Vasant Panchami
वसन्त पञ्चमी
नमस्कार ! जैसा कि सभी जानते हैं कि सोलह फरवरी को वसन्त पञ्चमी का उल्लासमय पर्व है… तो सर्वप्रथम सभी को वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँ… वास्तव में बड़ी मदमस्त कर देने वाली होती है ये रुत… वृक्षों की शाख़ों पर चहचहाते पक्षियों का कलरव ऐसा लगता है मानों पर्वतराज की सभा में मुख्य नर्तकी के आने से पूर्व उसके
सम्मान में वृन्दगान चल रहा हो… हमें अक्सर याद आ जाता है कोटद्वार में अपने कार्यकाल के दौरान सिद्धबली मन्दिर के बाहर मुंडेर पर बैठ जाया करते थे अकेले… अपने आपमें खोए से… नीचे कल कल छल छल बहती खोह का मधुर संगीत मन को मोह लिया करता था… मन्दिर के चारों तरफ़ और ऊपर नीचे देखते तो हरियाली की चादर ताने और रंग बिरंगे पुष्पों से ढकी ऊँची नीची पहाड़ियाँ ऐसी जान पड़तीं… मानों अपने तने हुए उभरे कुचों पर बहुरंगी कंचुकियाँ कसे… हरितवर्णी उत्तरीयों से अपनी कदलीजँघाओं को हल्के से आवृत किये… कोई काममुग्धा नर्तकी नायिका… प्रियतम को मौन निमन्त्रण दे रही हो… उसे अभी कहाँ होश पर्वतराज की सभा में जा नृत्य करने का… अभी तो कामक्रीड़ा के पश्चात् कुछ अलसाना है… और उसके पश्चात्… और अधिक पुष्पों की जननी बनना है… वसन्त के आगमन पर उसे स्वयं को पुष्पहारों से और भी अलंकृत करना है… ताकि पिछली रात के सारे चिह्न विलुप्त हो जाएँ… और ऋतुराज वसन्त के लिये वो पुनः अनछुई कली जैसी बन जाए… ऐसा मदमस्त होता है वसन्त का मौसम… तभी तो कहते हैं इसे ऋतुओं का राजा… इसी उपलक्ष्य में प्रस्तुत हैं कुछ काव्य रचनाएँ ऋतुराज के सम्मान में… जो लिखी हैं हमारी सदस्यों ने… वसन्त पञ्चमी को क्योंकि माँ वाणी का भी प्रादुर्भाव माना जाता है, इसलिए “काव्य संकलन” के आज के अंक का आरम्भ हम माँ वाणी की वन्दना के साथ ही कर रहे हैं… समस्त प्रकार के ज्ञान विज्ञान अधिष्ठात्री देवी माँ वाणी… जो कुन्द के श्वेत पुष्प, धवल चन्द्र, श्वेत तुषार तथा धवल हार के सामान गौरवर्ण हैं… जो शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं… हाथों में जिनके उत्तम वीणा सुशोभित है… जो श्वेत पद्मासन पर विराजमान हैं… ब्रह्मा विष्णु महेश आदि देव जिनकी वन्दना करते हैं… तथा जो समस्त प्रकार की जड़ता को दूर करने में समर्थ हैं… ऐसी भगवती सरस्वती हमारा उद्धार करें तथा जन जन के हृदयों में नवीन आशा और विश्वास का संचार करें… प्रस्तुत पंक्तियों की जिसकी रचनाकार हैं पूजा श्रीवास्तव…
माता सरस्वती कर दे उजाला
जीवन में मेरे हे दीन दयाला
पियरी पहन मां सेज विराजे, देखूं तुझे और कुछ न साजे
वीणा संग मां हंस की सवारी, दरश करे ये दुनिया सारी
अपनी दया करो माता हमपे
सद्गुण सत्कर्म हो हम सबके
ऋतु छायी हरियाली सौन्दर्य ऐसा, मन को लुभाए मन मोहक जैसा
कुसुमित हो हर उपवन महके, मन मेरा देख के रह रह बहके
सर्वस्व मेरा तुझको समर्पण
मेरी बुराई का करो तुम तर्पण
मांगू मां तुझसे एक ही वर दो, हम कवियों की लेख अमर हो
विद्या बुद्धि और ज्ञान से भर दो, अपनी चरण में हमको जगह दो
लेखनी को मेरी अपनी कृपा दे
जब भी उठे चले सच के पथ पे
______________पूजा श्रीवास्तव
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वसन्त के स्वागत हित प्रस्तुत गीत रचा है रेखा अस्थाना जी ने… मदिराए वसन्त को देखकर नायिका मदमस्त हो थिरक उठती है… ऐसे में भला प्रियतम की याद उसे क्यों नहीं आएगी…
आ गया है ऋतु मेरा वसन्त |
धड़क धड़क धड़क जाए क्यों आज मेरा मन |
देखो सखी क्या आ गया है द्वार पर वसन्त…
स्वागत में मैंने उसके ओढ़ ली है पीली चुनर,
माथे पर अपने सजा ली है सुर्ख फूलों की झूमर |
धड़क धड़क धड़के है क्यों आज मेरा मन,
देखो सखी क्या आ गया मेरा प्रिय वसन्त…
होकर उसकी याद में मदमस्त बावरी,
कर ली सुगन्धि की मैंने तो पूरी शीशी ही खाली |
अब देखो चहुँ ओर बहने लगी है मलयज की तीखी गंध
थिरक रहें हैं पाँव मेरे, बस में नहीं रहा अब तो मेरा मन |
होकर बावरी गाऊँ गीत मैं, नाचूँ सनसनानन सन
धड़क धड़क धड़क रहा आज सखी मन…
बौराये वृक्ष देते हैं देखो, खुद ही निमन्त्रण
आ जाओ न प्रिय एक बार तुम, करने को आलिंगन |
पगलाई कोयलिया का नहीं, बस में रहा मन
देखो सखी क्या आ गया फिर से मेरा प्रिय वसन्त…
धड़क धड़क धड़क रहा है आज मेरा मन…
सुन्दर छटा अपनी देखकर, इतराए धरा का मन,
किस तरह करूँ आकर्षित तुमको,
गढ़ने लगी अब तो मैं भी प्रेम का ही छंद ||
धड़क धड़क धड़क रहा है क्यों आज मेरा मन
देखो सखी क्या आ गया मेरा प्रिय वसन्त…
____________________रेखा अस्थाना
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और अब एक अन्य ख़ूबसूरत रचना वसन्त के ही स्वागत में… समूची धरा जब हरीतिमा की चादर ओढ़े जन जन को मोहित कर रही हो ऐसे में प्रियतम का पन्थ निहारती नायिका की मनःस्थिति का बहुत सुन्दर चित्रण किया है शशिकिरण श्रीवास्तव ने…
आया बसंत लहराई सरसों, प्रकृति ने किया श्रृंगार
रंग बिरंगी ओढ़नी से ख़ुद को लिया सँवार ||
बागों में कूक रही है कोयल, आंगन में नाचे मोर
पीले पीले पुष्प खिलें हैं देखो चारों ओर ||
कण कण में मस्ती छाई है, अब आया मधुमास
बौराया यह मस्त महीना ले आया उल्लास ||
तन मन मेरा भीग गया जब ठंढी चली बयार
देखूं मैं चारों तरफ वसंत ले आया प्यार ||
देखकर मन मुग्ध हुई मैं देखूं बारंबार
आया वसंत झूमकर लेकर अपना प्यार ||
पतझड़ के कोख से होता हरियाली का जन्म
सब कुछ खोकर भी प्रकृति का उल्लास ना होता कम ||
अब आ भी जाओ साँवरे रही तेरी पंथ निहार
मिलकर रास रचाऊं मैं, तरस रहा संसार ||
___________________शशि किरन श्रीवास्तव
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डॉ बृजबाला शर्मा… हिन्दी की लब्धप्रतिष्ठ कवयित्री… जिस प्रकृति ने हमें सब कुछ दिया, उसी का दोहन हम निरन्तर करते चले आ रहे हैं, ऐसे में कवयित्री का मन व्यथित है और वो बोल उठी है – मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ… रचना का शीर्षक है “फाग का राग”…
सखी मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ, विकल विकल ज़न ज़न के मन |
नयनों भरा जब हो उनके नीर, निज को उलझन में पाऊँ ll
सखी मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ…
प्रकृति की क्या है प्रकृति, कभी भी समझ नहीं पाती |
मोहिनी बन छाई वसुधा पर, अभिराम छटा आँखों में समाऊँ ||
सखी मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ…
मोहन से दोहन की यात्रा, मनुज कर्म का ही है लेखा |
लोभ सुरसा का उदर भरे न, असमंजस में घिरे हुए पाऊँ ||
सखी मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ…
हरीतिम मखमली धरा के युग – युग ऋणी रहे हम |
समय माँग करे है हमसे, वैभव बन पुनः बिछ जाऊँ ||
सखी मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ…
चेतना होगा मनु जाति को कहर बरपे न कभी ऐसा |
सृष्टि निर्मित साध्य बने सब, पुष्प पराग बन खिल जाऊँ ||
सखी मैं आज कैसे फाग सुनाऊँ…
___________________डॉ बृजबाला शर्मा
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माँ वाणी के वन्दन के साथ वसन्त के उल्लास का बड़ा सुन्दर शब्द चित्र प्रस्तुत किया है डॉ रश्मि चौबे ने… शीर्षक है “देखो फिर आ गया वसंत”…
देखो फिर आ गया वसन्त, जिन्दगी में भरने को रंग |
सरस्वती माँ ने वीणा बजाई,
चारों ओर मंत्रोच्चार की आवाज आई |
पीले परिधानों में सज गयी सखियाँ,
पीले पकवानों से भर गयीं थालियाँ |
वीणा की झंकार के संग देखो फिर आ गया वसन्त |
धरती ने पहनी फूलों की चुनरिया,
मन में भरी उमंगों की गगरिया,
वसुंधरा चलती मदमस्त यौवन से भर उल्लास,
पवन भी मन्द-मन्द सुनाता अपना राग,
लताएं लेती अंगडाई, छत पर मीठी धूप है आई,
हरियाली छायी चहुं ओर,
अब नाचने लगा है मन का मोर, देखो फिर आ गया वसन्त |
वसंतोत्सव के साथ मदनोत्सव है आया,
फूलों के आदान-प्रदान का मौसम छाया,
शहनाई बजाता प्यार बरसात चहुं ओर,
जीवन को रंगों से करेगा सराबोर |
देखो फिर आया वसंत, जिंदगी में भरने को रंग |
___________________डॉ रश्मि चौबे
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और अब, ऋतुराज के सम्मान में कुछ पंक्तियाँ हमारी ओर से भी… शीर्षक है “आया वसन्त, आया वसन्त”…
आया वसन्त आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त |
वसुधा के कोने कोने में छाया वसन्त छाया वसन्त ||
लो फिर से है आया वसन्त, लो फिर से मुस्काया वसन्त |
हरियाली धरती को मदमस्त बनाता लो आया वसन्त ||
और अंग अंग में मधु की मस्त बहारों सा छाया वसन्त |
आया वसन्त, आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त ||
मुरझाई डाली लहक उठी, फूलों की बगिया महक उठी |
सरसों फूली अम्बुवा फूले, कोयल मधुस्वर में चहक उठी ||
वन उपवन बाग़ बगीचों में पञ्चम सुर में गाया वसन्त |
आया वसन्त, आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त ||
पपीहा बंसी में सुर फूँके, और डार डार महके फूले |
है सजा प्रणय का राग, हरेक जड़ चेतन का है मन झूमे ||
लो मस्ती का है रास रचाता महकाता आया वसन्त |
आया वसन्त, आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त ||
भंवरा गाता गुन गुन गुन गुन, कलियों से करता अठखेली |
और प्रेम पगे भावों से मन में उनके हूक उपज उठती ||
फिर मस्ती का है राग सुनाता लहराता आया वसन्त |
आया वसन्त, आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त ||
धरती ने पाया नव यौवन, उन्मत्त हो उठे चरन चरन |
छवि देख निराली मधुऋतु की रह गए खुले के खुले नयन |
नयनों की गागर में छवि का सागर भर छलकाया वसन्त ||
आया वसन्त, आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त ||
ऋतु ने नूतन श्रृंगार किया, नैनों में भर अनुराग दिया |
और कामदेव ने एक बार फिर चढ़ा धनुष पर बाण दिया |
तब पीत पुष्प से सजी धरा संग फिर से बौराया बसन्त ||
आया वसन्त, आया वसन्त, लो फिर से मदिराया वसन्त ||
माँ वाणी की उपासना के साथ ही वासन्ती हवाओं से सबके मनों को प्रफुल्लित करते हुए ऋतुराज वसन्त के स्वागत हित प्रस्तुत इस काव्य संकलन के साथ ही वसन्त पञ्चमी की सभी को एक बार पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ…
____________डॉ पूर्णिमा शर्मा