंजे भौरें की गुंजन मधुप चखें मरकंद

देख मौसम के रंग जुड़े प्रेम के प्रसंग

जगे आशा की किरणें जगे भाव जीवंत

सखी आया वसंत सखी छाया वसंत

 

और अन्त में, डॉ रश्मि चौबे की रचना… देखो सखी, आया बसंत

यहाँ मौन निमंत्रण देता, देखो ,सखी आया बसंत !

धरती का यौवन देख सखी, फिर मुस्काया बसंत |

यहाँ मौन निमंत्रण देता, देखो, सखी आया बसंत |

वीणा वादिनी की धुन पर, कोकिला पंचम स्वर में गाती,

गुलाब सा चेहरा खिलाए, कोपलों से मेहंदी रचाती,

सरसों की ओढ़ चुनरिया, मलयगिरि संग चली है,

आम्र की डाल बौराई है, जैसे कंगना पहन चली है,

और स्वर्णिम रश्मियों से, नरमाई, कुछ शरमाई सी,

धरती का यौवन देख सखी, फिर मुस्काया बसंत |

हरियाली का लहंगा देखो, कितने रंगों से सजाया है,

पीली-पीली चोली देखो, गेंदों ने हार पहनाया है,

पाँव में छोटे फूल बिछे, जैसे कालीन बिछाया है,

देखो सब मदहोश हुए हैं, मदन ने तीर चलाया है,

आज वसुधा ने दुल्हन बन, बसंत से ब्याह रचाया है,

यहां मौन निमंत्रण देता, देखो फिर मुस्काया बसंत |

चलो सखी हम नृत्य करें, आओ यह त्योहार मनाते हैं,

मन सप्त स्वरों में गाता है, पग ठुमक- ठुमक अब जाता है,

राधा -श्याम की मुरली में, मेरा हृदय रम जाता है |

गुप्त नवरात्रों में माँ दुर्गे ने, योगियों के सहस्रार खिलाए है,

आ चल विवाह के मंडप में सखी, आत्मा को परमात्मा से मिलाएं |

संकलन – डॉ पूर्णिमा शर्मा…