हिन्दू मान्यता के अनुसार ऋद्धि सिद्धिदायक भगवन गणेश किसी भी शुभ कार्य में सर्वप्रथम पूजनीय माने जाते हैं | गणेश जी को विघ्नहर्ता माना
जाता है, यही कारण है कि कोई भी शुभ कार्य आरम्भ करने से पूर्व गणपति का आह्वाहन और स्थापन हिन्दू मान्यता के अनुसार आवश्यक माना जाता है | चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को समर्पित मानी जाती है और इस दिन गणपति की उपासना बहुत फलदायी मानी जाती है |
माह के दोनों पक्षों में दो बार चतुर्थी आती है | इनमें पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है और अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहा जाता है | इस प्रकार यद्यपि संकष्टी चतुर्थी का व्रत हर माह में होता है, किन्तु माघ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का विशेष महत्त्व माना जाता है |
इस वर्ष कल यानी 29 जनवरी को माघ कृष्ण चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी का व्रत किया जाएगा – जिसे विघ्न विनाशक गणपति की पूजा अर्चना के कारण लम्बोदर चतुर्थी तथा आम भाषा में सकट चौथ के नाम से भी जाना जाता है | कल सूर्योदय 7:11 पर है, उससे एक घण्टा पूर्व 6:11 के लगभग बव करण और शोभन योग में चतुर्थी तिथि का आगमन होगा जो तीस तारीख़ को प्रातः 8:55 तक रहेगी, अतः कल ही संकष्टी चतुर्थी के व्रत का पालन किया जाएगा | कल चन्द्र दर्शन रात्रि नौ बजकर दस मिनट के लगभग होगा | इस व्रत को माघ मास में होने के कारण माघी भी कहा जाता है तथा इसमें तिल के सेवन का विधान होने के कारण तिलकुट चतुर्थी भी कहा जाता है | उत्तर भारत में तथा मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इस व्रत की विशेष मान्यता है और विशेष रूप से माताएँ अपनी सन्तान की मंगल कामना से इस व्रत को करती हैं |
गणपति की पूजा अर्चना के साथ ही संकष्टी माता या सकट माता की उदारता से सम्बन्धित कथा का भी पठन और श्रवण इस दिन किया जाता है | कथा अनेक रूपों में है – अपने अपने परिवार और समाज की प्रथा के अनुसार कहीं भगवान शंकर और गणेश जी की कथा का श्रवण किया जाता है कि किन परिस्थितियों में गणेश जी को हाथी का सर लगाया गया था | कहीं कुम्हार की कहानी भी कही सुनी जाती है | तो कहीं कहीं गणेश जी और बूढ़ी माई की कहानी तो कहीं साहूकारनी की कहानी कही सुनी जाती है | किन्तु, जैसी कि अन्य हिन्दू व्रतोत्सवों की कथाओं के साथ कोई न कोई नैतिक सन्देश जुड़ा होता है, इन कथाओं में भी कुछ इसी प्रकार के सन्देश निहित हैं कि कष्ट के समय घबराना नहीं चाहिए अपितु साहस से बुद्धि पूर्वक कार्य करना चाहिए, माता पिता की सेवा परम धर्म है, लालच और ईर्ष्या अन्ततः कष्टप्रद ही होती है तथा मन में लिए संकल्प को अवश्य पूर्ण करना चाहिए |
साथ ही, पूजा में जो तिलकुट का प्रयोग किया जाता है वह भी ऋतु के अनुसार ही है – तिल और गुड़ का कूट बनाकर भोग लगाया जाता है जो कडकडाती ठण्ड में कुछ शान्ति प्राप्त करने का अच्छा उपाय है | ऐसा भी माना जाता है कि तिल में फाइबर और एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा अधिक होने के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है | ऐसा भी ज्ञात हुआ है कि तिल में जो एंटीऑक्सीडेंट होता है वह अनेक प्रकार के कैंसर की सम्भावनाओं को क्षीण करता है | तिलों के सर्दियों में सेवन से जोड़ों में दर्द नहीं होता, स्निग्ध बनी रहती है | बालों के लिए भी तिल उपयोग लाभकारी माना जाता है | वैसे ये सब दादी नानी के नुस्ख़े हैं, मूल रूप से तो ये सब डॉक्टर्स के विषय हैं – वही इस दिशा में जानकारी दें तो अच्छा होगा |
अस्तु ! हम सभी परस्पर प्रेम और सौहार्द की भावना के साथ ऋद्धि सिद्धिदायक विघ्नहर्ता भगवान गणेश का आह्वाहन करें और प्रार्थना करें कि गणपति सभी को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखें… इसी कामना के साथ सभी को संकष्टी चतुर्थी के व्रत की हार्दिक शुभकामनाएँ…
तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिन: || हितोपदेश 1/35
अल्प वस्तुओं को भी यदि
एकत्र करें, एक डोर में गूंथे
कार्य सिद्ध उनसे हो जाए
गर्व से सर ऊंचा हो जाए
तिनकों से एक डोर बने जब
करि मदमत्त भी बंध जाता है
मनुज एकता भाव में बंधकर
बड़े लक्ष्य भी पा सकता है
जी हां, छोटी छोटी वस्तुओं को भी यदि एक स्थान पर एकत्र किया जाए तो उनके द्वारा बड़े से बड़े कार्य भी किये जा सकते हैं | उसी प्रकार जैसे घास के छोटे छोटे तिनकों से बनाई गई डोर से एक मत्त हाथो को भी बाँधा जा सकता है | वास्तव में एकता में बड़ी शक्ति है ऐसा हम सभी जानते हैं | तो क्यों न गणतन्त्र दिवस के शुभावसर पर हम सभी मनसा वाचा कर्मणा एक हो जाने का संकल्प लें ? इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम सब एक जैसे ही कार्य करें, एक जैसी ही बोली बोलें या एक जैसे ही विचार रखें | निश्चित रूप से ऐसा तो सम्भव ही नहीं है | प्रत्येक व्यक्ति की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक आदि विभिन्न परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुसार हर व्यक्ति मनसा वाचा कर्मणा एक दूसरे से अलग ही होगा | हर कोई एक ही बोली नहीं बोल सकता | हर व्यक्ति की सोच अलग होगी | हर व्यक्ति का कर्म अलग होगा | मनसा वाचा कर्मणा एक होने का अर्थ है कि हम चाहे अपनी परिस्थितियों के अनुसार जो भी कुछ करें, पर मन वचन और कर्म से किसी अन्य को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का जाने अनजाने प्रयास न करें | और जब आवश्यकता हो तो पूरी दृढ़ता के साथ एक दूसरे को सहयोग दें | मनसा वाचा कर्मणा एक सूत्र में गुँथने का अर्थ है कि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याओं और आवश्यकताओं के साथ साथ सामूहिक समस्याओं और आवश्यकताओं पर भी ध्यान दें… जैसे बच्चों और महिलाओं का सशक्तीकरण यानी Empowerment… और बच्चों तथा महिलाओं का स्वास्थ्य यानी Good Health… यदि इन दोनों विषयों के लिए हम सामूहिक प्रयास करते हैं तो हम मनसा वाचा कर्मणा एकता की डोरी में ही गुँथे हुए हैं… सर शान से उठाए लहराता तिरंगा भी यही तो सन्देश देता है कि कितनी भी विविधताएँ हो, कितने भी वैचारिक मतभेद हों, किन्तु अन्ततोगत्त्वा राष्ट्रध्वज के केन्द्र में चक्रस्वरूप सबके विचारों का केन्द्र देश ही होता है… अर्थात अपने अपने कार्य करते हुए, अपनी अपनी सोच के साथ, अपनी अपनी भाषा का सम्मान करते हुए साथ मिलकर आगे बढ़ते जाना… ऐसी स्थिति में न विचार बाधा बनेंगे, न भाषा, न वर्ण, न वेश, और न ही कर्म… ऐसे देश को निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर होने से कोई रोक नहीं सकता…
समानो मन्त्र: समिति: समानी, समानं मन: सहचित्तमेषाम् |
समानं मन्त्रमभिमन्त्रयेव:, समानेन वो हविषा जुहोमि || – ऋग्वेद
हम सब कार्य करें संग मिलकर
एक समान विचार बनाकर
चित्त और मन एक जैसे हों
और मन्त्रणा भी हो मिलकर
तब ही सम निष्कर्ष पे पहुँचें
राष्ट्र के हित में हर पल सोचें
सद्भावों के यज्ञ से जग को
करें सुगन्धित साथ में मिलकर
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसासम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया | – अथर्ववेद
भाई भाई में द्वेष रहे ना
दो बहनों में क्लेश रहे ना
जग सेवा संकल्पित हों सब
वाणी में कोई खोट रहे ना
प्रेममयी वाणी से जग को
स्नेहसरस आओ अब कर दें
ॐ सहनाववतु | सहनौ भुनक्तु | सहवीर्य करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै – कृष्ण यजुर्वेद
साथ में मिलकर कार्य करें सब
स्नेह भाव हो सबके मन में
साथ में मिलकर भोग करें सब
त्याग भाव हो सबके मन में
शौर्य करें सब, साथ खड़े हों
और अध्ययन तेजस्वी हो
द्वेष भाव का त्याग करें सब
राम राज्य हो सबके मन में
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं,
नाना धर्माणां पृथिवी यथौकसम् |
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां,
ध्रुवेव धेनु: अनपस्फुरन्ती || – अथर्ववेद
विविध धर्मं बहु भाषाओं का देश हमारा,
सबही का हो एक सरिस सुन्दर घर न्यारा ||
राष्ट्रभूमि पर सभी स्नेह से हिल मिल खेलें,
एक दिशा में बहे सभी की जीवनधारा ||
निश्चय जननी जन्मभूमि यह कामधेनु सम,
सबको देगी सम्पति, दूध, पूत धन प्यारा ||
हमारे वैदिक ऋषियों ने किस प्रकार के परिवार, समाज और राष्ट्र की कल्पना की थी – एक राष्ट्र एक परिवार की कल्पना – ये कुछ मन्त्र इसी कामना का एक छोटा सा उदाहरण हैं… अभी 26 जनवरी को हमारे देश के महान गणतंत्र दिवस का समारोह सभी देशवासियों ने पूर्ण हर्षोल्लास से मनाया… इस महान अवसर पर वैदिक ऋषियों की इस उदात्त कल्पना को हम अपने जीवन का लक्ष्य बनाने का संकल्प लें यही वास्तविक उत्सव होगा गणतंत्र का… और इसी भावना के साथ हमारे WOW India के कुछ सदस्यों ने अपने मन के भावों को शब्दों की माला में पिरोकर हमें भेजा जो प्रस्तुत हैं इस संकलन में… जयहिन्द… वन्देमातरम्…
—–कात्यायनी
जो भारत पर जान दिए फिर आजादी संजो लाए थे,
जो अपना सर्वस्व देश हित हंस कर यहां गवाएं थे,
है नमन उन्हें है नमन उन्हें शत बार नमन है वीरों को,
जो पहने माला फांसी की आजादी दुल्हन लाए थे,
– मीना कुण्डलिया
दिलो जाँ से प्यारा, चमन ये हमारा
है सोने की चिड़िया, वतन ये हमारा
है महफ़ूज़ अब ये जमीं, ये समंदर
है महफ़ूज़ नीला, गगन ये हमारा
ये माना कि आसाँ नहीं राह आगे
है बेखौफ़ फिर भी तो मन ये हमारा
रहे परचम-ए-हिंद ऊंचा जहाँ में
ना टूटे कभी भी , वचन ये हमारा
– डा नीलम वर्मा
बलिदानी, रचनाकार थे कल
देकर स्वतंत्रता आगे बढ़े
प्रतिनियति रक्त दे भारत को
इस देश की रचना को भी गढ़े |
परिणाम है उनकी रचना का
हम प्रजातंत्र के देश में हैं
गणतंत्र विधाएं अपनी है
बलिदानी, भारत भेष में है |
करते हैं नमन उन वीरों को
जो आज का दिन दिखलाएं हैं
भारत स्वतंत्रता रक्त रचित
से प्रजातंत्र हम पाए हैं |
सम्मानित हो यह प्रजातंत्र
सम्मानित हो गणतंत्र दिवस
बच्चा बच्चा यह बोल रहा
जय भारत, जय भारत अंतस |
– प्राणेंद्र नाथ मिश्र
राष्ट्र ही आराधना है , राष्ट्र ही मेरा सुधर्म ,
राष्ट्र ही बस वन्दना है , राष्ट्र ही मेरा सुकर्म ,
राष्ट्र को ही हूं समर्पित ,मैं मेरे मन,क्रम ,वचन ,
राष्ट्र सबका राष्ट्र के सब,राष्ट्र को शत-शत नमन ।
धन-मन मेरा है राष्ट्र का , राष्ट्र को अर्पित यह तन ,
राष्ट्रवादी हों देशवासी , हो राष्ट्रवादी प्रत्येक जन ,
काट कर विद्वेष के तम , हो उदय नव भास्करम् ,
आज निकले हर हृदय से, बस एक वन्देमातरम् ।
अनेकता को एकता में हमने संवारा है ,
मूलमन्त्र पंचशील के भी तो हमारे हैं।
हिमगिरि-मुकुट शीश शोभित है देश के,
चरण पखारें हिन्द,अरब उदधि प्यारे हैं।।
नदियों की धाराएं ज्यों धमनी, शिराएं हों ,
वन-उपवन ज्यों हों फुफ्फुसीय रचनाएं ।
ज्यों हों मजबूत अस्थि पंजर भारत देश का,
वो हैं अरावली व दोनों घाट पर्वत-श्रंखलाएं।।
निगमागम,पुराणों की शुचि भूमि भारत
है,देवों के विविध अवतार बहु बखाने हैं।
सलिला,गिरि, मूर्तियां,सूर्य,चन्द्र पूज्य यहां ,
धर्म, सम्प्रदाय,पंथ, संस्कृति बहु जाने हैं ।।
वेद-चक्षु मानते हैं, ईश्वरीय विज्ञान ज्योतिष ,
ऋग्वेद से प्रतिष्ठित देश की ज्यों आत्मा हैै।
जैमिनी, पाराशरी,के पी,रमल हैं आंकिकी ,
विविध शाखा, विविध विधि स्वीकार्यता है।।
विविध हैं मन्दिर और पूजा स्थल भी विविध,
ग्रहस्थ-संत,फकीर,योगी,साधु भी धर्मात्मा हैं।
ध्यान,भक्ति, ज्ञान,हठ,लय, तंत्र,राज योग में ,
विविध योगी,साधनारत,मिशन में परमात्मा हैं।।
वेशभूषा भी विविध हैं और खान-पान भी ,
विविध हैं भाषा यहां, विविध उच्चारण भी हैं।
विविध सम्मिश्रण मृदा का,भूमिगत जल भी
विविध,प्रथकत: प्रदेशों का वातावरण भी है ।।
विविध भाषा,भाषी,साधक साधनाऐं भिन्न हैं,
खाना,पानी, वेशभूषा, गर्मी-ठण्डक भिन्न हैं ।
निगम,आगम,पुराण, ज्योतिष भी विविध हैं,
संस्कृति, साहित्य, देवी देवता भी विविध हैं।।
विविध राजनैतिक दलों की धारणाएं भिन्न हैं ,
भिन्न हैं सबके समर्थक, झण्डे,नारे भिन्न हैं।
विविधता में एकता ही इस देश की बस एक है,
बात हो जब देश की तो भारतीय सब एक हैं।।
एक है जन,गण,मन हमारा,एक ही विज्ञान है,
हरेक जन,गण के ही मन पर सभी का ध्यान है ।
अवसरों,अभिव्यक्ति, शिक्षा, आस्था, स्वतंत्र है,
विविध पुष्पों के गुच्छ सा अभिनव मेरा गणतंत्र है।।
प्रभात शर्मा
गण के लिए ही गण के द्वारा हिन्दोस्तान है,
देशभक्तों की शहादत का ये हिंदुस्तान है।
रोजी रोटी के नाम पे वोट बिक रहे यहां,
फिर भी गरीबी, बेकारी कम क्यूँ ना है।
हर रोज नये कानून बन रहे हैं यहां,
फिर भी यहां पे बेटियां महफूज़ क्यूँ ना है।
शिक्षा,स्वास्थ्य, पानी भी बिकने लगा यहां,
आपा-धापी लूट है, चैन कयूँ ना है।
आम आदमी की जरूरते एक है यहां,
लहू का रंग एक है तो प्यार क्यूँ ना है।
संविधान में अधिकार है सबके लिए यहां,
उनके लेने देने में समता क्यूँ ना है।
झरना माथुररंग- बिरंगा देश है मेरा,
वसुधा है चित्रकला सी।
रंग -बिरंगे फूलों से सजी, धरती लगती दुल्हन सी,
झरने झर- झर बहते हैं, नदियाँ गातीं हैं कल-कल।
हरियाली का जब, रूप निखराता,
हवा से बातें करता है।
हिमालय रक्षा करता,
देश के मुकुट समान हैं।
सूरज आरती करता,
प्यार लुटाता चाँद है,
पैर पखारता सागर,
भारत माँ का करता गुणगान है ।
रंग बिरंगी वेश-भूषा,
कहीं साड़ी, कहीं लहंगा,
कहीं कुर्ती, कहीं वर्दी है,
शाल, दुशाला ओढ़े,
बेटियाँ भारत की जान है ।
हिंदी, उर्दू, बंगाली, गुजराती,
मराठी, पंजाबी,
अलग-अलग हैं भाषा,
लेकिन भाव एक समान हैं ।
कभी सावन के मेले तो,
कभी दिवाली के दीपक हैं,
कहीं ईद पर गले मिले सब,
होली के रंग में नहाए हैं।
संस्कृति, परंपरा,
से हमारी शान है।
कहीं गुरु ग्रंथ का मान हैं।
कहीं गीता और कुरान है।
भारतवासी इतने प्यारे,
सब धर्मों का करते सम्मान हैं।
डा रश्मि चौबेआजादी कैसे पाई हमने
ये बतलाना मुश्किल है
कितनों ने है जान गंवाई
ये कह पाना मुश्किल है
डट कर हम थे खड़े रहे
बांध कफ़न सब अड़े रहे
अंग्रेजों के जुल्मों सितम का
कौन नहीं बना निशाना
ये समझाना मुश्किल है
शहीदों ने अपने लहू से
लिखी आजादी की अमर कहानी
ये बात अपनी जुबां पर लाना मुश्किल है
सदा गगन पर लहराए तिरंगा
देश धर्म पर तन मन वारा
फिर से न आये कोई फिरंगी
देश में, ये तय कर पाना मुश्किल है
गणतंत्र रहे ये देश हमारा
इस धरा पर सर्वस्व लुटाना
जन गण मन हो ध्येय हमारा
ये बात हर इंसा को कह पाना मुश्किल है।
– रूबी शोम
राखी लिए हाथ
बहन जोह रही भाई की बांट
मां लगी रसोई में बना रही पकवान
आएगा उसका बेटा जो है देश का जवान
बहन सोच रही आज
भाई से लेगी क्या उपहार
बहन से ज्यादा दोस्त बनी हू
दोस्ती का लूंगी हिसाब
बहुत छिपाई भाई की बात
अब लूंगी बदला आ जाए एकबार
मां बैठी सोचे आएगा बेटा
करूंगी शादी की बात
बहुत रह लिया अकेला
अब ले आए बहु साथ
मरने से पहले खेल लू
उसके बच्चो के साथ
हुई दरवाजे पर दस्तक
भागी बहन दरवाजे तक
होश उड़ गए जब खोला दरवाजा
तिरंगे में लिपटा अपना भाई देखा
मुंह से निकल गई चींख
आंख से बह निकली अश्रु की धारा
दर्द से बोल उठी बहन रो रोकर कर रही पुकार
हे भगवान भाई से मैंने ना मांगा ये उपहार
अब लाऊंगी कहा से राखी के लिए हांथ
जो मुझे भर भरकर देते थे आशीर्वाद
मां बोली ना कर ऐसे विलाप
भाई गया नही कही
बस हुआ अपने देश के लिए शहीद
शहीद कभी मरते नहीं
अमर हो जाते है
देश की सेवा के लिए
बार बार जन्म लेते है
बांध हाथ पर राखी
कर माथे पर तिलक
जिस धरती के लिए हुआ शहीद
कर उस धरती के सुपुर्द
गर्व हमे उस जवान पर
जो देश के लिए मर मिट जाते
गर्व हमे उस मां बहन पत्नी पर
जो जिंदा रहकर अपना फर्ज निभाते
शत शत नमन वीरों की शहादत को
शत शत नमन हिंदुस्तान की मिट्टी को
ऐसे शेर जन्म है लेते
नमन वीर की मां को
वो शेरनी है तभी जियाले शेर कहलाते
वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् वन्दे मातरम्
– संगीता गुप्ता
जब आजादी मिली मेरे भारत को
तो वीरों की गाथा गाई गई।
मातृभूमि की माटी भी।
मस्तक से यूं लगाई गई।
देते न आहुति वीर यदि
बलिदानों को कैसे जानते।
वीरों की वो कुर्बानी।
सबकी जुबानी गाई गई-2
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
जो वीर शहीद बलिदानी थे।
मैं उनकी बात बताती हूं।
अपनी धरती मां के लिए
वीरों ने प्राण गवाए हैं।
जिनके बलिदानों को हम।
भूल कभी ना पाए हैं।
अपने खूं से इतिहास लिखा।
मैं उनको शीश नवाती हूं।
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
जब तक सांसों में सांस रही।
तब तक हार न मानी है।
जान रहे न रहे तन में।
मन में बस यह ठानी है।
हर पल दिल में जुनूं यही।
मैं उन सी होना चाहती हूं।
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
मेरे देश की रज को यहां।
माथे पे सजाया जाता है।
मां से पहले भारत मां को।
मां कहके बुलाया जाता है।
इतनी पावन है धरा मेरी।
इसमें ही मिल जाना चाहती हूं।
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
अपने तो अपने हैं यहां।
गैरो का भी आदर होता है।
(गैर से मतलब यहां विदेशी मुल्क से है)
जहां बच्चों को संस्कार बता।
सम्मान सिखाया जाता हैं।
चरणों में झुकने की रीत यहीं।
यह देखके खुश हो जाती हूं।
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
इस मिट्टी में ही जन्मे प्रभु।
कान्हा ने बचपन में खेला है।
यही रास रचाया गोपिन संग।
गैया को मैया बोला है।
ऐसी पावन है धरा यहां।
मैं हर पल पूजना चाहती हूं
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
राधा ने यहीं वियोग सहा।
मीरा ने प्रेम निभाया है।
जहां द्रोपदी की रक्षा के लिए।
मोहन ने लाज बचाया है
जहां गीता ज्ञान दिया प्रभु ने।
मैं तृप्त वहीं हो जाती हूं
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
जहां रोज सवेरे तुलसी को।
जल और दीप चढ़ाए जाते हैं।
जहां मां गंगा में डुबकी लगाकर।
सब पाप मिटाए जाते हैं।
हर तीज व्रत और त्यौहार।
सब संग मिलके मानाना चाहती हूं
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
वाल्मीकि ने रामायण को रचा।
तुलसी ने काव्य को गाया है।
जहां देव तुल्य हर मानव ने।
हर धर्म ग्रंथ समझाया है।
जिनकी गाथा मैं सदियों से।
हर मुख से सुनती आई हूं।
जो मातृ भूमि के रखवाले।
मैं उनकी गाथा गाती हूं।
जो वीर शहीद बलिदानी थे।
मैं उनकी बात सुनाती हूं।
– नूतन नवल
कोटि कोटि वंदन है मेरा वीरों के सम्मान को
आंच जिन्होंने आने न दी भारत मां की शान को l
अत्याचारों को भी अपना खेल समझकर झेल गए
आजादी के दीवाने जो प्राणों पर भी खेल गए
कदमों से जो रौंद गए हर दुश्मन के अभिमान को
आंच जिन्होंने आने न दी भारत मां की शान को ll
लिए तिरंगा हाथों में जो वन्देमातरम को गाते
झंडे गाड़ दिए चोटी पर सीने पर गोली खाते
भुला नहीं सकते हैं हम उन वीरों के बलिदान को
आंच जिन्होंने आने न दी भारत मां की शान को ll
चूड़ी रोली कंगन बिछुए बेबस राह निहार रहे
घर आने की आशा में हो बेबस तुम्हें पुकार रहे
लेकर चले गए हो सबकी आंखों के अरमान को
आंच जिन्होंने आने न दी भारत मां की शान को ll
कोटि कोटि वंदन है वीरों के सम्मान को
आंच जिन्होंने आने न दी भारत मां की शान को ll
– संगीता अहलावत l
और अन्त में इन पंक्तियों के साथ संकलन का समापन…
गणतन्त्र दिवस फिर आया है, कुछ नया संदेसा लाया है |
भारत के हर एक कण कण ने कुछ नया राग अब गाया है ||
हम आतंकों से जूझे हैं, पर हार न हमने मानी है |
कोरोना को भी हमने हँसते हँसते दूर भगाया है ||
है तब ही तो परिधान नया धरती ने वासन्ती धारा |
और साज सजा है नया नया, कुछ नया राग गुँजाया है ||
है देश मेरा ऐसा जिसमें हैं रंग रंग के पुष्प खिले |
उन सबसे मिलकर बना हार भारत माँ को पहनाया है ||
इसके आँगन में लहराती नदियों ने नृत्य दिखाया है |
गंगा यमुना कावेरी ने सागर संग रास रचाया है ||
हर कोई कर्मप्रधान रहे, हों चाहे कितने भी तूफां |
हर जीवन में मधुमास रहे, संकल्प सभी ने पाला है ||