Tree plantation of Vedic period is still contemporary
वैदिक काल की पर्यावरण सुरक्षा आज भी प्रासंगिक
कल पर्यावरण दिवस है – अच्छी और सन्तोष की बात है कि हम सब पर्यावरण के प्रति इतने जागरूक हैं | लेकिन एक बात समझ में नहीं आती, कि एक ही दिन या एक ही
सप्ताह के लिए पर्यावरण की याद क्यों आती है – जबकि हमारा पर्यावरण अनुकूल बना रहे, सुरक्षित रहे इसके विषय में तो बच्चे बच्चे को जानकारी होनी चाहिए | आज फिर से अपना एक पुराना लेख दोहरा रहे हैं…
हम सभी जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व पर्यावरण दिवस विश्व भर में मनाया जाता है, और इसका मुख्य उद्देश्य है इस ओर राजनीतिक और सामाजिक जागृति उत्पन्न करना | लेकिन यहाँ हम इसके इतिहास पर नहीं जाना चाहते | असली बात है कि पर्यावरण को प्रदूषण से किस प्रकार बचाया जाए | पर्यावरण प्रदूषित होता है तो समूची प्रकृति पर उसका हानिकारक प्रभाव होता है | इण्डस्ट्रीज़ से निकले रसायनों के पानी में घुल जाने के कारण पानी न तो पीने योग्य ही रहता है और न ही इस योग्य रहता है कि उनसे खेतों में पानी दिया जा सके – क्योंकि वो सारा ज़हर फ़सलों में घुल जाएगा | पेड़ों के अकारण ही कटने से कहीं भू स्खलन, कहीं बाढ़ तो कभी भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझना पड़ता है | अभी पिछले दिनों विश्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद सबके प्रिय श्री सुन्दर लाल बहुगुणा जी हमारे मध्य नहीं रहे, उनका चिपको आन्दोलन इस बात का जीता जागता प्रमाण है जिन्होंने इस आन्दोलन के माध्यम से इस दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं |
यदि हम थोड़ी समझदारी से काम लें तो काफी हद तक पर्यावरण की समस्या से मुक्ति मिल सकती है | जैसे कि पोलीथिन के पैकेट्स पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं | ज़मीन पर जिस जगह इन्हें फेंका जाए वहाँ घास तक नहीं उत्पन्न हो सकती | इसे जलाया नहीं जा सकता | तो अच्छा हो कि इसका जितना हो सके कम उपयोग किया जाए | लेकिन आजकल जितनी भी वस्तुएँ बाज़ार में पैकेट्स में उपलब्ध होती हैं वे सभी अधिकाँश में प्लास्टिक या पोलीथिन में ही पैक होती हैं | इतना ही नहीं, लोग बाहर घूमने जाते हैं तो चिप्स, चोकलेट, पान मसाला आदि के ख़ाली पैकेट्स यों ही ज़मीन पर फेंक देते हैं | पिकनिक की जगहों पर तो डस्टबिन रखे होने पर भी जहाँ तहाँ ये कूड़ा फैला मिल जाएगा | इससे गन्दगी तो होती ही है, साथ ही मिट्टी को भी नुकसान पहुँचता है |
इसी तरह घरों में पंखे बिजली आदि अकारण ही चलते छोड़ देते हैं | “अर्थ डे” पर एक सामाजिक या राजनीतिक पर्व की भाँती रात में एक घंटे के लिए बिजली की सारी चीज़ें बन्द रखने की रस्म अदायगी हो जाती है – और वो भी हर कोई नहीं करता, काफ़ी लोग तो इस पर ध्यान ही नहीं देते | इस दिन और इसके आगे पीछे बिजली कैसे बचाएँ इस विषय पर गोष्ठियों में लोग अपने अपने विचार प्रस्तुत कर देते हैं | लेकिन “अर्थ डे” का समारोह समाप्त हो जाने के बाद फिर वही ढाक के तीन पात | क्योंकि हमारी मानसिकता तो वही है |
तो ये सब बातें तो होती ही रहेंगी – पर्यावरण दिवस और धरती दिवस यानी अर्थ डे भी मनाए जाते रहेंगे, लेकिन इन सब बातों से भी अधिक आवश्यक है वृक्षों के प्रति उदार होना | जितने अधिक वृक्ष होंगे उतनी ही स्वच्छ प्राकृतिक वायु उपलब्ध होगी और वातावरण में घुले ज़हर से काफ़ी हद तक बचाव हो पाएगा |
समय समय पर अनेकों प्रयास इसके लिए किये जाते रहते हैं | कभी पता चलता है कि “ग्रीन कैंपेन” के माध्यम से देश के कई भागों में हरियाली में वृद्धि करने का प्रयास किया जा रहा है | कुछ वर्ष पूर्व कई विद्यालयों में ईको क्लब भी बनाए गए थे, ताकि बच्चों में स्वस्थ पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनी रहे | अक्सर सरकारी स्तर पर और गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी पर्यावरण को बचाने के लिये वृक्षारोपण के कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है | लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें सब कुछ सरकार अथवा समाजसेवी संगठनों पर ही छोड़ देना चाहिये ? क्या देश के हर नागरिक का कर्तव्य नहीं कि वृक्षों की देखभाल अपनी सन्तान के समान करें और वैसा ही स्नेह उन्हें दें ?
इसके लिए हमें अपने वैदिक युग की ओर घूम कर देखना होगा | भारतवासियों को तो गर्व था अपने देश के प्राकृतिक सौन्दर्य पर | भारत की भूमि में जो प्राकृतिक सुषमा है उस पर भारतीय मनीषियों का आदिकाल से अनुराग रहा है | आलम्बन उद्दीपन, बिम्बग्रहण, उपदेशग्रहण, आलंकारिकता आदि के लिये सभी ने इसके पर्वत, सरिता, वन आदि की ओर दृष्टि उठाई है | इन सबसे न केवल वे आकर्षित होते थे, अपितु अपने जीवन रक्षक समझकर इनका सम्मान भी करते थे | वनों के वृक्षों से वे पुत्र के समान स्नेह करते थे | पुष्पों को देवताओं को अर्पण करते थे | वनस्पतियों से औषधि प्राप्त करके नीरोग रहने का प्रयत्न करते थे | क्या कारण है कि जिन वृक्षों को हमारे ऋषि मुनि, हमारे पूर्वज इतना स्नेह और सम्मान प्रदान करते थे उन्हीं पर अत्याचार किया जा रहा है ?
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर विचार करते समय सबसे पहले सोचना है कि पर्यावरण की समस्या के कारण क्या हैं | प्रगतिशीलता के इस वैज्ञानिक युग में समय की माँग के साथ डीज़ल पैट्रोल इत्यादि से चलने वाले यातायात के साधन विकसित हुए हैं | दिल्ली सरकार ने इसी को देखते हुए ऑड ईवन का सिलसिला चलाया है, पर ये कितना कारगर है इसके विषय में फिलहाल अभी कुछ नहीं कहना | मिलों कारखानों आदि में वृद्धि हुई है | एक के बाद एक गगनचुम्बी बहुमंज़िले भवन बनते जा रहे हैं | मिलों कारखानों आदि से उठता धुआँ वायुमण्डल में घुलता चला जाता है और पर्यावरण को अपना शिकार बना लेता है | हरियाली के अभाव तथा बहुमंज़िले भवनों के कारण स्वच्छ ताज़ी हवा न जाने कहाँ जाकर छिप जाती है | निरन्तर हो रही वनों की कटाई से यह समस्या दिन पर दिन गम्भीर होती जा रही है | यद्यपि जनसंख्या वृद्धि के कारण लोगों को रहने के लिये अधिक स्थान की आवश्यकता है | और इसके लिये वनों की कटाई भी आवश्यक है | अभी भी बहुत से गाँवों में लकड़ी पर ही भोजन पकाया जाता है | भवन निर्माण में भी लकड़ी की आवश्यकता होती ही है | इस सबके लिये वृक्षों का काटना युक्तियुक्त है | किन्तु जिस अनुपात में वृक्ष काटे जाएँ उसी अनुपात में लगाए भी तो जाने चाहियें | लक्ष्य होना चाहिये कि हर घर में जितने बच्चे हों अथवा जितने सदस्य हों कम से कम उतने तो वृक्ष लगाए जाएँ |
प्राचीन काल में भी भवन निर्माण में लकड़ी का उपयोग होता था | लकड़ी भोजन पकाने के लिये ईंधन का कार्य भी करती थी | और यज्ञ कार्य तो लकड़ी के बिना सम्भव ही नहीं था | फिर भी स्वस्थ पर्यावरण था | समस्त वैदिक साहित्य तथा पुराणों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उस काल में पर्यावरण की समस्या थी ही नहीं | उस समय लोगों ने कभी यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भविष्य में कभी पर्यावरण प्रदूषित भी हो सकता है | उस समय धुआँ उगलने वाले वाहन नहीं थे | उनके स्थान पर थे बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, रथ इत्यादि | मिलों कारखानों के स्थान पर समस्त वस्तुएँ हाथ से ही बनाई जाती थीं | इतनी अधिक बहुमंज़िली इमारतें नहीं थीं | और ये सब आज की जनसँख्या की विस्फोटक वृद्धि को देखते हुए अव्यावहारिक ही प्रतीत होता है | क्योंकि इतने अधिक लोगों की नित्य प्रति की आवश्कताओं की पूर्ति के लिये हाथ से वस्तुएँ बनाई गईं तो कार्य की गति धीमी होगी और अनगिनती लोग अपनी आवश्यक वस्तुओं से वंचित रह जाएँगे | साथ ही इतनी बड़ी जनसँख्या तक उनकी दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ पहुँचाने के लिये भी तेज़ गति से चलने वाले वाहनों की ही आवश्यकता है, न कि बैलगाड़ी आदि की | इतने अधिक लोगों के निवास की भी आवश्यकता है अतः बहुमंज़िली इमारतों के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प भी नहीं है | लोग उस समय सादा व शान्त जीवन जीने के आदी थे | आज की तरह दौड़ भाग उस समय नहीं थी | जनसँख्या सीमित होने के कारण लोगों के निवास की समस्या भी उस समय नहीं थी | इस प्रकार किसी भी रूप में पर्यावरण प्रदूषण से लोग परिचित नहीं थे | फिर भी उस समय का जनसमाज वृक्षारोपण के प्रति तथा उनके पालन के प्रति इतना जागरूक था, इतना सचेत था कि वृक्षों के साथ उसने भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे | यही कारण था कि भीष्म ने मुनि पुलस्त्य से प्रश्न किया था कि “पादपानां विधिं ब्रह्मन्यथावद्विस्तराद्वद | विधिना येन कर्तव्यं पादपारोपणम् बुधै ||” अर्थात हे ब्रह्मन् ! मुझे वह विधि बताइये जिससे विधिवत वृक्षारोपण किया जा सके | – पद्मपुराण २८-१
भीष्म के इस प्रश्न के उत्तर में पुलस्त्य ने वृक्षारोपण तथा उनकी देखभाल की समस्त विधि बताई थी | जिसके अनुसार विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना करके वृक्षों को आरोपित किया जाता था | इस पूजन में एक विशेष बात यह होती थी कि चार हाथ की वेदी चारों ओर से तथा सोलह हाथ का मण्डल बनाया जाता था | उसके मध्य में वृक्षारोपण किया जाता था | जिस प्रकार घर में सन्तानोत्पत्ति के अवसर पर माँगलिक कार्य, उत्सव इत्यादि होते हैं, उसी प्रकार वृक्षारोपण के समय भी उत्सव होते थे | कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तान के समान वृक्षों को संस्कारित किया जाता था | वृक्षों को वस्त्र-माला-चन्दनादि समर्पित करके उनका पूजन किया जाता था | उसके पश्चात् उनका कर्णवेधन किया जाता था जिसके लिये उनके पत्ते में सूई से छेद करते थे | उसके बाद धूप दीप आदि से सुवासित किया जाता था | पयस्विनी गौ को वृक्षों के मध्य से निकाला जाता था | वैदिक मंत्रोच्चार के साथ हवन किया जाता था | यह उत्सव चार दिन तक चलता था | उसके पश्चात् प्रतिदिन प्रातः सायं देवताओं के समान वृक्षों की भी पूजा अर्चना की जाती थी |
सम्भवतः विधि विधान पूर्वक वृक्षारोपण तथा नियमित वृक्षार्चन आज की व्यस्त जीवन शैली को देखते हुए हास्यास्पद प्रतीत हो – किन्तु सामयिक अवश्य है | पद्मपुराण के उपरोक्त सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि उस काल में पर्यावरण के प्रति जनसमाज कितना जागरूक था | वृक्षों का विधिपूर्वक आरोपण करके, सन्तान के समान उन्हें संस्कारित करके देवताओं के समान प्रतिदिन उनकी अर्चना का विधान कोरे अन्धविश्वास के कारण ही नहीं बनाया गया था – अपितु उसका उद्देश्य था जनसाधारण के हृदयों में वृक्षों के प्रति स्नेह व श्रद्धा की भावना जागृत करना | स्वाभाविक है कि जिन वृक्षों को आरोपित करते समय सन्तान के समान माँगलिक संस्कार किये गए हों उन्हें अपने किसी भी स्वार्थ के लिये मनुष्य आघात कैसे पहुँचा सकता है ? वह तो सन्तान के समान प्राणपण से उन वृक्षों की देखभाल ही करेगा | देवताओं के समान जिन वृक्षों की नियमपूर्वक श्रद्धाभाव से उपासना की जाती हो उन्हें किसी प्रकार की क्षति पहुँचाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता | वेदी व मण्डल बनाने का उद्देश्य भी सम्भवतः यही था कि लोग आसानी से वृक्षों तक पहुँच न सकें | उस समय वनों की सुरक्षा तथा पर्यावरण के प्रति जागरूकता किसी दण्ड अथवा जुर्माने के भय से नहीं थी – अपितु वृक्षों के प्रति स्वाभाविक वात्सल्य ए़वं श्रद्धा के कारण थी |
नाना प्रकार के वृक्षों के आरोपण से अनेक प्रकार के सुफल प्राप्त होते है ऐसी पुराणों की मान्यता है | जैसे पीपल के वृक्ष से धन की प्राप्ति होती है, अशोक शोकनाशक है, पलाश यज्ञफल प्रदान करता है, क्षीरी आयुवर्द्धक है, जम्बुकी कन्यारत्न प्रदान करता है, दाडिमी को स्त्रीप्रद बताया गया है | कहा गया है कि बड़े वृक्ष जैसे वट, पीपल, आम, इमली और शाल्मली आदि लगाना अत्यन्त सौभाग्यकारक है | उष्णकाल में प्राणीमात्र इनकी छाया में विश्राम करते हैं – जिससे इन वृक्षों को लगाने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है | इनको देखने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं | इसीलिये बड़ी छाया वाले वृक्षों का रोपण श्रेयस्कर है | इसके अतिरिक्त जो लोग मार्गों में वृक्ष लगाते हैं वे वृक्ष उनके घर पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं | जो इन वृक्षों की छाया में बैठते हैं वे इन वृक्ष लगाने वालों के सहायक व मित्र बन जाते हैं | वृक्षों के पुष्पों से देवताओं को तथा फलों से अतिथियों को प्रसन्न किया जाता है – “वृक्षप्रदो वृक्षप्रसूनैर्देवान् प्रीणयति, फलैश्चातिथीन्, छायया चाभ्यागतान् |” विष्णुस्मृतिः – ९१
वृक्ष भले ही पुत्ररूप में उत्पन्न न होते हों, किन्तु वृक्षारोपण करने वाला उन्हें पुत्रवत् स्नेह अवश्य करता था | वृक्षों की छाया में बैठने वाले भले ही वृक्षारोपण करने वालों के नाम तक न जानते हों, किन्तु उनके लिये शुभकामनाएँ अवश्य करते थे और इस प्रकार अनजाने ही मित्र बन जाते थे | कितना भावनात्मक तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध था मनुष्य व वृक्षों के मध्य | इसीलिये वृक्ष सुरक्षित थे | और वृक्षों की सुरक्षा के कारण पर्यावरण सुरक्षित था | कुछ वृक्ष जैसे तुलसी आँवला आदि के महत्व को आज भी स्वीकार किया जाता है | ये सारी ही बातें किसी भावुकता अथवा अन्धविश्वास के कारण ही नहीं कही गई हैं | इन सबका उद्देश्य था जनसाधारण के हृदयों में वृक्षों के प्रति श्रद्धा, सम्मान व स्नेह की भावना जागृत करना जिससे कि वृक्षों पर किसी प्रकार का अत्याचार न हो सके और पर्यावरण स्वस्थ रहे |
आज वृक्षों की कटाई रोकने के लिये दण्ड का विधान होते हुए भी कटाई चोरी छिपे होती अवश्य है जहाँ हरे भरे वृक्ष राही को छाया प्रदान करते थे आज वहाँ सूखे अथवा अधकटे वृक्ष दिखाई देते हैं | पर्वतश्रंखलाएँ जो हरी भरी हुआ करती थीं आज नग्न होती जा रही हैं | एक ओर कारखानों की बढ़ती संख्या तथा यातायात के बढ़ते साधनों – जो कि आज के जीवन के लिये अत्यावश्यक भी है – से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, तो दूसरी ओर हम स्वयं वनों व पर्वतों का चीरहरण करने में लगे हुए हैं | यही कारण है कि जाड़ा गर्मी बरसात सारे ही मौसम बदल चुके हैं | कालिदास ने ऋतुओं का जो स्वरूप देखकर ऋतुसंहार की रचना की थी आज कहाँ है ऋतुओं का वह स्वरूप ?
अतः, उपसंहार के रूप में यही कहना चाहेंगे कि समाज तथा राष्ट्र की प्रगति के लिये एक ओर जहाँ ये मिलें, ये कारखाने, ये वाहन आवश्यक हैं, जनसँख्या की वृद्धि के कारण जहाँ हर व्यक्ति के सर पर साया करने के लिये भू भाग की कमी के कारण गगनचुम्बी इमारतों की भी आवश्यकता है – वहीं दूसरी ओर इनके दुष्परिणाम – पर्यावरण प्रदूषण से बचने के लिये नए वृक्ष लगाना तथा उनकी उचित देखभाल करना भी उतना ही आवश्यक है | ताकि उनकी स्वच्छ ताज़ी हवा वातावरण में घुले हुए विष को कम कर सके | और यह कार्य केवल सरकार तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता | न ही केवल स्वयंसेवी संगठनों के कन्धों पर इतना बड़ा भार डाला जा सकता है | और न ही यह कार्य किसी दण्ड अथवा जुर्माने के भय से सम्भव है | इसके लिये आवश्यक है कि बच्चे बच्चे को इस बात की जानकारी दी जाए कि वृक्ष हमारे लिये कितने उपयोगी हैं | प्राणवायु, ईंधन, भवन निर्माण हेतु लकड़ी तथा रोगों के निदान के लिये औषधि सभी कुछ तो वृक्षों से प्राप्त होता है | कागज़ कपड़ा भी इन्हीं की देन है | अतः आवश्यकता है जनमानस में वृक्षों के प्रति वही श्रद्धा तथा वही स्नेह की भावना विकसित करने की जो हमारे पूर्वजों के हृदयों में थी |
____________________कात्यायनी