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Blog: we should change ourselves first

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we should change ourselves first

we should change ourselves first

हमें पहले स्वयं को बदलना चाहिए

जी हाँ मित्रों, दूसरों को अपने अनुरूप बदलने के स्थान पर हमें पहले स्वयं को बदलने का प्रयास करना चाहिए | अभी पिछले दिनों कुछ मित्रों के मध्य बैठी हुई थी | सब

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

इधर उधर की बातों में लगे हुए थे | न जाने कहाँ से चर्चा आरम्भ हुई कि एक मित्र बोल उठीं “देखो हमारी शादी जब हुई थी तब हम कितना बदल गए थे | कभी माँ के घर किसी काम को हाथ नहीं लगाया था, यहाँ आकर क्या क्या नहीं किया…”

“अच्छा सुषमा जी एक बात बताइये, क्या आपसे आपके ससुराल वालों ने बदलने की उम्मीद की थी या दबाव डाला था किसी तरह का…?” मैंने पूछा तो उन्हीं मित्र ने कहा “नहीं, पर हमें लगा हमें परिवार की परम्पराओं के अनुसार चलना चाहिए…”

“और क्या भाई साहब – मेरा मतलब तुम्हारे पतिदेव और आंटी अंकल यानी तुम्हारे सास ससुर में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन तुम्हें दीख पड़ा… या वे लोग जस के तस ही रहे…?” मज़ाक़ में एक दूसरी मित्र ने पूछा |

“अरे क्या बात करती हो, असल में तो हम सबने ही अपने अपने आप में बहुत से  बदलाव किये हैं | और इन्होने तो बहुत ही किये हैं…” ख़ुशी से चिहुँकती हुई सुषमा जी बोलीं “स्पष्ट सी बात है कि दोनों ही अलग अलग पृष्ठभूमि से आए थे, तो दोनों को ही स्वयं को एक दूसरे के अनुरूप – एक दूसरे के परिवेश के अनुकूल ढालना था – और हम दोनों ने ही ऐसा किया | कुछ वे आगे बढे… कुछ मैं… और हम दोनों की देखा देखी घर के दूसरे लोग भी… और हम ही क्या, आप सबके साथ भी तो ऐसा ही हुआ होगा…”

“पर वो गुप्ता आंटी की बहू है न कविता, बहुत ख़राब है… इतना बुरा व्यवहार करती है न आंटी अंकल के साथ कि सच में कभी कभी तो बड़ा दुःख होता है बेचारों की स्थिति पर…” एक अन्य मित्र बोलीं |

“अरे जाने भी दो न यार…” एक दूसरी मित्र बीच में बोलीं “गुप्ता आंटी और अंकल ही कौन अच्छे हैं… बेचारी कविता को नौकरानी बना कर रखा हुआ था… वो भी कब तक सहती…”

घर वापस लौट कर पार्क में हुई इन्हीं सब बातों के विषय में सोचते रहे | बातें सम्भवतः सभी की अपने अपने स्थान पर सही थीं कुछ सीमा तक | लेकिन जो सास ससुर या बहू एक दूसरे के साथ बुरा व्यवहार करते थे वे ऐसा क्यों करते थे ये हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था | और भी कुछ लोगों को कहते सुना है कि अमुक परिवार में ससुराल वाले बुरे हैं, या अमुक व्यक्ति की बहू ने सास ससुर को वृद्धाश्रम भिजवा दिया… या उनकी बीमारी में भी बेटा बहू उन्हें देखने तक के लिए नहीं आए, जबकि पास ही रहते हैं… इत्यादि इत्यादि… और ये केवल परिवारों की ही बात नहीं है | समाज के किसी भी क्षेत्र में चले जाइए, परस्पर वैमनस्य… ईर्ष्या… एक दूसरे के साथ दिलों का न मिल पाना… इस प्रकार की समस्याएँ लगभग हर स्थान पर दिखाई दे जाएँगी…

लेकिन फिर उन दूसरी मित्र सुषमा जी की कही बात भी स्मरण हो आई, कि यदि दूसरों को अपना बनाना हो – उन्हें अपने मन के अनुकूल ढालना हो – तो दूसरों को बदलने के स्थान पर हमें स्वयं उनके अनुरूप बदलने का प्रयास करना होगा | हम स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो दूसरों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा | कुछ हम आगे बढ़ेंगे और कुछ दूसरे लोग – और इस प्रकार से सभी एक दूसरे के अनुकूल बन जाएँगे |

बात उनकी शत प्रतिशत सही थी | असल में जहाँ कहीं भी दो मित्रों में, परिवार के सदस्यों में, किसी संस्था अथवा कार्यालय में अथवा कहीं भी किसी प्रकार का विवाद होता है तो बहुत से अन्य कारणों के साथ साथ उसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी होता है कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अपेक्षा रखता है कि वह व्यक्ति उसके अनुरूप स्वयं को ढाल लेगा | बस यही सारे विवाद का मूल होता है | हम किसी अन्य से अपेक्षा क्यों रखें कि वह हमारे अनुरूप स्वयं के व्यवहार में परिवर्तन कर लेगा | क्यों नहीं पहले हम स्वयं उसके अनुरूप स्वयं में परिवर्तन करके उसके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करें ? जब हम दूसरों को बदलने के स्थान पर स्वयं को बदलना आरम्भ कर देते हैं तब वास्तव में हम अनजाने ही दूसरों के साथ एक प्रेम के बन्धन में बँधते चले जाते हैं | एक ऐसा अटूट बन्धन जहाँ एक दूसरे को बदलने की इच्छा कोई नहीं करता, बल्कि हर कोई एक दूजे के रंग में रंग जाना चाहता है | संसार के सारे सम्बन्ध इसी सिद्धान्त पर तो टिके हुए हैं | और यहीं से आरम्भ होता है अध्यात्म के मार्ग का | जब हम दूसरों को बदलने के स्थान पर स्वयं को बदलना आरम्भ कर देते हैं तब वास्तव में हम अध्यात्म मार्ग का अनुसरण कर रहे होते हैं |

लेकिन जो व्यक्ति स्वयं को समझदार और पूर्णज्ञानी मानकर अहंकारी बन बैठा हो उसे कुछ भी समझाना असम्भव हो जाता है | वह केवल दूसरे में ही परिवर्तन लाना चाहता है – स्वयं अपने आपको पूर्ण बताते हुए | भले बुरे का ज्ञान उसी व्यक्ति को तो दिया जा सकता है जो विनम्र भाव से यह स्वीकार करे कि वह अल्पज्ञानी है और अभी उसमें परिवर्तन की – आगे बढ़ने की – अपार सम्भावनाएँ निहित हैं | इसीलिए ज्ञानीजन कह गए हैं कि व्यक्ति को “पूर्णज्ञानी” होने के मिथ्या अहंकार से बचना चाहिए | वैसे भी अहंकार सम्बन्धों के लिए हानिकारक है | अहंकारी व्यक्ति के कभी भी किसी के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध नहीं बन सकते

उद्धरेद्दात्मनाSत्मानं नात्मानं अवसादयेत्,

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः (श्रीमद्भगवद्गीता 6/5)

अर्थात, व्यक्ति को ऐसे प्रयास करने चाहियें जिनसे उसका उद्धार हो, जिनसे वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हो | कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे उसका पतन हो, क्योंकि किसी भी व्यक्ति का मित्र और शत्रु कोई अन्य नहीं होता – अपितु वह स्वयं अपना मित्र भी होता है और शत्रु भी | कहीं ऐसा न हो कि दूसरों को बदलने के प्रयास में हम स्वयं अपने ही शत्रु बन बैठें |

गीता में कहा गया है…

“क्रोधात्भवति सम्मोहः, संमोहात्स्मृतिविभ्रमः,

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति |” (श्रीमद्भगवद्गीता 2/63)

अर्थात, व्यक्ति जब क्रोध करता है तो उसका विवेक समाप्त होकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति मूढ़ बन जाता है | उस भ्रम से – मूढ़भाव से बुद्धि व्यग्र होती है, ज्ञानशक्ति का ह्रास हो जाता है और किस कार्य का क्या परिणाम होगा या किस समय किससे कैसे वचन कहें इस सबकी स्मृति नष्ट हो जाती है | स्मृतिनाश होने से तर्कशक्ति नष्ट हो जाती है और बुद्धि या तर्क शक्ति के नष्ट होने से व्यक्ति का विनाश निश्चित है | अतः क्रोध से बचने का सदा प्रयास करना चाहिए – और यह भी एक मार्ग है स्वयं में परिवर्तन लाने का |

साथ ही, व्यक्ति की मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए कुछ समय के एकान्त की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है | जिन सम्बन्धों में एक दूसरे को ऐसा एकान्त नहीं प्राप्त होता वे सम्बन्ध सन्देहों के झँझावात में फँस इतना बड़ा बोझ बन जाते हैं कि उन्हें सँभालना असम्भव हो जाता है | हम सबको अपने सम्बन्धों को इन्हीं कसौटियों पर परखने का प्रयास करना चाहिए | ऐसा करने से हम दूसरों को बदलने का प्रयास करने के स्थान पर स्वयं में परिवर्तन लाने का प्रयास करेंगे –  और जिसका कि परिणाम यह होगा कि किसी में कोई परिवर्तन लाए बिना ही – अपनी अपनी वास्तविकताओं में रहते हुए ही – स्वयं को दूसरों के अनुकूल बना पाने में समर्थ होंगे | और इस प्रकार जब प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति से अनुकूलन स्थापित करने में सक्षम हो जाएगा तो फिर किसी भी प्रकार के दुर्भाव के लिए वहाँ स्थान ही नहीं रहेगा… यही तो है सम्यग्दर्शन, सम्यक् चरित्र तथा सम्यक् चिन्तन की भावना, जो न केवल समस्त भारतीय दर्शनों का – अपितु हमारे विचार से समस्त विश्व के दर्शनों का सार है…

अस्तु ! हम सब अपने अपने सम्बन्धों में और कार्यक्षेत्रों में भी अपनी अपनी वास्तविकताओं में रहते हुए ही स्वयं को एक दूसरे के अनुकूल बनाते हुए अपने अपने उत्तरदायित्वों का भली भाँति निर्वाह करते रहें केवल यही एक कामना है – अपने लिए भी और अपने मित्रों के लिए भी…

_______________________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा